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हैं किये हमने कद अपने खुद से छोटे

हैं किये हमने कद अपने खुद से छोटे,

हैं किये हमने कद अपने खुद से छोटे,
लेकिन बड़े हैं, हमारे हौसलों के मुखौटे,

पौधों को मिले पेड़ सी काया, साया, छाया, 
और दुनिया के सामने बड़े लगने लगें मेरे बेटे।

मेरी मुफलिसी और मेरी  प्यारी गठरी,
है कमर में, कबर में, आज भी सजी संवरी।
सारा कानन, आंगन, सावन मेरा दीवाना,
भटकती हूँ गांव, शहर, नगरी, नगरी।
भोर रोज, सुत को जगा उठ जाऊं,
इस उमर में भी जीवन ना चले लेटे, लेटे ।

पौधों को मिले पेड़ सी काया, साया, छाया, 
और दुनिया के सामने बड़े लगने लगें मेरे बेटे।

नहीं सुनता हमारी कोई कभी विनती,
कौन सी हो गई हमसे खता, भूल, गल्ती,
बरसों पहले से हम झोपड़ी में सोते,
आज भी रात झोपड़ी में ही ढलती।

समुंदर सी है, गमों, जख्मों की गहराई,
चलूं छोटी सी कस्ती में उन्हें समेटे, समेटे।

पौधों को मिले पेड़ सी काया, साया, छाया, 
और दुनिया के सामने बड़े लगने लगें मेरे बेटे।

हम बरस के मौसम सारे बताते,
कैसे सर्दी, गर्मी, बारिश में तापमान आते-जाते,
जब आप मौसमी भोजन का लुत्फ़ उठाते, 
तब हम आंसुओं के गीतों को हैं, गुनगुनाते।

आप जयपुरी रजाई में दुबके अपने आशियाने,
फिरें हम, फटी साड़ी तन पर लपेटे, लपेटे।
 
है किये हमने कद अपने खुद से छोटे,
लेकिन बड़े हैं हमारे हौसलों के मुखौटे,

पौधों को मिले पेड़ सी काया, साया, छाया, 
और दुनिया के सामने बड़े लगने लगें मेरे बेटे।

राजेश लखेरा, जबलपुर, म. प्र.।
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