अपनी बेटी को सुधारिये
रामनगर की अंजु एक नये जमाने की लड़की थी,जो अपने माता पिता के दुलार में पली थी। अंजु अपने घर में माता-पिता के साथ रहती थी।वह घर के बाहर की चीजें खाना पसंद करती थी। उसे अपनी माँ के साथ किचन में काम करने में मन नहीं लगता था। अंजु की माँ अंजु को लेकर काफी चिंतित रहती थी कि जब इसकी शादी हो जायेगी तो इसका घर-परिवार कैसे चलेगा।
देखते ही देखते अंजु अब पच्चीस साल की हो गयी थी,कुछ दिन बाद उसकी शादी रेलवे में कार्य करने वाले लखनपुर के एक रेलवे गार्ड सुधांशु रंजन से हो गयी। सुधांशु का परिवार अंजु के परिवार से बड़ा था।
इधर सुधांशु की माँ गोरी बहु पाकर काफी खुश थी।
कुछ दिन तो अंजु के दिन काफी खुशी से बीते। शादी के कुछ महीने बाद अंजु की सास सुनयना देवी उसे बात-बात पर ताना देने लगी कि हमारी तो किस्मत फुट गयी जो तुम्हारी जैसी बहु मिली। तुम्हारे माँ-बाप ने तुम्हें कुछ भी सिखाकर नहीं भेजा। कुछ भी शील संस्कार,सद्विचार एवं सदव्यवहार नहीं सिखाये।
पास में हीं बैठे सुनयना देवी के छोटे दामाद आनन्द का दिमाग अपनी सास की बातों को सुनकर गर्म हो रहा था।
आनन्द ने अपनी सास सुनयना देवी को समझाते हुये कहा कि "अगर दुनियाँ की सभी माँ अपनी- अपनी बेटियों में अच्छे-अच्छे गुण,शील,संस्कार एवं सद्विचार भर दे,अपनी बेटियों को सुधार दे तो अपनी-अपनी बहुओं को समझाने एवं डांटने की नौबत नहीं आती। अच्छा आप एक बात बताईये माता जी क्या आपने अपनी बेटियों को सुधरने की कोशिश की है,अपनी बेटियों को अच्छे गुण,शील व संस्कार दिये हैं और यदि नहीं दिये तो आपको अपनी बहु को डांटने एवं समझाने का कोई अधिकार नहीं है।"
अपने दामाद आनन्द की यह बातें सुनकर माता सुनयना देवी
आवाक रह गयीं,मानो काटो तो खुन नहीं।
शायद सुनयना देवी को अपनी गलती का अहसास हो चुका था।
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अरविन्द अकेला
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