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गया को कई नामों से जाना जाता है। औरंगज़ेब काल में आलमगीर पुर , अंग्रेज़ो के काल मे साहेब गंज,प्राचीन कालिक गयाजी एवं गयाधाम भी।प्राचीन काल में मूल गया बहुत सिमटी थी जो चार फाटकों के भीतर किले में सुरक्षित की तरह ।किंतु अभी तो इसके विस्तार और विकास का क्रम गतिमान है। प्राय:किसी स्थान विशेष में रहने वाले लोगों को उस स्थान के नाम से संबोधित किया जाता है। उसी तरह गया धाम में रहने वालों को धामी कहा जाना चाहिए किंतु ऐसा है नहींं। गयाजी के पंडा समाज ने अपने को गयापाल(गयवाल) घोषित कर दिया पर इन्ही से जुड़े कुछ लोग है ं जिन्हे ं धामी कहा जाता है। कुछ पिंड वेदियाँ जो दूर हैं उनका स्वामित्व जैसा भाग इन्हे दिया गया है जिससे इनकी जीविका चलती है।गया के मध्य कोतवाली से पश्चिम , पुरानी गोदाम से पूरब,के पी रोड(कृष्ण प्रकाशपथ) सेउत्तर और टिकारीरोड के दक्षिण का भाग धामी टोला के नाम से जाना जाता है।यहीं धामी पंडों का निवास है।इसी महल्ले में के पी रोड के उत्तरी भाग में एक नीम का पेड़ प्रसिद्ध है। यहाँ आनंदी माई का विग्रह स्थापित है जो अत्यन्त प्रतिष्ठित है।इसी के ठीक दक्षिण सड़क के किनारे नगर के प्रसिद्ध वस्त्र व्यवसायी डालमिया निवास तथा व्यापारिक संस्थान है।यह स्थान धामी टोला नीम तर से जाना जाता है। इस मुहल्ले में ऐसा परिवार भी है जिसका योगदान भारतीय स्वतंत्रता संग्राम से जुडा है।भोलाजी और जमुना जी दोनों भाई थे।स्वभाव और शरीर से भिन्न थे।एक बार स्वतंत्रता आंदोलन मे किसी चलती जूलूस के आगे-आगे माला पहने चल रहे थे पुलिस के साथ चल रहे अफसर ने उनकी माला छूकर कहा ,यह क्या है? भोलाजी ने कहा, यह भोला का हार है,तुरंत उसने आदेश दिया लिखो, ऐसका नाम भोलाकाहार , तब से सरकार में भोलाकहार रहे।जमुना थे क्रांतिकारी,देश की स्वतंत्रता के बहुत बाद जब पेशन का इनाम बँटने लगा तो इन्होने लेने से मना कर दिया।कहा,देश की सेवा का मूल्य नहीं चाहिए।।भोलाजी की जीविका के नाम पर एक बिजली बत्ती,माइक आदि सामान को भाड़े पर लगाने और बेचने की दूकान थी।उनके साथ कई सहायक भी रहते थे जिनकी जीविका इनके सहारे चलती थी।
नीम के पेड़ के नीचे दस/दस का एक खुला चबूतरा था जिस पर दशहरा दिवाली में मूर्तियाँ बैठाई जातीं और पूजन होता। यह स्थान कथावाचन के लिए उपयुक्त था।यहाँ प्राय,: कोई न कोई संत महात्मा अथवा प्रवचन करनेवाले आते उन्हे उचित सम्मान मिलता।आम जन से नहीं तो डालमिया जी से तो जरूर मिलता,उनके यहाँ से को ई खाली हाथ लौटा हो ऐसा सुना नहीं। विशेष अवसरों पर जैसे गीता जयन्ति, तुलसी जयन्ति आदि में सप्ताह भर प्रवचन चलता।हालाकि श्रोताओं की संख्या अपेक्षाकृत कम होती, कभी-कभी तो छ: सात गौएँ अवश्य बैठ पागुर करती रहती मानों भावी जीवन के लिए उपदेश हृदय में उतार रही हों। यह सब तब होता जब शाम आठ बजे से दूकानें बंद होने लगतींं।
सुबह आठ बजे से दूकाने सजने लगतीं फूटपाथ पर भी ।वही ऊपर में त्रिपाल डाल कर जुए की दूकान भी सज जाती, एक का दो-एक का दो,एक लगाओ दो पाओ की पुकार के साथ कारवार शुरू हो जाता।इस कारोवार मे साथ देने केलिए कुछ कमीशन एजेंट भी रहते जो ग्राहकों की तरह घेर कर खडे हो जाते।ये एजेंट ग्राहकों के सलाहकार की भूमिका में रहकर उन्हें चूना लगाते।जो भलेमानुष लोभ के जाल में फँसे होते उन्हे शिक्षा तो मिल ही जाती।कोई-कोई उज्जठ हारने पर झगडने लगता तो वहाँ के एजेंट ही उसकी धुलाई कर देते। ऐसे कई खेल चलते। तिनतशिया में भी वही सब होता ।एक बार मैरे शिक्षक मित्र भी मेरे मना करने पर भी जुट गये।परीणाम वही हुआ।सौ सौ के नोट तीन बार हारने केबाद मुह लटकाए निकल गये।इस भीड़ मे जेबकतरों का भी अपना दाँव होता है। कुछ ऐसे कलाकार मुझे जानते थे सो मुझे हट जाने का इशारा कर देते।एक बार एक ने मुझे अलग बुला कर कहा,बाबा आप जेब में दसे पैसा रखते हैं?मैने पूछा ,तुमको कैसे मालूम ।उसने कहा तीन बार निकाल कर रख दिया।आप इतने लापरवाह हैं?उस समय लज्जित होने के सिवा क्या करता। लेकिन वह था सचमूच कलाकार।एक बार तमाशा दिखाने लगा फूंक से आग की लंपट निकाल कर चकित कर दिया। कोई चमत्कार नहीं बस सफाई ट्रिक।मेररी उत्सुकता शांत करने केलिए उसनें बताया--मुह में थोड़ा सा किरासन तेल रखिए,,एक तीली जला कर मुह से एक बित्ता दूर रखिए और हलके फूक मारिए हवा में फुहारे की तरह आगे की लपट उठ जाएगी।ऐसा प्रयोग करने की हहिम्मत नहीं हुई।वह छाता मरम्मत तथा चाभी बनानेे का भी काम करता था।वह स्प्रिट भी पीता था लेकिन पानी मिला कर।यहाँ से पूरब चौराहे के पास साँप लड़ाने कभी नचाने के बहाने भीड़ जुटाकर साँप बिच्छू के काटने की दवा बेच कर पेट पालने वाले का उद्यम करत।उनमे एक थे, केशव प्रसाद चंदेल, देव के रहने वाले थे।अपना पता ठिकाना बड़े गर्व से बतलाते।उनकी बेचने की शैली मुझे अच्छी लगतीं।पहल मुफ्त मे दो चार बाँटो जब और हाथ बढ़ने लगे सबसे वापस लेकर कहना कि इसका एक ररुपया दाम रखते हैं अब माँगो तो कौन मूछ व वाल माँगतता है।इतना कहना ,रुपया बाहर आने लगा । गया में वह किराए पर एक कमरा लेकर रहता था ।जाति से पक्का चदेल क्षत्री ।अपना कोई नहीं,पर महीने छमाहे गाँव जरूर जाता ।कुछमिठाई ,लेमनचूह बिसकुट ले जाता अपने साथ और बच्चों को ढूंढ कर बाँट देता। एक भले आदमी मजमा लगा कर दाँत दर्द की दवा बेचता।जब उसके ददाँता मे दर्द होता तब बुल्लूवैद्य के पास जाता। इन्द्रजाल वाले भी खखूब कमाई कर जजाते।
इस जगह। दशहरा में कानपुर के गुलाब बाई की नौटंकी पार्टी हीआती रात के दसरराज्यपबजे से भोर तकनक्कारे की आवाज गडगड़ाती रहती। यह सिलसिला अनेक वर्ष तक चला।एक दिन ऐसा आया कि भोलाजी काभी मन पलट गया और फिर ड्डालमिया सहित क ई लोगोने सममिति बनाई तथा प्रति वर्ष रामचरितमानस का नवाह परायण,प्रवचन के विचार ऐसे दृढ़ हुए कि अब तक चल रहे हैं। पहली बार मे उद्घाटन के लिए बिहर के तत्कालीन महामहिम राज्यपाल डा अनंतशयनमांयगरर महोदय के कर कमलों ं से सम्पन्न हुआ था।यह वर्ष था 1970 आश्विन शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि गया के लिए ऐतिहासिक दिन और तिथि बन गई जिसमें गंगाधर डालमिया ,शिव कुमार डालमिया शिवराम डालमिया, चौबेजी(श्री कृष्ण भंडार) आदि का सहर्ष सहयोग रहा।पं शिव कुमार व्यास की वाचन शैली अद्भुद आकर्षक थी जिनके नेतर्त्व में 108 सथानीय रामचरित मानसपाठी ब्र्राह्मणों के द्बारा नवाह्न पारायण यज्ञ सम्पन्न हहुआ था।तब से आज तक यह सिलसिला जारी है।इन पचास वर्षों में भौतिक और गुणात्मक परिवर्तन भी बहुत हुए । लोग बदले,विचार और आचार में भी परिवर्तन हुआ है। फिर भी यतो धर्मस्ततो जय:।
डा रामकृष्ण
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