अपना गाँव
कहाँ गया छोटा सा सुंदर, प्रेमठाँव का अपना गाँव।
जहाँ दिलों में बसी हुई थी नेक नियति की प्रेमिल छाँव।।
चौथी रोटी रहे आसरा, वह क्या जाने दूसरा दांव।
सबकुछ ही चाहिये सभी को, उसे चाहिये निश्छल भाव।।
कहाँ गये बरगद, पीपल वे, कहाँ गये रामधुन चाव।
'उगना रे मोर कतए गेल' सा टेर भावमय और बनाव।।
कंकरीट बहुत फैले हैं, फैल गये
कुभाव, दुराव।
घटी पेड़- पगाध की छाया त्योंही
हटे गाँव से पाँव।।
रामराज आएगा अपना, आशा में ढूँढ़ता पड़ाव।
बहुत हुआ, बख्सो बिलार अब नहीं चाहिए कोई घाव।।
©माधव
पटना
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