कलम और कलमा
--:भारतका एक ब्राह्मण
संजय कुमार मिश्र "अणु"
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अब से,
वो आप नहीं लिखेंगे-
जो हैं।।
बल्कि वही लिखेंगें-
जो मैं चाहता हूँ
जैसा लोग चाहते हैं।।
भला यह भी कोई बात है?
कभी यदि कह दिए तुम-
बाहर का रास्ता दिखाते हैं।।
जहां अभिव्यक्ति पर हो पावंदी
वहां रहना मुनासिब नहीं
ऐसा हमें लोग बताते हैं।।
आपके साथ आपकी बिवसता है
मेरे साथ तो अश्वस्तता है
हम अपना पंथ खुद बनाते हैं।।
मैं लिखता हूं
अपनी खुशी के लिए
खुशामद के लिए नहीं
न चौखट की चाकरी के लिए
और न राग दरवारी के लिए
हम अपनी बात से लोगों को जगाते हैं।।
आप आप हैं
मैं मैं हूं
मैं नहीं हो सकता आप
भले चला जाऊंगा चुपचाप
यहां तो लोग आते और जाते हैं।।
कोई चरण चुमता हैं
तो कोई चरण दबाते हैं।।
फिर भी चरण चाटूकारिता नहीं करता,
स्वभाव लिखता हूं और स्वभाव में जीता
स्व का बोध हीं मुझे बचाते हैं।।
मैं नहीं कर सकता हूं वैसा
जैसा आप कहें वैसा
स्वाभिमान में जान लुटाते हैं।।
वैसा हीं लिखेंगे हम
जैसा मुझे रुचता है
मेरा है स्वाधीन कलम
वह कहाँ कभी रूकता है
कलम को कलम रहने दो,
उससे हथियार मत गढो।
दुसरे की खुशामद के लिए-
स्वधर्म भुल कलमा मत पढो।।
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