भारतीयता के विद्वेषक रचनाकार : प्रेमचंद
---:भारतका एक ब्राह्मण.
संजय कुमार मिश्र "अणु"
मुंशी प्रेमचंद। हां पहले ये धनपत राय थे।ये उर्दू से हिंदी में आए थे।वे खुद हीं स्वीकारते हैं कि इनकी शिक्षा उर्दू माध्यम से मदरसे से हुई।ऐसे भी उस समय में प्रचलित तथ्य था --- 'जितने भी हैं कायस्थ सब पढ़ते हैं फारसी। हिंदुस्तान में अब हिन्दी का रहा कोई कद्रदां नहीं।'और हमारे कथा सम्राट भी इसी विरादरी से था विरादरी का जो उस समय रिवाज था उसका असर इनकी रचनाओं में स्पष्ट दिखता है।
इनकी प्रारंभिक रचनाएं भी उर्दू में ही लिखित और प्रकाशित है। बाद में ये तथाकथित प्रगतिशीलता के चोला पहनकर हिन्दी में आए।इनकी कहानियों के अधिकांश उच्च नायक इस्लामिक, दलित, शोषित और वंचित रहे हैं।बाकि भारत और भारतीयता के विद्वेषपूर्ण चरित्र गढ़ने में ये सिद्धहस्त रहे हैं। भारतीय समाज और संस्कृति के मुखर विरोधी रहे हैं।
इनकी कहानियों में जहां कहीं भी ब्राह्मण पात्र हैं वह रूढ़िवादी है क्रुर है तथा शोषक है।उनके चरित्र में वे केवल खोट हीं देखते हैं। ब्राह्मणवाद का विरोध करना हीं तो प्रगतिशीलता अथवा साम्यवादिता है।प्रेमचंद की कहानी 'सद्गति' और उपन्यास 'गोदान' में इस बात को स्पष्ट देखा जा सकता है।जैसा व्यंग वे 'सद्गति' से ब्राह्मण के उपर करते है कुछ ऐसी हीं 'गोदान' में करते हैं।'सद्गति' और 'गोदान' शब्द भारतीय जनमानस में कितना पुनीत है ये कहने की बात नहीं है पर वे इसको इतने विद्रुप रुप से साहित्य में परोसे हैं कि कहिए मत। कहीं भी हमारे भारत में ऐसा न होता है और न होगा।ये अपनी तथाकथित प्रगतिशीलता के नाम पर हमारे साहित्य समाज में कुत्सित सोच को परोसा है।
प्रेमचंद को महान और उच्च रचनाकार मानने वालों में डा.राम विलास शर्मा आदि को प्रमुख माना जाता है जो कि एक वामपंथी आलोचक हैं।और वामपंथ तो भारतीय सभ्यता संस्कृति और समाज का विरोधी रहा हीं है।यह सर्वविदित सत्य है।यदि साहित्य समाज का दर्पण है तो मैं कह सकता हूं कि प्रेमचंद का साहित्यिक दर्पण टूटा-फूटा है फिर धूलधूसरित है जिससे भारतीय समाज का सिर्फ विकृत रुप हीं दिखता है। कहीं सत्य का यथार्थ बोध नहीं है।
वलिदाद अरवल (बिहार)८०४४०२.
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