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कार्तिकी नववर्ष

कार्तिकी नववर्ष

संकलन अश्विनी कुमार तिवारी
कार्तिकी नववर्ष, उस गोप, ग्वाल संस्कृति की स्मृतियों को संजोए हुए हैं, जब गौधन की समृद्धि की कामना के साथ गौचारण के लिए गिरिमह का आयोजन होता। हरिवंश में यह शब्द और यह परम्परा स्मृति शेष है और नारी जीवन से जुड़ी परंपराएं इसे चिरायु रखे हैं।
कृतिका से ही वराहमिहिर ने नक्षत्रव्यूह को आरंभ माना और इसी आधार पर स्पष्ट कर दिया है कि सांवत्सर, पुरोहित, ब्राह्मण, कुम्हार, भांडारकर, अग्निजीवी, यज्ञ, मंत्र ज्ञाता, भाष्यकर्ता आदि कृतिकागत हैं। पुराने पंचांग इसी दिन से शुरू होते हैं। यह बड़ा सच है कि कृतिका विचार से ही समुदाय ने यक्षों की तरह वैभव की कामना की और गोधन को पूजा। लगुड़ प्रतिपदा की प्रभात गौ और उसे चारणोपयोगी यष्टि की अर्चना व संध्या बैलों के नीराजन की मान्यता एक सुदीर्घ परंपरा को लिए हुए है।
सब मित्रों को इस वार्षिक पर्व पर मंगल कामनाएं...।
गांव-गांव गवली
कार्तिकी नव सम्वत्सर की जड़ें कितनी मजबूत है, इसका पता परस्पर मिलने जाने और मुंह मीठा करने से तो लगता ही है, साथ ही गो, गोबर धन, बैल पूजन और नई बही में पहली पंक्ति लिखने की परम्परा से भी जाहिर है। इस दिन उजाला होने पर भी एक दीपदान होता है और यह घर के दरवाजे पर होता है : नई सुबह के नाम और नई उपज-निपज के नाम जिसका आधार गाय और उसके जाये बैलों की ऊर्जा होती है।
यह बड़ा सच है कि गोबर एक खाद के रूप में खेत को उर्वरा बनाता है, हर एक बीज को हज़ार बीज देने वाला बना देता है। जब से गोबर के इस बल को मानव ने समझा, उसके प्रति आदर का भाव जागा और वह अर्चना का अंग बना। पालतू पशुओं के गोबर के ढेर को अपनी रोड़ी या घूरा में रोजाना जमा किया जाता है और फिर पावस से पूर्व बिखेरा जाता है।
कार्तिकी नव संवत्सर के दिन गोबर को फेंका नहीं जाता, घर के बाहर ही अनेक रूपों में थेपा जाता है। उस पर वे ही सारे कृषि उत्पाद लगाये और सजाये जाते हैं जो कार्तिकी उपज में मिली है। यथा : कपास के फूल, कप्पा, गन्ना के बाण, मक्का, चँवला, मूँग, उड़द...। गौ घृत की धूप सुलगे गोबर के उपलों पर लगाकर गोदेव को नमन किया जाता। फिर, गोळी बनाकर छाछ बिलोई जाती है। इसके बाद घर की गायों को छोड़ा जाता है। वे गोबरधन को गचरती-रौंदती हुई आगे निकल जाती है। यह सब सुहागिनों के हाथों होता है। नारी इस रूप में भी कृषि और उसके सहारे गोधन से जुडी दिखाई देती हैं।
यह मूलतः कृषि उत्पादकों और गौ बल के अभिवर्धन का टोटका भी है और नवोत्पादन का न्यास भी। यह सब बहुत बाद में कृष्णकथा से जुड़ा क्योंकि पूरा कथानक गौ संस्कृति के आसपास का है। विष्णु धर्मोत्तरकार ने भित्ति पर कृषि के उपकरणों के अंकन का संकेत किया है।

गांव वाले ही जानते हैं कि गौधन का महत्व क्या है, उन्होंने कोई चोपड़ी नहीं पढ़ी और न किसी ने समझाया है बल्कि उन्होंने जन्म से ही जाना है। इसीलिये गाय उनको कभी मारती नहीं, तारती है, उबारती है। वे जब तब गायों को पूजते हैं। रंगों-रस्सियों से सजाते हैं। गले में टनटनाती टोकरियाँ और पांवों में छुनछुनाते हुए घुँघरुओं की गमक से गायों को गवली पर लाया जाता है।

नव संवत्सर पर गोधन की पूजा होती है। गवली वह जगह है जहाँ गायों और बैलों की पूजा की जाती है। गाँव-गाँव गवली होती है : गौ और गौ जाये बैलों का पूजा स्थल। जो गांव जितना बड़ा, गवली उतनी ही बड़ी। कभी इस आधार पर चरनोट की गोचर्मभूमि प्रमाण माना गया होगा। घर को गोवाड़, गुवाड़ या गुवाड़ी कहना और कहलाना इज़्ज़त समझा जाता है। घर को गौमुखी शुभ माना गया है। ऐसे घर की गावी नामक रचना शुभ होती है जैसा कि मत्स्य पुराण का मत है। घर से बाहर देखने के लिए बनाई गई खिड़कियां गवाक्ष या गोख, गोखड़ा कही जाती है... है न गोमय घर की रचना।

गोधन से ही गुवाड़ की पहचान और सम्मान माना जाता है। गो से इतर गोत्र यानि एक ही कुल परिवार। इन गुवाड़ों से ही कोई इलाका गोठां कहा जाता और गोठां से ही बस्ती गांव होती है। गोधन की ऐसी महिमा है कि गायों से ही गौरव है। गायों से ग्वाल, गायों से गोपाल, गायों से गोस्वामी। गाव का गान गावन या गायन...।

गवली का आंगन गोबर से लिपा जाता है और सजी-धजी गायों, बैलों को बारी बारी लाया जाता है और पूजा जाकर भड़काया जाता है। पूजा में कार्तिकी उत्पादों से ही नैवेद्य तैयार किया जाता है जो गोनेवज या गोग्रास कहा जाता है। पटेल मुखिया अपने हाथों से पली धूप देता हुआ एक एक गाय-बैल को नेवज देता है। गौजाये अपना गला-सिर हिलाकर रमजोल बजाते हुए आशीष देते जाते हैं।

नव संवत्सर की इससे बड़ी सार्थकता क्या होगी कि हमें अपनी जड़ों की याद आए।
( गवायुर्वेद की भूमिका)
लगुड प्रतिपदा - कार्तिकी प्रतिपदा
कार्तिक शुक्‍ला प्रतिपदा से नव संवत्‍सर की मान्‍यता रही है। जिन क्षेत्रों में देवसेनापति स्‍कंद का प्रभाव रहा, उनमें यह संवत्‍सरारंभ तिथि रही है। आप सभी को बधाई...।

कार्तिक शुक्‍ला प्रतिपदा को लगुड प्रतिपदा के नाम से भी जाना जाता रहा है। यह गोवंश के पूजन का पर्व कृषि बहुल क्षेत्र में मनाया जाता रहा है। आज भी इसको 'खेंखरा' या 'खेंकडा' के नाम से मनाया जाता है। गांवों में इस दिन गोधन का शृंगार किया जाता है और सुबह गायों के क्रीडन के साथ उत्‍सव मनाकर शाम को बैलों को रमाया-खिलाया जाता है। गाेधन के गीतों और गाथाओं का गान किया जाता है। इन गाथाओं काे हीड़ कहा जाता है। ऋग्‍वेद में गोवंश के चिंतन, अभिवर्द्धन के साक्ष्‍य मिलते हैं। मेरे शोध अध्‍ययन का विषय यही रहा है।

नवीं सदी में संपादित 'कृषि पराशर' में इस पर्व का विशेष महत्‍व आया है और यह वर्णन सस्‍यवेद से लेकर पुराणों में विस्‍तृत फलक पाए हुए है। कहा गया है कि लगुड प्रतिपदा को गायों के सींगों में श्‍यामलता बांधकर सजाएं और तेल व हल्‍दी चढ़ाकर सजाए, उनका पूजन करें। गोपालजन गायों की बाधाओं की शांति के लिए उनके शरीर पर कुंकुम व चंदन का लेपकर तथा आभूषण धारण करवाएं। अपने हाथ में लाठी लिए घूमाएं, रमाएं। वस्‍त्रादि समपर्ति कर मुख्‍य बैल को सजाएं और गाजे-बाजे के साथ उसे गांव में घूमाएं। (कृषि पराशर 99, 100)
यह भी कहा गया है-
सर्वा गोजातय: सुस्‍था भवन्‍तयेतेन तदगृहे।
नाना व्‍याध्‍ािविमिर्मुक्‍ता वर्षमेकं न संशय:।। (कृषि पराशर 104)
ऐसा करने वाले किसान के घर का समस्‍त गाेवंश निसंदेह एक साल के लिए स्‍वस्‍थ रहता है और बाधाओं से मुक्‍त रहता है।
मेरे गांव में आज भी यह परंपरा यथारूप है। वहां गोपग्‍वाल काे बुलाकर गांव के मुखिया द्वारा उसके लगुड या दण्‍ड की पूजा की जाती है। बाद में गाेक्रीडन होता है...। संध्‍या वेला में पूरे गांव के बैलों को सजाकर उनका लंबरदार के यहां पूजन करवाया जाता है। उनके लिए सुहालिकाएं बनाई जाती हैं।
रात ढले यक्षपूजा के रूप में भारी भरकम घांस को बैलों से जाेत गांव में घूमाया जाता है...।
✍🏻श्रीकृष्ण जुगनू जी की पोस्टों से संग्रहित

भारत (बोर-ओत) कृषि प्रधान देश है .. खेती-किसानी कण-कण रग-रग में रचा बसा है.. गायन,नृत्य,दर्शन,परब-त्योहार आदि में कृषि रचा बसा है… फसल बुआई की उमंग और खुशी,फसल लहलहाने की खुशी और अतिरेकता, फसल कटाई की प्रसन्नता और उल्लास सब में परब-त्योहार और गायन-नृत्य और सब बड़े धूमधाम से।.. करम मनाये धान रोपने की खुशी में और अच्छी फसल की कामना के लिए.. दांसाय (दसहरा) मनाये फसल को क्षति न पहुँचे और एक समुचित देख-रेख के लिए.. और अब सोहराय फसल काटने के पहले।
सोहराय का शाब्दिक अर्थ… ‘सोहर+राय’ … सोहर मने धान की बालियों का फूटना/निकलना और ‘राय’ मने झुकना .. धान के बाली जब फूट के नेवाने(झुकने) लगते हैं तब सोहराय का महीना चढ़ता है.. और इन झुकी बालियों को काटने से पहले सोहराय करते हैं।.. वैसे सोहरना का मतलब सजना-संवरना या बनना-ठनना भी होता है। .. और सोहराय में तो घर-दुआर, आँगन-बाहर, गाँव-गली एकदम से ही सोहर उठते हैं.. सब चिकन-चानो चकाचौंध।


करम में चारों ओर बस हरियाली ही हरियाली.. जिधर नजर दौड़ाये उधर बस धान के लहलहाते खेत और उन लहलहाती और सरसराती आद्र हवाओं के मध्य गाय-गोरु के गले में बंधा ठेरका की आवाजें। अहा!!.. फिर हवाएं जैसे-जैसे शुष्क होती गई वैसे-वैसे धान में बालियां फूटती गई और रँग हरियाली से सुनहरे रंग में बदलता गया .. दांसाय से सोहराय महीना चढ़ा.. और सोहराय चढ़ते ही पशु-पक्षियों में एक अलग सा ही जोश,खरोश और उमंग .. इनकी उमंगता देखते ही बनती है.. सावन में भारी चास-बास के चलते और हरियाली छाने के बाद हरे घास खाकर ये मवेशी अब जरा ज्यादा हृष्ट-पुष्ट हो गए हैं.. बैल-बाछा तो पूँछी उठा के दौड़ लगाने लगे हैं.. इनकी उमंगता देखते ही सबके मुँह से अनायास ही निकलता है “लागो हो सारहेन के सोहराय चइढ़ गेलव रे!!”


तो सोहराय केवल कृषक किसान के लिए एक अच्छी फसल की उपज का ही परब नहीं है अपितु यह गाय-गोरु का भी परब है।.. बल्कि गाय-गोरु को ही समर्पित परब है।.. उपज(धन-धान्य) को समर्पित परब है। .. गाय-गोरु को तो लगता कि इस परब का बेसब्री से इंतजार रहता है.. और सोहराय महीना चढ़ते ही इजहार करना शुरू कर देते है।
हमारी फसल को उगाने में जिनका भी सहयोग रहा उन सब की सोहराय में पूजा करते हैं.. हल-जुआठ,मेर-रक्सा,गाय-गोरु-काड़ा-भैंस सबका। .. फसल उगाने के पारस्परिक सहयोग को समर्पित करता परब है सोहराय।


सोहराय के पाँच, सात या नौ दिन पहले से ही सभी मवेशियों के सींगों में तेल लगाया जाता है.. सोहराय के दिन सभी गाय-गोरु, हल-जुआठ को धो-धा के आँगन-गोहाल को लीप-लाप के, अरवा चावल की गुंडी से चौक पुर कर गाय-गोरु,हल-जुआठ की पूजा की जाती हैं।.. इससे पहले धान के खेत से पकी धान को काट के लाते हैं उसका मांडर(हार/माला) बनाते हैं और गाय-गोरु के पूजा के बाद उनके सींग में सिंदूर से गोल-गोल छल्ले बनाते हैं, सजाते हैं और मांडर को उसके माथे में बाँधते हैं।.. गोहाल पूजा, गौरेया पूजा करते हैं गोहाल में।
आज(लक्ष्मी/लछमी पूजा) का दिन कांची-दियरी(दीया) का होता है। .. चावल के गुंडी का दिया बनाया जाता।. और उनको पहले हम वहीं जलाते/रखते है जो हमारी कृषि को सुदृढ़ करते हैं।.. गोबर डिंग(गोबर का गड्डा) जो हमारा प्राकृतिक खाद का अड्डा है वहाँ एक।.. कुंआ पानी का स्रोत वहाँ एक .. गोहाल घर गाय-गोरु का घर वहाँ फिर अपने घर-दुआर और छत ऊपर।
इसी दिन से गाय-गोरु और फसल को समर्पित गान जिसको की ‘अहिरा’ बोला जाता है पूरे मांदर-ढांसा-ढोल के साथ घर-घर में जा-जा के गाते-बजाते-नाचते हैं। .. पूरा वातावरण मांदर के थापों और अहिरा गान से गुंजयमान हो जाता है।
सोहराय के अंतिम दिन ‘बरद-खूंटा’ होता है (पिछले वर्ष का वीडियो देख सकते हैं) ।


अब देश के अलग-अलग हिस्सों में अलग-अलग नामों से ये परब मनाया जाता। .. कहीं सोहराय,कहीं दीवाली,कहीं लक्ष्मी पूजा तो कहीं काली पूजा। .. लेकिन मूल-भाव एक ही है।
हमारे लिए लछमी कौन ? तो हमारे लिए लछमी हमारे धान्य,फसल और गाय-गोरु .. हमारी ऐश्वर्य का प्रतीक हमारे गाय-गोरु होते हैं/थे... अब तो नौकरी-चाकरी के चक्कर में जरा अंतर आया है.. सम्पन्नता,ऐश्वर्यता तो घर में कितने जोड़े बैल और गाय हैं को देख कर ही आती थी.. तो ये हुए हमारे लछमी और लछमी माता। और इनको ही हम पूजा करते। .. अब जिनके पास ये नहीं उनके लिए लछमी कौन ? तो उनके लिए लछमी वही जिनसे उनका घर-परिवार चल रहा है.. बनिया के लिए उनका दुकान,बंटखारा, सोनार के लिए उनके जेवर-आभूषण, इसी तरह अन्य लोगों के लिए भी.. अब इन्होंने इसे गणेश और लक्ष्मी जी को समर्पित करते हुए पूजा किया और कर रहे हैं।.. एक उदाहरण देखिये.. हमारे के जैसा ही महाराष्ट्र में एक परब होता है ‘पोळा’ .. बैल सब को खूब सजाते धजाते हैं.. अब जिनके पास बैल हैं वे सीधा पोळा मनाते हैं बैल के साथ.. लेकिन जिनके पास बैल नहीं है वे क्या करते हैं? तो वे काठ की नन्दी बनाते हैं और उनको सजा-धजा के पूजा करते हैं।
अब अपना ही उदाहरण देते हैं.. मेरे गाँव में आज से 15 साल पहले सबके घर के आगे बरद खूंटाता था .. हमारी पूरी मंडली 12 बजे दिन से ही बरद हिलहिलाने निकल पड़ते थे.. लेकिन विकास नाम की चीज आई और हमारी कच्ची गलियां अब पीसीसी रोड से पट गई.. तो अब पीसीसी रोड में कैसे बरद खूंटे? .. तो धीरे-धीरे बरद खूंटना बंद सा हो गया.. पिछले साल सामुहिक प्रयास से गाँव का टाँड़ में बरद-खूंटा करवाये।.. लेकिन वही कि जब तक गाय-गोरु हैं तब तक खुटेंगे , जिस तरह से पशु-धन से निर्भरता कम हो रही है उस हिसाब से अगले 20-25 सालों में बैल उपलब्ध ही न हो तो फिर सोहराय का स्वरूप कैसा होगा ? फिर वही कि प्रतीकात्मक रूप ले लेगा।


आकृति और प्राकृति एक दूसरे से सम्बंधित है.. प्रकृति जहाँ कमजोर पड़ने लगती है वहाँ आकृति जन्म लेने लगती है। लेकिन मूल भाव वही रहता है।
अब लक्ष्मी पूजा है तो केवल लक्ष्मी की ही पूजा होनी चाहिए, साथ में गणेश जी की क्यों ??? .. गणेश जी का क्या सम्बन्ध भला इससे ??
हमारे लिए हमारा धन और लक्षमी हमारे जमीन और गाय-गोरु.. अब जिनके पास इनका अभाव (जो कालांतर में खो दिए) उनके लिए कौन? .. आकृति किन्हें दे?? तो लक्ष्मी धरती स्वरूपा और गणेश जी बूढ़ा बाबा और बूढ़ी माई के संतान जो कृषक हुए नंदी को लिए हुए। (गोबर-गणेश को पता नहीं किस सेंस में लिया जाता है)


ये बोर-ओत है, भारतवर्ष है.. इस वरदानी भूमि के हम वासी हैं.. जहाँ हम सब एक दूसरे से जुड़े हुए है.. हमारी जैसी सामाजिक व्यवस्था और ताना बाना दुनिया में अन्य कहीं नहीं मिल सकता है.. लेकिन बाहरी ब्रेकिंग फोर्सेस हमेशा से ही और लगातार इस ताने बाने को तोड़ने और कमजोर करने में लगे हुए हैं .. आज इन छोटी-छोटी से परब अंतर के बीच में बड़ी-बड़ी खाइयां खोदने में सब लगे हुए हैं भाषा हासा का तड़का लगा के। सोशियो-यूनीफॉर्मिटी को छिन्न भिन्न करने में लगे हुए हैं। … लेकिन कहाँ तक करोगे.. भारतवर्ष जाग रहा है.. ये पवित्र भूमि है.. भारत भूमि है.. हम भारतीय हैं.. देखते हैं।


जरा कुछ और तरफ चलते हैं…
चंदा मामा !! .. चन्द्र मामा हुए तो चन्द्र की बहन याने हमारी माँ कौन हुई और पिता कौन ?? .. तो धरती हमारी माता और सूर्य पिता हुए.. और इन दोनों के मध्य ही सारा जीवन चक्र चलता। .. अमावस की रात दीवाली मनाते दीप जलाते जब चंदा मामा दूर होते.. अंधेरे(अज्ञानता) को चीरती एक छोटी सी दीया का प्रकाश पुंज जो ज्ञान के ज्योत को जलाती है, इसका प्रतीक है दीवाली व सोहराय।
तभी तो , ‘अंधेरा घना है मगर दीया जलाना कहाँ मना है!!’


इस सोहराय दीवाली में यही शुभ कामना कि सब धन धान्य, गाय-गौरेया सुरक्षित रहे,बढ़े और ज्ञान पुंज और भी प्रकाशमय हो और भारतवर्ष पुनः जगमगाये।
✍🏻संघी गंगवा
खोपोली से।


अन्त में मेरा वही निवेदन जो गत कई दिनों के पोस्ट पर लगातार है, वही एक बार फिर से -


अभी त्यौहार शुरू हैं।
पूरे वर्ष का एक तिहाई व्यय इन उत्सवों में होने वाला है। शोरूम और कॉरपोरेट को छोड़कर, जहाँ तक सम्भव हो अपनी जड़ों को खोजिए।
एक परिवार पर आश्रित सात शिल्प हुआ करते थे, ढूंढिए कि आज वे किस स्थिति में है?
और वर्षपर्यन्त तक, किसी को कोई रियायत नहीं। इन लफंगों को तो बाद में भी नहीं।
विचार कीजिए! हमारा स्वयं का इकोसिस्टम विकसित करने में योगदान दीजिये।


बस इतना करने का प्रयास कीजिए, शेष का मार्ग स्वयं स्पष्ट हो जाएगा -
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि ॥अर्थ: तेरा कर्म करने में ही अधिकार है, उसके फलों में कभी नहीं। इसलिए तू कर्मों के फल हेतु मत हो तथा तेरी कर्म न करने में भी आसक्ति न हो.
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