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जिंदगी तू मुझे पहचान न पाई लेकिन

जिंदगी तू मुझे पहचान न पाई लेकिन

लोग कहते हैं कि मैं तेरा नुमाइंदा हूं।

बस गई है मेरे अहसास में ये कैसी उजाले , 
अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो ,
न जाने किस गली में ज़िंदगी की शाम हो जाए।

जिस दिन से चला हूं मुझे मंज़िल पे नज़र है
आंखों ने कभी मील का पत्थर नहीं देखा।

हम भी दरिया हैं, हमें अपना हुनर मालूम है,
जिस तरफ़ भी चल पड़ेंगे, रास्ता हो जाएगा।

मकान से क्या मुझे लेना 
मकान , तुमको मुबारक हो
मगर ये घास वाला रेशमी कालीन मेरा है।

               [ संजय कुमार झा  ] 
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