शुचिता: जातीय संदर्भ
शुचिता रखना जातिबाध्य नियम नहीं हो सकता। यह सभी के लिए आवश्यक है। बाह्य और आंतरिक शुचिता का संतुलन परिस्थिति सापेक्ष्य है। जिस तरह सत्य भाषण सभी के लिए जरूरी है, अकेले ब्राह्मण के लिए ही नहीं। किंतु समाज के निदर्शन कार्य से आबद्ध ब्राह्मण के लिए प्रथमतः धार्य जरूर हो जाता है।पर आज के युग में आचार्यत्व ब्राह्मण तक सीमित नहीं रहा। संस्कृत का अध्ययन और वेदान्ताचार्य इतर वर्ण वाले भी हो रहे। कर्मकांड संपादन अन्य जातियाँ भी कर, करा रही हैं। तै फिर आचरण की बाध्यता केलल ब्राह्मण को कैसे ! यह तो ऐसी बात हुई कि बंदूक तो किसी सैनिक के पास रहेगी, पर फायर करेगा कोई क्षत्रिय ही। बाह्य शुचिता और आभ्यंतर शुचिता का अनुपालन सभी को करना है, कार्य की प्रकृति के अनुसार सम्यक संतुलन बनाकर।
"संतोषी ब्राह्मणः सुखी " का अभिप्राय ब्राह्मणकर्म संबद्ध है न कि मात्र जाति से। देश-सीमा पर स्थित ब्राह्मण सैनिक अहिंसा का पाठ नहीं पढ़ेगा , शत्रुहंता गोली दागना छोड़ संतोष करके हाथ पर हाथ नहीं धरेगा ।
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