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हम नहीं गंधर्व के टूटे हुए स्वर

हम नहीं गंधर्व के टूटे हुए स्वर

पिनाकी के परशु के
हूँकार हैं।
सव्यसाची की प्रतिश्रुति केलिए
एक वंशी नाद के
आधार  हैं।

घोसलों में ,कुटीरों में,
बिछ गया -सा‌ है
भले अवसाद।
किंतु अब भी शेष है
  प्रस्तरी ऊर्जा‌का /वही                      
मेवाड़ -सा‌ प्रासाद।
प्रकृति की चैतन्यता के
पुण्यप्रद आभार हैं।।

हस्तियाँ  आती रहीं 
जाती रहीं
भी है ं।
चित्रिकाएँ  बनी,
फिर  मिटती रहीं
भी है ं।
मर्त्य और अमर्त्य के
हम संबलित आधार हैं।।

भूत और भविष्य के 
अंतर कलह में ‌भी।
साधना के शिखर के
अथ से फतह में भी।
वर्जनाओं‌ केलिए भी
  हम  सहज प्रतिकार हैं‌।।
रामकृष्ण/गयाजी
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