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हिंदी के तथाकथित विद्वान और हिंदी का विकृत होता स्वरूप

हिंदी के तथाकथित विद्वान और हिंदी का विकृत होता स्वरूप

हिंदी हमारी राष्ट्रभाषा है । इसे एक भाषा की गरिमा देना हम सबका नैतिक और राष्ट्रीय दायित्व है। परंतु देखा यह जा रहा है कि देश के कुछ तथाकथित लब्ध प्रतिष्ठित हिंदी विद्वान ही हिंदी को एक बोली तक या एक 'खिचड़ी भाषा' के रूप में परिवर्तित करने की सोच से ग्रसित हैं । उनका कहना है कि हिंदी को इतना सरल कर दिया जाए कि वह जनसाधारण की भाषा में बात करने लगे। उनका तर्क होता है कि हिंदी को संकीर्ण और साम्प्रदायिक मत बनाओ। उसे दूसरी भाषाओं के शब्दों को लेने दो।
वास्तव में ऐसी सोच देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरु की थी। जिन्होंने हिंदी के स्थान पर 'हिंदुस्तानी' भाषा को विकसित करने का प्रयास किया था। उनका कहना था कि इस 'हिंदुस्तानी' में देश की सभी भाषाओं के शब्दों को समन्वित कर लिया जाए और एक ऐसी भाषा बना ली जाए जिसे सब समझ लें। नेहरू जी के इस आवाहन पर कार्य करते हुए देश के मीडिया जगत ने और विशेष रूप से दूरदर्शन और आकाशवाणी ने इस पर अक्षरश: कार्य करना आरंभ किया । ऐसा करने वाले वही लोग थे जो उस समय "गोदी मीडिया'' के नाम से विख्यात हुए थे । यही कारण रहा कि इन्होंने देश में 'हिंग्लिश' तक लाकर हिंदी की दुर्दशा कर दी है। इस प्रकार आज की खिचड़ी हिंदी ना तो हिंदुस्तानी रही है और ना ही हिंदी रही है , अब वह 'हिंग्लिश' हो गई है। जिसकी अपनी ना तो कोई आभा है और ना ही कोई अपनी व्याकरण है। राष्ट्रभाषा के रूप में विकसित इस नई भाषा ने उर्दू के शब्दों को अपनाना तो उचित माना है परंतु हिंदी के विशुद्ध शब्दों से इसने किनारा किया है । इस स्थिति के समर्थक कहते हैं कि देश की भाषा हिंदी के क्लिष्ट शब्दों को निकालकर वर्तमान में प्रचलित शब्दों को पकड़कर हिंदी में यथावत स्वीकार कर लेने में ही लाभ है।
इस संबंध में अभी संपन्न हुई एक वेबीनार में एक महोदय कह रहे थे कि जैसे 'लॉकडाउन' शब्द है ,इसका कोई हिंदी में शब्द नहीं मिलता तो इसे हिंदी की कविता या किसी लेख में यथावत स्वीकार कर लिया जाना उचित होगा। इसमें कोई भी बुराई नहीं है।
हमारा मानना है कि भाषा शब्द अपने आप में ही एक आभा अर्थात एक गरिमा एक ऐसे दीप्तिमान आभामंडल का सूचक और प्रतीक है जो भाषा को पवित्रता ,उच्चता और वैयाकरणिक आधार प्रदान करता है। वह भाषा भाषा नहीं हो सकती जिसका कोई वैयाकरणिक आधार ना हो। हाँ, ऐसी निराधार भाषा को आप 'बोली' कह सकते हैं। बोली भाषा की जूठन और छूटन है। टूटन और फूटन है। जिसका अपना कोई निजी अस्तित्व नहीं होता। इसे गवार लोग अपनी सुविधा और जुबान के अनुसार विकसित कर लेते हैं। जब आप हिंदी साहित्य की या हिंदी भाषा की सेवा कर रहे होने का दम भरते हो तो यह समझ लीजिए कि आपको उस समय हिंदी के पवित्र संस्कारों का ध्यान रखते हुए सुसंस्कृत, परिष्कृत और समृद्ध भाषा का ही प्रयोग करना चाहिए । फिर चाहे वह कविता हो या किसी अन्य साहित्यिक सृजन का कार्य हो।
हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि देश के वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एक परिष्कृत और शुद्ध हिंदी को अपने भाषणों के माध्यम से लाने का सराहनीय प्रयास कर रहे हैं । इसी प्रकार की हिंदी को आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत या दूसरे लोग भी बोलने का प्रयास करते देखे जाते हैं । यह बड़ी दु:खद स्थिति है कि आज का साहित्यकार नेहरू के उस पाखंडी आदर्शवाद से बाहर नहीं निकल पाया है जिसमें हिंदी को हिंदुस्तानी के रूप में विकसित करने की बात कही गई थी । जबकि आज की राजनीति इससे बहुत आगे निकल चुकी है। यह बड़ी ही हास्यास्पद स्थिति है कि देश की राजनीति आज साहित्यकार को भाषा संबंधी ज्ञान दे रही है । जबकि होता यह है कि साहित्यकार राजनीति को भाषा बोध कराता है।
हिंदी का विद्वान भी यदि भाषा के शब्द के लिए अपने आपको कंगाल समझेगा या राष्ट्रभाषा को कंगाल समझकर दूसरी भाषाओं के शब्दों का सहारा लेगा तो इससे हमारी राष्ट्रभाषा कभी भी एक भाषा की गरिमा को प्राप्त नहीं कर पाएगी। जहां तक 'लॉकडाउन' शब्द के हिंदी के स्थानापन्न शब्द को खोजने की बात है तो यह 'निषिद्ध अवधि' हो सकता है। कुछ लोगों ने 'निषिद्ध अवधि' शब्द को क्लिष्ट कहेंगे और इसे जनसाधारण का शब्द न मानकर 'लॉकडाउन' को अपनी स्वीकार्यता प्रदान करेंगे। ऐसे लोगों से यह पूछा जा सकता है कि 'लॉकडाउन' किस व्याकरण का शब्द है ? इसकी उत्पत्ति कहां से हुई है? यदि हिंदी की व्याकरण से इसकी उत्पत्ति नहीं है तो फिर हम इसे देवनागरी में लिखा होने के उपरांत भी हिंदी का शब्द स्वीकार नहीं कर सकते। हिंदी की सेवा करने के दृष्टिकोण से हमें निश्चित रूप से हिंदी में ही अंग्रेजी के शब्दों का अर्थ ढूंढना पड़ेगा। हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि जनसाधारण में जो भाषा बोली जाती है वह भाषा न होकर बोली होती है। बोली में विभिन्न भाषाओं के शब्द हो सकते हैं। परंतु भाषा अपने ही शब्दों को लेकर आगे बढ़ती है। जहां तक हिंदी की बात है तो यह तो विश्व की समृद्धतम भाषा है, इसलिए इसे किसी दूसरी भाषा के शब्दों को लेने की आवश्यकता नहीं है।
जब हम स्वयं या तो शब्दों के विषय में खोखले होते हैं या हमें अपेक्षित ज्ञान नहीं होता तब हम दूसरी भाषाओं के शब्दों को लेकर हिंदी में लिखना आरंभ कर देते हैं और अपनी अज्ञानता को छिपाने के लिए यह राग अलापने लगते हैं कि भाषा को संकीर्ण और सांप्रदायिक न बनाकर उसे सर्व सुलभ बनाने के दृष्टिकोण से काम करना चाहिए।
एक शब्द आप लीजिए - रिश्वत। इसके स्थान पर यदि हम उत्कोच को प्रयोग करें तो निश्चित रूप से कुछ समय में यह शब्द लोगों की वाणी पर आ सकता है। पर हम ऐसा नहीं करते हम जनसाधारण की बोली को पकड़कर भाषा बिगाड़ते हैं ।जबकि होना यह चाहिए कि भाषा की परिष्कृत अवस्था को पकड़कर हम जनसाधारण की बोली के शब्दों को सुधारने का काम करें।
हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि यह केवल हमारे देश में ही है कि जहां जनसाधारण की बोली के गंवारू शब्दों को हम साहित्य में स्थान देते हैं और इसी को अच्छा मानते हैं । जबकि अन्य देशों में भाषा के साहित्यिक शब्दों का प्रयोग विद्वान लोग करते देखे जाते हैं। जैसे भारत में 'जुगाड़' शब्द को प्रयोग करते हुए विद्वान लोग भी देखे जाते हैं यदि इसके स्थान पर 'युक्ति' शब्द का प्रयोग किया जाए तो यह भाषा की सेवा होगी। पर हम 'जुगाड़' शुद्ध को प्रयोग करते जाते हैं । जिससे भाषा विकृत होती जा रही है और ऐसा लगता है कि जैसे वैयाकरणिक और वैज्ञानिक शब्दों का हिंदी के पास अभाव है।
जनसाधारण की बोली को हिंदी भाषा बनाने की हमारी मूर्खतापूर्ण अंधी दौड़ ने हिंदी के कितने ही पवित्र शब्दों को बहुत पीछे छोड़ दिया है । जैसे एक शब्द है संस्तुति। संस्तुति बहुत ही प्यारा शब्द है। इसमें सम्यक स्तुति करने का भाव अंतर्निहित है अर्थात किसी व्यक्ति के गुणों को मैं विचारपूर्वक यथावत स्वीकार करता हूं -जब ऐसा कहा जाता है तो यह संसत्युत्यात्मक श्रेणी में आता है । व्यवहार में इसके स्थान पर 'सिफारिश' उर्दू का और 'रिकमेंडेशन' अंग्रेजी का शब्द प्रचलित हो गया है।
यह 'सिफारिश' शब्द रिश्वत के अंतर्निहित भाव को भी लिए होता है । जबकि संस्तुति में बहुत ही पवित्रता होती है। यदि हम 'सिफारिश' या 'रिकमेंडेशन' के स्थान पर अपने संस्तुति शब्द का प्रयोग करें तो उससे भाषा की पवित्रता और साथ ही साथ व्यावहारिक पवित्रता के इतिहास का भी हमें बोध होता है। इसलिए अपनी भाषा पर हमें ध्यान देना चाहिए। जब हम बार-बार हिंदी के शुद्ध और पवित्र शब्दों का प्रयोग करेंगे तो हम देखेंगे कि जनसाधारण भी उसे पकड़ने लगेगा। जब विदेशी भाषाओं के शब्दों को हमारा जनसाधारण पकड़ सकता है तो उससे हम यह कैसे कल्पना कर सकते हैं कि वह हमारे हिंदी के शुद्ध शब्दों को नहीं पकड़ेगा ? अब यहां पर हम 'अ' अक्षर से आरंभ होने वाले उर्दू के उन शब्दों को देखेंगे जो हमारी दैनिक जीवन में प्रयोग होते हैं। उनके साथ साथ हम उर्दू के शब्द का हिंदी अर्थ भी दे रहे हैं। हिंदी अर्थ को देखकर आप यह सहज अनुमान लगा सकते हैं कि यह अर्थ इतने क्लिष्ट नहीं हैं जिसे हमारा जनसाधारण बोल नहीं सकता।
अक़्ल = बुद्धि, तर्क, ज्ञान, मति, प्रज्ञा, मस्तिष्क, ज्ञान,
अकबर = सबसे महान, महानतम, महत्तम,
अकसर = अधिकतर, बहुत बार, बहुधा, विशेषकर, प्रायः, लगभग, सदा, सर्वदा,
अख्ज़ = पकड़नेवाला, लेनेवाला, छीनने वाला, लोभी
अख़बार = समाचार, समाचारपत्र, वृत्तपत्र, वर्तमान पत्र, सामयिक पत्र,
अगर = यदि, तथापि,
अग्यार = अजनबी, प्रतिद्वन्दी (गै़र का बहुवचन)
अगल़ात = अशुद्धियां (गल़त का बहुवचन)
अर्जमन्द = महान
अऱ्ज = धरती, क्षेत्र, पृथ्वी
अजनबी = आगंतुक, विदेशी, परदेसी, अपरिचित,
अज़ल = अनन्तकाल, सनातनत्व, नित्यता
अजब = कौतुक, आश्चर्य, असाधारण,
अजीब = आश्चर्यजनक, अद्भुत, निराला
अज़ाब = पीड़ा, सन्ताप, दंड
अज़ीज़ = प्रिय, माननीय, आदरणीय, गुणवान
अज़ीम = महान, विशाल, उच्च मर्यादा वाला
अटक =विघ्न, बाधा
अत्त्फ़ाल = बच्चे, संतति (तिफ़्ल का बहुवचन), संतान, पुत्र-पुत्रियाँ,
अत्फ़ = दया, भेंट, प्रेम, कृपा
अदा = ऋण चुकाना,
अदा = मनोहरता, श्रृंगार, सुन्दरता, अभिनय,
अदीब = विद्वान, जानकार, तज्ञ,
अदालत = न्यायालय, न्याय, कानून
अदम = शून्य, अस्तित्वहीन, अभाव,
अन्जाम = अन्त, परिणाम, फल,
अन्जुमन = परिषद, सभा, सम्मेलन,
अन्दाज़ा = अनुमान, आंकना, माप
अन्दर = भीतर, अन्दर,
अफ़स़ना = कहानी, कल्पित कथा, कथा, वार्ता,
अफ़सुर्दा = उदास, विषाद, उदासीन, म्लान, करूण, शोकग्रस्त, दुःखी, पीडित,
अफ़सोस = शोक, पछतावा, उदासी, दुःख, पीडा, पश्चात्ताप,
अब = अभी, वर्तमान,
अब्तर = नष्ट,बिखारा हुआ, मूल्यहीन,
अबद =अनन्तकाल, चिरकाल,
अब्र = बादल, मेघ,
अब्रू = भौंह, भौं,
अब्सार = आंखें (बसर का बहुवचन), नयन, नेत्र,
अब्ना = बेटे (इब्न का बहुवचन),सन्धि, सहमति, घटना, संयोग, अवसर
अबस = लाभहीन, बेकार, व्यर्थ, तुच्छ, नगण्य,
अब्द = दास, परमात्मा का दास,
अमलन = यथार्थ में, सच में, सत्यता पूर्वक, वास्तविक, वास्तव, असल में,
अमानत = धरोहर, विरासत, बपौति, परंपरा,
अऱ्ज = याचना, विनय, विनती, परखना, प्रदर्शन, प्रार्थना, अभ्यर्थना, अनुरोध,
आग्रह
अर्श = छत, छत्र, सर्वोच्च, स्वर्ग,
अरमान = इच्छा, लालसा, आशा, वांछा, वांछना, आकांक्षा, स्पृहा, कामना, अभिलाषा, मनोरथ, अभीष्ट, निवेदन, प्रार्थना, याचना
अल्फ़ाज़ = शब्द (अल्फ़ज़ का बहुवचन),
अल = कला,
अलीम = बुद्धिमान, विद्वान, तज्ञ, वेत्ता,
अव्वल = प्रथम, सर्वश्रेष्ठ, अतिउत्तम, सर्वोच्च,
अश्फ़ाक = सहारा, अनुग्रह, कृपा (शफ़क का बहुवचन), आश्रय, सहायता, आसरा,
अश्क़िया = क्रूर, कठोरहृदय, निर्दय, दयाहीन,
अश्क = आँसू, अश्रु,
असद = सिंह, शेर, केसरी,
असरार = भेद (बहुवचन),
असफ़ार = यात्रायें (सफ़र का बहुवचन), प्रवास,
अस्क़ाम = बुराइयां, कमज़ोरियां, कमियां, दुष्टता, नीचता, दोष, अवगुण, निन्दा,
असीर = कैदी, बन्दि,
अस्हाब = मालिक स्वामी (साहिब का बहुवचन),
अस्ल = मूल, नींव, नीवँ, मूलतत्त्व,
अस्ली = मौलिक, मूल, वास्तविक, सत्य, खरा
असर = चिन्ह, परिणाम, फल, लक्षण, प्रभाव.
असास = नींव, नीवँ, पाया, आधार,
अस्बाब = कारण, साधन, वजह,
अब आप अनुमान लगा सकते हैं कि यदि हिंदी वर्णमाला के एक अक्षर से इतने शब्द हिंदी में प्रवेश कर गए हैं तो हिंदी का मौलिक स्वरूप कितना गंदला हो चुका होगा ? ऐसे में हिंदी पखवाड़े के अवसर पर हम सब यह संकल्प लें कि हम हिंदी की सेवा करते हुए हिंदी के शुद्ध शब्दों का प्रयोग करेंगे और अपने हस्ताक्षर भी हिंदी में करने का प्रयास करेंगे।
डॉ राकेश कुमार आर्यसंपादक : उगता भारत
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