आज कल रिश्ते औपचारिक हो गये
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औपचारिक हो गये हैं
आज कल रिश्ते
ढूॅढने जाना कहॉ है
सब यहीं दिखते
स्वार्थ की दीवार
ऊॅची हो गयी है
प्यार की 'स्कर्ट'
छोटी हो गई है
जिधर देखो हर तरफ
ईमान हैं बिकते
हो गई अनुबन्ध
वाली जिन्दगी है
इसलिये करनी
हमेशा वन्दगी है
चाटुकारी हैं ज़बा से
कुछ नहीं कहते
अर्थ के तन्दूर
दहके सेंकते रोटी
निकल जाता काम
तो फिर काटते बोटी
हैं चली पछुआ हवायें
पॉव हैं बहके
भावना के शहर में
ठहरी नदी है
कुटिल कोलाहल
बहुत बहरी सदी है
हो गई रसधार कुंठित
रस नहीं बहते
औपचारिक हो गये हैं
आजकल रिश्ते
ढूॅढने जाना कहॉ है
सब यहीं दिखते
*
~जयराम जय
'पर्णिका' बी 11/1 कृष्ण विहार
आवास विकास कल्याणपुर 208017
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