बोलो, तुम कहां खड़े हो?
तू साहित्य का कुशल चितेरा ,
किया नहीं कभी तेरा- मेरा।
न्याय समता के प्रबल पक्षधर,
सृजन- क्रांति है तेरा बसेरा ।।
तुम तो उदार सहनशील थे,
अब क्यों संकीर्ण हुए जाते हो।
जाति- वर्ग संप्रदाय विशेष में
बांट -बांट कर पाते क्या हो।।
एकताभाव, राष्ट्रभावना, वह तेरा संस्कृतिभाव।
कहाँ गये शोषणविरुद्ध ऊर्जस्वित वे मुक्तिभाव।।
तू जन-मन का सम्राट यहाँ बन,
कालजयी बन जाते थे।
युगों-युगों तक भी तम में प्रभा
अजस्र फैलाते थे।।
जनता हेतु रामबाण वे
चले तुम्हारे कहाँ गये ।
लोक चेतना की रक्षा के
दायित्व तुम्हारे कहां गए ।।
आदर्श दिखाकर स्वयं "विवेक" से शाश्वत जीवनमूल्यों की।
जो रक्षा, रचना करते थे, वे भाव, भूमिका कहां गए।।
डॉ. विवेकानंद मिश्रा,
डॉक्टर. विवेकानंद पथ गोल बगीचा,गया(बिहार)।
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