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गया की मंडी और मालवाहक

गया की मंडी और मालवाहक

गयाजी का एक नाम साहबगंज है।औरंगजेब के‌ काल में यह आलमगीर पुर के नाम से जाना जाता था।
स्थानों के नामकरण मे प्रशासनिक हस्तक्षेप  स्वाभाविक है।किंतु‌ जनमानस  की स्वीकृति हो ही आवश्यक नहीं ।
चार फाटकों मे सिमटा धार्मिक , सांस्कृतिक और ऐतिहासिक महत्व वाले शहर से दक्षिण में विकसित बड़ा,सा क्षेत्र पाँचवें दशक तक आसपास के गाँव के‌ लोगों के लिए साहेबगंज ही रहा।साहबगंज इसलिए कि अंग्रेजों‌ने हावडा से दिल्ली को रेल मार्ग से जोड़ने केलिए जो ग्रैंड कार्ड लाइने बिछाई  वहगया से हो कर गुजरीं।बिहार केअन्य भागों को जोड़ने केलिए  गया को जंक्शन बनाना पडा और पटना एवंं कियुल  के लिए लिंक  लाइन जोड़नी पड़ी।
व्यापारिक दृष्टि से  गया एक महत्वपूर्ण   मंडी है। यह इस्ट इंडिया कंपनी की व्यापारिक दृटि में‌ इस लिए जरूरी हुआ क्योंकि बिहार  कपास,गन्ना,चावल दलहन,तलहन का उत्पादक क्षेत्र रहा है। तत्कालीन‌ पूर्ण बिहार को एक बिंदु पर कैन्द्रित करने  का प्रमुख  केन्द्र बना।इसकी बनावट इतनी‌ वैज्ञानिक सूझ-बूझ केसाथ हुई‌ कि   आज यह बिहार के अन्य नगरों में श्रेष्ठतम है।
 यहाँ की मुख्य मंडी  नगर के मध्य  इस तरह  बनाई गयी ताकि हर तरफ से लोग यहाँ आ-जा सकें।यह टिकारी रोड और के पी रोड के बीच स्थित है जिसके पूरब मे धामीटोला,पश्चिम मे मेख लौट‌गंज ,दक्षिण में कठोतर तालाव(जोअब नहीं है)और कसाब टोला उत्तर में फतेहगंज और मुरारपुर । यह भाग गोदाम कहलाता है।यह भाग मूलत:धामी टोला के नीम के पेंड़,जहाँ आनंदी माई का मंदिर है,से लेकरपश्चिम के चौथे चौराहे तक फैला है ।इतनी दूरी में भी इसके‌ कई नाम भाग के अनुसार हो गये हैं‌।जैसै पुरानी गोदाम,भीतर  गोदाम ,बाहर गोदाम,हाते गोदाम।भीतर गोदाम का मतलब मुरारपुर रोड से‌ लेकर‌ इस क्षेत्र के पश्चिम भाग तक।
बाहर गोदाम यानि भीतर गोदाम का‌ बाहरी पश्चिमी भाग और हाते गोदाम का मतलब--बाहर गोदाम के बीच से एक स़क सड़क धामी टोला तक गई है।इस रोड के पहले  मोड़ ‌ के बीच से एक बडे मैदान जैसा‌ था जिसके‌ तीन और द्बार है।यानि उत्तरी द्बार टिकारी रोड़ मे‌,पूर्व द्बार‌ पुरानी गोदाम रोड़‌ में‌ औरपश्चीमी द्बार बाहर‌  गोदाम वाले रोड में जो‌  टिकारी‌  रोड को जोडता है।
हाते गोदाम का परिसर‌ प्राय:बाहर से माल लेकर‌आने और यहाँ से माल ले जाने वाली गाडियों के ठहराँव‌ के लिए‌  था। यहाँ की आढ़ती व्यवस्था अपने ढंग की थी सभी अढतिओं के पास‌ एक गाड़ीखाना जरूर होता‌ था क्योंकि गाँव से अथवा ग्रामीण बाजार से‌ अनाज लेकर सुबह‌ -सुबह गाडींवान  पहुंचकर   आढत खुलने की प्रतीक्षा करता था।आढत  तो आठ बजे
 के पहले, खुलने सै रहा।तब तक बैलों को खिलाने पिलाने ‌ और सुस्ताने केलिए गाड़ीखाना उपयुक्त होता था। उस‌ समय  सामान ढोने का  मुख्य साधन बैल गाड़ी ही था।मंडी में एक दूकान से दूसरी तक या बैल गाडी तक  सामान ले जाने तथा लाने के‌लिए हाथ रिक्शे अथवा पोलदार की आवश्यकता होती थी। पोलदार  के लिए कुली शब्द का भी प्रयोग कर सकते हैं लेकिन मंडी में उनके लिए  यही प्रचलित है आज भी। गया जंक्शन होने के  कारण रेल से भी सामान‌ आते‌ हैं इस के‌लिए‌ रेल विभाग ने एक माल गोदाम भी बना‌ रखा है।वहाँ से सामान मंडी तक  लाने मे बैल गाड़ी का उपयोग होता था। रेलवे द्बारा सामान भेजने केलिए भी बैलगाड़ी से ही मालगोदाम तक सामान  भेजा जाता।आम खरीदार के ढोने भर से अधिक  सामान होनें पर हाथ रिक्शे ‌का उपयोग किया जाता।इसके अलावा आज कल जिस तरह साइकल रिकशा का उपयोग करते ‌हैं ,उन दिनों हाथ रिक्शे का होता था। यही नहीं नगर पालिका की कूड़ा गाड़ी भी बैल से चलती थी ।चूकि‌ गया का व्यापारिक संबंध कलकत्ते से आरंभ से ही रहा‌ है, खास कर मील के बने कपड़े प्रसाधन-सिंगार आदि के सामान वहीं से आते थे। ऊच्च शिक्षा के लिए भी वही  सहायक था। हाथ रिक्शे का प्रचलन वहाँ जोर दार था।उसी का प्रभाव‌ हुआ होगा गया‌ में हाथ रिक्शा। हाथ रिक्शे पर चढ़ने का‌ मुझे भी‌ सौभाग्य मिला है। लेकिन विवशता में ,मन से नहीं।भला हो निर्माण कर्ताओं  का जिन्हो ने साइकल रिक्शा‌ बना कर इस अमानुषिक  उत्पीडन जन्य  विवशता से मुक्ति दिला दी। हालाकि इसमें भी काफी समय लगा।छठी शताब्दी उत्तरार्ध तक तो कमोवेस चलता ही रहा।
गया की मंडी   में  कई अढतिआ थे‌ जिनमें  जुगल भदानी,( बाहर गोदाम)जो रामचंद राम के फाटक में ,प्रभु चंद कन्हैया  लाल(मुरारपुर रोडमें) , कन्हैया महाजन हाते गोदाम में आदि।
अनाज के अलावा यहाँ किराना का थोक कारवार दूर दूर तक के व्यापारियों को आकृष्ट करता रहा है आज तक।
किराना के थोक व्यापारियों मे हलखोरी वंशी,कन्हाई चमारी  के नाम प्रसिद्ध थे।
गोदाम से पूरब  धामीटोला, में परचून,शीशा,लालटेन,चिमनी आदि घरेलू उपयोग की अनेक वस्तुओं की ‌थोक एवं खुदरा  विक्री के लिए‌ अनेक दूकाने हैं साथ ही थोक‌ वस्त्र विक्रेता भी काफी है ‌जिनका कारोबार लगभग पूरे प्रांत में होता रहा है। फलगु नदी के पूर्वी भाग मानपुर तोपहले हाथ करघा फिर पावर लूम उद्योग के कारण  बिहार का कानपुर‌ कहलाने लगा। इन व्यापारिक क्रिया कलापो ं‌में पोलदार,हाथ रिक्शा,बैलगाड़ी का महत्व साठ के दशक तक कमोबेसी चलता रहा। जबसे साइकल रिक्शा ,ठेला,ट्रक‌ की सुविधा हुई ,पहले वाले वाहन लुप्त होतें गये।पर पोलदारों‌ का वर्चस्व आज भी‌ बना‌ हुआ‌ है।उनके  बिना‌ एक भी बोरा या गट्ठर टस से मस‌ नहीं हो सकता।
इस मंडी में नमक का अपना अलग महत्व था।दक्षिण भारत से ट्रक में ढेले के स्वरूप में आता और यहाँ उसकी पिसाई,बोरियों में भराई होती।व्यापारी मिल से‌ उठा ले जाते। बाहर गोदाम नीम के पेड़ के सामने पूरबी कोने पर शेरघाटी के पचरतन लाल के मक़ान से सटे उत्तर प्रभात अग्रवाल का ‌आटा चक्की मिल था । मेरे घर का गेहूँ वहीं पिसाता था। एक दिन देखा कि एक ट्रक से नमक के ढेले उतर रहे हैं। मुझे देखकर  प्रभात  के ,,,पिताजी ने कहा ,या‌ तो  कल  आओ नहींं तो रख दो‌ शाम में ले जाना।आभी नमक पिसाई होगी । मै गेहूँ रखकर देखने लगा कि कैसे सौ-पचास ‌ ग्राम  का नमक ढेला मिल में‌ पिसाता है। देखा उनका नौकर मिल के‌ डाले में ‌कड़ाही‌ से उठा कर डालता गया  और घंघरी वाले मुह से महीन नमक  गिरता गया। उन दिनो नमक के पैकेट नहीं होते थे।फुटपाथ पर बोरा बिछा कर खुले उझल दिया जाता। खरीदार भी ढाई सेर से   कम नहीं‌ खरीदते थे कारण‌,आठ आने मे पाँच सेर मिलता।जिसको एक पाव चाहिए तो उसे मुफतिया हाथ में जितना अँटता दे‌ दिया जाता।आढ़त वाले अपने व्यारियों का पूरा ख्याल रखते।उनके रहने के लिए व्यवस्था होती थी।
समय की गति के प्रवाह मे अभी‌ सारी पुरानी बाते  अविश्वसनीय सी लगने लगती हैं।एक‌ समय था कि गया तम्बाकू  का बढिया करोवारी  बाजार था। खुदरा‌ दूकानों के अतिरिक्त थोक‌ व्यापार ऐसा जिसका‌ निर्यात  विदेशों तक होता था। बडे थोक विक्रेता थे--चमारी साहु महावीर प्रसाद, करामत मियाँ, हाजी बु अली मियाँ उर्फ लंगड़ू मियाँ मुर्ग बेचवा। तब हुक्का गुड़गुड़ाता था।अब वैसी चिलम नही बनती ।बनती भी  है तो गाँजे केलिए।
डा रामकृष्ण
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