जीवन संगिनी ।
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बड़ा गजब का रिश्ता है
उसका और मेरा
मेरे साथ ही जन्म लिया है
उसने भी
क्रमवार उम्र के साथ चलती रही
न आहट न पदचाप
चुपचाप गतिमान
साये की तरह
कभी बीमार पड़ा मैं
कमजोर हुआ
वह भले न पड़ी बीमार
मेरी तरह लेकिन
कमजोर तो हो ही गई
जैसे जैसे मैं हुआ चंगा
मानो वह भी हो गई
हहराती गंगा
दिन हो या रात
सदा निभाती रही साथ
ऐसे मानो उसके ही हाथ हो
मेरा हाथ
जब चलती बेर आखिरी बार
मेरी चाल धीमी हुई
उसकी गति भी मद्धिम हो गई
ऐसा लगा
मानो उसने भी तैयार रखा है
अपना साजो सामान
रखने को मेरा मान
तीन बार जोर से झकझोरा
फिर शांत हो गई
मेरी चिरशांति को देखकर
जीवन संगिनी
श्वास तरंगिनी।।
....मनोज कुमार मिश्र"पद्मनाभ"।
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