ब्राम्हण वर्तमान की चुनौतियों को नजरअंदाज न करें------ ----डॉ . विवेकानंद मिश्र
क्या आप जन्मनाब्राह्मण हैं? या ब्राह्मणों के हित और कल्याण में रुचि रखने वाले व्यक्ति हैं, तो आपसे अपनी बात कहना चाहता हूं।
क्या यह सत्य नहीं है कि आज ब्राह्मण शब्द संभव है अनेक को भ्रम में डाल दे , संभव है बहुत से इसका नाम सुनकर गर्वित हो उठें, अनेक के चेहर पर हो सकता है सुनते ही तिरस्कार के भाव उभर आए , बहुतों की उपेक्षा इसे सहनी पड़े,जबकि"ब्राह्मणस्य हि देहो$यं न क्षुद्र कामाय अस्ति "
अर्थात द्विजदेह क्षुद्र कामनाओं के लिए नहीं है । इसका लक्ष्य तो प्राणी मात्र के कल्याण का है समाज को प्रकाश और नव जीवन का स्रोत देना है ।
हमारे समाज के महान विभूतियों ने सामाजिक जीवन के हर क्षेत्र को चाहे वह क्षेत्र समाज सुधार का हो ,विज्ञान गणित का हो, अध्यात्म का हो, राजनीति का हो या देश भक्ति, कला, संस्कृति धर्म, दर्शन,गीत -संगीत और साहित्य का क्षेत्र हो, देश या समाज का क्षेत्र हो पूरी निष्ठा व ईमानदारी के साथ खून -पसीने से सींचा, है सवांरा है। सामाजिक कार्यों में या आजादी की लडाई में राष्ट्रीय आंदोलन में अग्रणी भूमिका से गौरवान्वित किया है। समय-समय पर देश के हर संकट की घड़ी में तप, त्याग, सेवा और बलिदान का उत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत किया है। किंतु आज ब्राम्हण समाज अभूतपूर्व संकट से गुजर रहा है ।जीवन के हर क्षेत्र में गंभीर चुनौतियां सर उठाए खड़ी हैं, क्योंकि आज संपूर्ण राष्ट्र में ब्राह्मण विरोधी मुहिम राजनीतिक रंगमंच का एक आवश्यक अंग हो गया है ।आजादी के बाद हम ब्राह्मणों की स्थिति दिन प्रतिदिन बद से बदतर होती जा रही है। आज हमारी हालत चक्रव्यूह में घिरे उस निहत्थे अभिमन्यु के जैसी है जिसे घेरकर चारों तरफ से महारथी निरंतर प्रहार कर रहे हैं।हम मूक़ हैं, हम चुप हैं ।अपनी रक्षा के लिए साहस भी नहीं जुटा पा रहे हैं। आज भी मानवमूल्यों की रक्षा को ही अपना धर्म समझने वाले हम ब्राह्मणों के सामने एक गहरा संकट है। और यह संकट और गहराता जा रहा है। संकट केवल गरीबी बेकारी भुखमरी का ही नहीं, बल्कि सम्मान, स्वाभिमान और ब्राम्हण के अस्तित्व का भी है। वर्तमान और भविष्य का है, आने वाली पीढ़ियों को न्याय से वंचित करने का है, क्योंकि हमारे पूर्वजों ने विरासत में जो हमें जीवन चलाने के लिए जीवकोपार्जन के लिए जो आधार जैसे पाठशाला, मंदिर आयुर्वेद, ज्योतिष,कर्मकांड, जागीर आदि दिए थे उसे अंग्रेजों की शासन-व्यवस्था ने भी हमसे नहीं छीनी । पर आजादी के बाद हमारे रहनुमाओं ने हमसे सब कुछ छीन लिया। अब हमारे पास न तो शहर में जीवन है ,न गांव में जीने का साधन , तो आखिर हमारी भलाई कैसे होगी ॽ अतीत की लापरवाही की कीमत हमेशा भविष्य को चुकानी पड़ती है ।हम चुका रहे हैं ।यातना पूर्ण वर्तमान में जी रहे हैं ।और अंधकार मय भविष्य की भयावह तस्वीर देख रहे हैं । हमारे बच्चे सीमित संसाधनों के बावजूद भी अपनी दरिद्रता और अभाव की दारुण आपत्तियों विपत्तियों को सहते हुए अपना अध्ययन कार्य चलाकर कठोर परिश्रम से विभिन्न परीक्षाओं, प्रतियोगिताओं में सफलता पाने के बाद भी उच्च शिक्षा या सरकारी सेवा से वंचित कर दिए जाते हैं। हद तो तब हो गयी जब गैरसरकारी संस्थाओं को भी आरक्षण के दायरे में लाने के लिए दुष्ट नेताओं की कुदृष्टि लगी हुई हैं।स्वाभाविक है कि इससे हमारे प्रतिभावान बच्चे हताश, उदास निराश हो जाते हैं । बेरोजगारी का दंश झेलने को मजबूर ये अवसादपूर्ण जीवन जीने को विवश हो जाते हैं । इनके लिए सरकार द्वारा कोई वैकल्पिक व्यवस्था भी नहीं की जाती तो इनका जीवन भार हो जाता है ।इससे छुटकारा कैसे मिले यह घोर चिंता का विषय है । जिसे यह सोचने को हमें बाध्य होना पढ़ रहा है । अब हमें भी अपने विगत पर विचार करना होगा,वर्तमान एवं भविष्य की चुनौतियों को स्वीकार करना होगा, गंभीरता पूर्वक विचार कर ढूंढना होगा उन कारणों को जिसने हमें अपने सपनों को साकार करने नहीं दिया। हमें लक्ष्य तक पहुंचने नहीं दिया । अब हमें अपने हक के लिए जागरुक और जवाबदेह होना होगा । हमे अपनी पीढ़ियों के सुखद भविष्य के लिए आवश्यकता है। जन्मना ब्राह्मण एवं ब्राम्हणों के हित और कल्याण में रूचि रखने वाले उन तमाम लोगों का जो विभिन्न शाखाओं में बँटे हैं। एक सशक्त संगठन बनाकर एक ही मंच पर लाकर अपनी समस्याओं के निराकरण के लिए ईमानदारी से प्रयास करना होगा। खासकर शाकद्वीपीय ब्राह्मण समाज में राजनीतिक चेतना जागृत करने के लिए तथा राजनीतिक दलमें में सम्मानजनक स्थान दिलाने और सत्ता मैं समुचित भागीदारी के लिए मानसिक दबाव बनाना होगा। इसके लिए हमें सजग सचेत रहकर अपने निहित स्वार्थ को त्याग कर समाज के विकास मे गहरी अभिरुचि लेनी होगा। चूँकि व्यक्ति के विकास की संभावना तभी बनती है जब समाज को नजरअंदाज न कर उसके हित की ओर से विमुख न होकर ध्यान दिया जाय। तभी कोई व्यक्ति उन्नति कर सकता है। जब मनुष्यों के बीच सामाजिक भावना का विचार धुंधला पड़ जाता है तब विकास अवरुद्ध हो जाता है। और आपसी संघर्ष की परिस्थितियां बनने लगती हैं।फिर भविष्य की सारी संभावनाएं तहस -नहस होजाती हैं, क्योंकि हम जैसा बीज बोयेंगे फल भी वैसा ही होगा।जैसे विचार होंगे वैसे ही कर्म बनेंगे,जैसे कर्म करेंगे वैसी परिस्थितियां बनेंगी। मैं आरंभ से ही देख रहा हूं कि अपने समाज में अधिकांशतः लोगों की ऐसी मानसिकता है कि जब आग लगती है तब कुआं खोदने का लोग प्रयास करने लगते हैं। इसी प्रकार से हम समाज में देखते हैं कि जब-जब अपराधियों असामाजिक तत्वों या शासन -प्रशासन के अधिकारियों द्वारा अन्याय अत्याचार होने लगता है तब हमारी नींद टूटती है, संगठन की कमी खलने लगती है, संगठन याद आती है, फिर घर बैठे संवेदना प्रकट कर अधिकांशतः लोग निश्चिंत सा हो जाते हैं। किन्तु अब कुछ परिस्थितियां बदली है। हर व्यक्ति को अब संगठन की कमी महसूस हो रही है। अपने बीच एक सशक्त संगठन की कमी और उससे हो रही हानि को लोग स्वीकार कर रहे है। किंतु सही मार्गदर्शन, कुशल नेतृत्व का अभाव भी लोगों को खटकता है,तब औरों का मनोबल कैसे बढ़ेगा ॽकल्याण कैसे संभव होगा, हालांकि अपने समाज में संगठनों की कमी नहीं है जिसमें सैद्धांतिक उद्देश तो बहुत ही अच्छा लगता है, किंतु व्यवहारिक धरातल पर लोगों को निराशा ही हाथ लगती है। अधिकांशतः संगठनों में युवावर्ग से दूरी और राजनीतिक चिंतन का घोर अभाव भी हमारी असफलता का एक बड़ा कारण है, जिसके फल स्वरुप हर स्तर पर हमारी घोर उपेक्षा होती रही है। अपने समाज के एक से एक राजनीतिज्ञो को नाहक परेशान कर अपमानित करने की कारवाई विभिन्न दलों के वर्चस्ववादी, जातिगत नेताओं के द्वारा लगातार होती रही है। जिसके शिकार स्वतंत्रता संग्राम के अग्रणी नेताओं में एक, किसानों के प्राण पंडित यदुनंदन शर्मा, पंडित विगेसर मिश्र, पं॰ गोपाल मिश्र, पं॰ अनंतदेव मिश्र के अलावे मगध में एक से एक विलक्षण प्रतिभाशाली पुरुषों को सामाजिक राजनीतिक जीवन के प्रायः सभी क्षेत्रों में अपमान का दंस झेलना पड़ा और आज भी उपेक्षा जारी है। इसके बावजूद भी वे लोग धन्यवाद के पात्र हैं, जिन्होंने संघर्षपूर्ण चुनौतियो को स्वीकार कर अपने प्रतिभावान व्यक्तित्व से राजनीतिक दलों के अलावे हर क्षेत्रो में पंचायत, प्रखंड, जिला से लेकर प्रदेश तक भिन्न- भिन्न क्षेत्रो में अपनी पकड़ बनाई है। यह प्रसन्नता की बात है , परंतु यह संतोष करने की बात नहीं है ।
उल्लेखनीय है कि ब्राह्मण समाज के नाम पर अनेक संगठन तथाकथित समाजसेवियों द्वारा बनाए ग ए हैं। किंतु राजनीति एवं राजनीतिज्ञों से इतनी दूरी बनाए हुए संगठन को समझ में क्यों नहीं आता कि समाज में राजनीति करने बाले भी हमारे अभिन्न अंग हैं। तब उनके हित और कल्याण की बात करना जिसमें संगठनो का हित भी निहित है उनकी बात सुनना तथा अपनी ओर से सहयोग सहायता देने का साहस जुटाना ,जिसे संविधान ने भी अधिकार प्रदान किया है, उन्हें भी अभिव्यक्ति की आजादी दी है, ऐसे में सामाजिक संगठन के नाम पर राजनीतिज्ञों का दरवाजा बंद करना, बुद्धिजीवियों को हैरान करने वाली बात है। निश्चित तौर पर खुले दिल -दिमाग से व्यापक रूप से विचारणीय है। और सामाजिक संगठनों की व्यापकता को समझने की भी आवश्यकता है। कुशल और श्रेष्ठ अनुभवी जनों का मार्गदर्शन, सतत प्रेरणा, संगठन की संजीवनी माना जाता है जिसका अभाव हमें प्रायः संगठनों में दृष्टिगोचर होता है, साथ ही वैचारिक मतभेद अंतर्विरोध, वादी -प्रतवादी स्वर से औरों को एकजुटता का संदेश कैसे दे पाएंगे, तथा मिटते अस्तित्व की रक्षा कैसे कर पाएँगे।आज युग की मांग है यह।यही सबसे बड़ा धर्म है जो समाज में हम सब महसूस कर रहे हैं ।अब समाज के नेतृत्व के लिए युवा शक्ति को आगे लाने का मार्ग प्रशस्त किया जाए। जिनके पास विभिन्न प्रकार की उपयोगी शक्तियां हैं उन्हें अपने समाज के, जाति के राजनीतिक, सामाजिक सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक भविष्य के निर्धारण में एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करनी है।इसके लिए हमे ऊर्जावान युवाओं का चयन कर नेतृत्व की बागडोर उनके हाथ देनी चाहिए तब ही व्यक्ति समाज एवं राष्ट्र का व्यापक कल्याण, सुरक्षा संभव है।
अंत में जिस बात की ओर ध्यान आकृष्ट कराना चाहता हूं, शायद आप भी सहमत होंगे, आज सामाजिक जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में हम लगातार पिछड़ते जा रहे हैं क्योंकि हम एक सोचे-समझे सुनियोजित राजनीतिक षड्यंत्र के शिकार हो रहे हैं और यह भी उनके द्वारा जो हमारे सहयोग, सहायता से पद एवं प्रभुता प्राप्त करने के बाद वर्चस्ववादी जातियों के नेता हमें प्रतिबंधित करते हैं। हमें न तो संगठन में सम्मानजनक स्थान, ना ही सत्ता में समुचित भागीदारी, फिर भी उन्हीं की जयकारे में चार पीढ़ियों से हम सब लगे हैं जबकि राजनीत ने आज संपूर्ण समाज में सर्वोच्च सस्ता -साम्राज्य स्थापित कर लिया है जिससे आप भी इंकार नहीं कर सकते परंतु इसकी गंभीरता को समझने के लिए हम आज भी तैयार नहीं है हम उससे अलग थलग पड़े हुए हैं इसके लिए हमें भी अपने समाज में राजनीतिक चेतना जागृत करनी होगी । अपने हक लेने के लिए आगे आना होगा, नहीं तो ऐसे में इससे दूरी बनाने वाले व्यक्ति या समाज का कोई अस्तित्व नहीं रह जाएगा । इसलिए हमें भी राजनीति में सक्रिय भागीदारी निभाने के लिए अपने बीच से सक्षम व्यक्तियों को आगे लाना होगा। अपना अस्तित्व बचाने के लिए राजनीतिक भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए हमें संघर्षशील होकर अपना स्थान बनाना होगा । संघर्ष करना ही होगा ।हमें राजनीतिक दलों के संगठन मैं समुचित स्थान पाना होगा । यह हमारी मजबूरी हैऔर जरूरत भी । मेरी समझ से इसके लिए एकमात्र उपाय वैचारिक क्रांति का मार्ग है , यही एक मात्र उपाय हो सकता है। अंत में आप सबस से विनम्र आग्रह है कि मेरे विचार और सलाह को अन्यथा न ले कर इईमानदारी से विचार करेंगे। मैंने अपनों के बीच अपनी बात रखने की धृष्टता की है तो गलती हो तो सत्कार्य में भूल समझकर क्षम्य भी हूँ।
( परामर्श -- माधव जी, कृष्णवल्लभ शर्मा जी, राममोहन शुक्ला जी एवं अन्य )
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