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भारतीय पुरातन ग्रन्थों में हनुमान उत्पति कथा -अशोक “प्रवृद्ध”

भारतीय पुरातन ग्रन्थों में हनुमान उत्पति कथा -अशोक “प्रवृद्ध”

रामायण के प्रमुख पात्रों में से एक परम विद्वान, अतुल बलशाली, उत्कट बुद्धि और यौगिक सिद्धियों के स्वामी श्रीराम भक्त हनुमान की कथा रामायण सहित विभिन्न पुराणों में प्राप्य है। पुराणों में इनके पिता का नाम केसरी और माता का नाम अंजनी बताया गया है। किसी भी प्राणी का जन्म एक पिता द्वारा एक माता के गर्भ से होता देखा जाता है, परन्तु पुराणों में हनुमान केसरी- अंजनी के अतिरिक्त महादेव- पार्वती एवं वायु अर्थात मरुत के पुत्र भी कहे गये हैं। इस प्रकार हनुमान के तीन पिता हुए। रामायण में जहाँ हनुमान को अतुल शारीरिक बल व शक्ति का स्वामी और अनेकानेक साहसिक कार्यों का कर्त्ता, अत्यंत विद्वान के रूप में चित्रित किया गया है, वहीं पुराणों ने हनुमान के सम्बन्ध में अतिरंजित वर्णन कर बड़ा ही अनर्थ विश्व में फैलाया है, और मिथ्या व अनर्गल कथा लिखकर हनुमान के बारे में भ्रान्ति फैलाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। हनुमान सम्बन्धी विभिन्न ग्रन्थों में प्राप्य उल्लेखों के अध्ययन से इस सत्य का सत्यापन होता है कि पुराण, और महाकाव्यों में हनुमान के चरित्र को अत्यंत अतिरंजित ढंग से प्रस्तुत किया गया है, और उन्हें ब्रह्म घोषित करने की हर सम्भव कोशिश की गई है। हनुमान जन्म सम्बन्धी कथाएं विभिन्न रामायणों, अनेक पुराणों में विस्तृत रूप से प्राप्य हैं, जो अतिरंजित होने के साथ ही एक दूसरे के विपरीत कथाएं कहती प्रतीत होती हैं। शिवपुराण में हनुमान के सम्बन्ध में ऐसी ही कथांकित है। शिवपुराण, शतरुद्रसंहिता अध्याय 20 श्लोक 1-10 में हुनमान के सम्बन्ध में वर्णन करते हुए नन्दीश्वर मुनियों से कहते हैं-
परमेश्वर शिव ने प्रीति करके राम का परमहित करने के लिए हनुमान के रूप से जिस प्रकार सुन्दर लीला की है, उन सब सुखों को देने वाले चरित्र को सुनो। एक समय गुणयुक्त लीला करने वाले प्रभु शिव ने विष्णु का मोहिनी रूप देख कामदेव के बाण से ताड़ित अपने-आपको काम से व्याकुल किया और राम के कार्यार्थ अपना वीर्य गिराया। तब आदर से शिव के द्वारा प्रेरित सप्त ऋषियों ने उस वीर्य को पत्ते पर स्थापित किया। उन महर्षियों ने शिव का वह वीर्य गौतम की पुत्री में कर्ण के द्वारा तथा अंजनी में राम के कार्यार्थ प्रवेश किया। उस समय उस वीर्य से महाबली तथा पराक्रमयुक्त वानर के शरीर वाले हनुमान नामक शिवजी उत्पन्न हुए। वह महाबली वानर हनुमान बालकपन में ही सूर्य को लघुफल जान सूर्यमण्डल को खाने को उद्यत हए। देवताओं की प्रार्थना से उनहोंने सूर्य को त्यागा, तब देवता तथा ऋषियों ने महाबली शिव का अवतार जान उनको वरदान दिये। तब हनुमान प्रसन्न हो अपनी माता के निकट गये, और उनसे आदरपूर्वक वर प्राप्ति का सब वृत्तान्त कहा।


स्पष्ट है, पुराणकार ने हनुमान को शिवावतार अर्थात रुद्रावतार सिद्ध करने के लिए यह सर्वथा अश्लील, सुष्टि क्रमविरुद्ध और अज्ञानमूलक आख्यिका लिख मारी है। हनुमान को शिव का अवतार सिद्ध करने के लिए गढ़ी गई इस कथा में शिव ने स्वयं अपना वीर्य अपनी इच्छा से गिरा दिया, न कि वीर्य पार्वती के रूप के कारण स्खलित हुआ। जब वीर्य गिरा तो उस समय सप्तर्षि कहीं से आ गये, और उनहोंने वीर्य को पत्ते पर लेकर उसे सुरक्षित रखा। सप्तर्षि कहाँ से आ गए और यह कैसे सम्भव हो सका? सप्तर्षियों के सम्बन्ध में यहाँ पुराणकार ने कुछ नहीं लिखा, अन्यथा कुछ तो पता चलता। आकाश मंडल में उत्तर योग में सप्तर्षि-मण्डल है, जो बराबर ध्रुव के चारों ओर घूमता दिखलाई देता है। हमारा सप्तर्षि मंडल इसी शरीर में दो नेत्र, दो कान, दो नाक, एक मुंह के रूप में उपस्थित है। यही सात ऋषि हैं। वेद में कहा गया है-

सप्त ऋषयः प्रति हिता शरीर।



कथा में यह स्पष्ट नहीं कि यह कार्य करने वाले इस सप्तर्षि मंडल के कौन से ऋषि थे? स्पष्ट है सप्तर्षि की यह बात मिथ्या है और तब पत्ते पर वीर्य का सुरक्षित रखना और अंजनी के कान में डालने की बात भी स्वयं ही असिद्ध हो जाती है। फिर कान में वीर्य डालने से सन्तान उत्पन्न होने की बात भी गप्प मारना है। अतः शिवपुराण की सारी कथा असम्भव एवं सृष्टिक्रम विरुद्ध होने से यह माननीय नहीं है। हनुमान न तो शंकर के अवतार थे, न शिव के वीर्य से भवानी में उत्पन्न हुए थे, वरन केसरी के क्षेत्रज (नियोगज) पुत्र थे।


हनुमान को वायु नन्दन भी कहा गया है। वायुनन्दन के सम्बन्ध में भविष्यपुराण, प्रतिसर्गपर्व, चतुर्थ खण्ड, अध्याय 13 के श्लोक 32-41 में अंकित वर्णनानुसार एक बार शिव मानसरोवर पर्वत पर गये। वहाँ गौतम की पुत्री अंजना, केसरी की पत्नी रहती थी। शिवजी का तेज (वीर्य) केसरी के मुख में चला गया और उससे कामातुर होकर केसरी अंजना से भोग करने लगा। इसी बीच में वायु ने भी केसरी के शरीर में प्रवेश किया और वह बलपूर्वक उसके प्रभाव से बारह वर्ष तक अंजना से विषयभोग करता रहा। इस लम्बे मैथुन से अंजना के गर्भ रह गया और एक वर्ष के पश्चात् वानर के सदृश मुखवाले रुद्र अर्थात हनुमान को जन्म दिया जो कि अत्यन्त कुरूप था। इससे माता ने उसे त्याग दिया। हनुमान बालक ने बलपूर्वक सूर्य को निगल लिया। महादेवजी देवताओं के साथ वहां आ गये किन्तु वज्र से ताड़ित होने पर भी उन्होंने सूर्य को नहीं छोड़ा, तब सूर्य ने भयभीत होकर त्राहि-त्राहि की पुकार की, तव उसके दीन वचनों को सुनकर रावण ने हनुमान को पूंछ पकड़कर खींची। इस पर हनुमान ने सूर्य को तो छोड़ दिया परन्तु क्रोधित होकर रावण से युद्ध करने लगे और एक वर्ष तक उससे मल्लयुद्ध करते रहे। रावण थक गया और डरकर तथा हनुमान से ताड़ित होकर वहां से भाग गया।





भविष्यपुराण की यह कथा शिवपुराण की कथा से नितान्त भिन्न है। अष्टादश पुराणों के रचयिता एक ही व्यक्ति वेदव्यास हैं, तब उत्पत्ति कथा तो एक प्रकार की होनी चाहिए। लेकिन दोनों कथाएं काल्पनिक एवं मिथ्या होने के कारण भिन्न हैं। परन्तु इस कथा से यह बात तो सिद्ध है कि अंजना मनुष्य-कन्या थी, अत: केसरी भी मनुष्य ही था, वर्तमान के समान वानर पशु न था। स्पष्ट है, हनुमान पूंछ वाले वानर पशु नहीं वरन मनुष्य थे। शिवपुराण में शिव-वीर्य अंजना के कान में डाला गया, पर इस कथा में केसरी के मुख में। जैसे कान में वीर्य डालना असत्य है, उसी प्रकार मुख में वीर्य डालना भी मिथ्या ही है। इस कथा में सप्तर्षि भी कोई नहीं था, तो वीर्य का पतन और पत्ते में लेकर सुरक्षित रखना और मुख में डालना ये दोनों बातें स्वयं मिथ्या सिद्ध हो जाती हैं । प्रश्न यह भी है कि दोनों कथा में सत्य कौन है? फिर बारह वर्ष तक केसरी भोग करता ही रह गया, क्या यह सम्भव है ? सृष्टि नियमविरुद्ध बातें कालत्रय में मिथ्या ही होती हैं।


इस प्रकार स्पष्ट है कि हनुमान न तो शंकर- पार्वती के पुत्र थे, और न ही भविष्य पुराण की कथानुसार वायु के ही पुत्र थे।

तर्क से दोनों कथाएँ मिथ्या सिद्ध हो जाती हैं। हनुमान का उत्पन्न होते ही सूर्य को निगलना भी गप्प ही है। सूर्य पृथ्वी से साढ़े तेरह लाख गुणा बड़ा और नौ करोड़ तीस लाख मील दूर है। बालक हनुमान के द्वारा इतनी दूर तय करना असम्भव ही जान पड़ता है। फिर सूर्य के पास कहीं से रावण के कूद पड़ने की बात भी मिथ्या कल्पनामात्र है। सूर्य तो अग्नि का पिण्ड है, वहां जाना भी असम्भव है, उसका निगलना तो और कठिन है। यह नितांत झूठी कथा है। हनुमान व रावण के मल्लयुद्ध की बात भी असंगत है। युद्ध के लिए शरीर के टिकने का आधार चाहिए। लेकिन सूर्य के पास उनको मल्लयुद्ध के लिए आधार अर्थात भूमि कहाँ और कैसे उपलब्ध थी? ऐसी स्थिति में प्रश्न उत्पन्न होता है कि हनुमान व रावण का मल्लयुद्ध कहाँ पर हुआ? स्पष्ट है, यह सब कवि की कल्पना है, ऐतिहासिक सत्य का इसमें लेशमात्र भी समन्वय नहीं है।


हनुमान नाम पड़ने के सम्बन्ध में भी पुराणों में कथा अंकित है। कथा के अनुसार जब हनुमान उत्पन्न हुए तो सूर्य को एक फल समझकर उसको लेने के लिए उछल पड़े। यह विपत्ति देखकर इन्द्र ने वज्र मारा जिससे उनकी बायीं ठुड्डी टूट गई इसी से इनका नाम हनुमान पड़ा। परन्तु वाल्मीकीय रामायण, युद्धकाण्ड में वर्णित कथा में न तो सूर्य को निगलने का और न इंद्र द्वारा वज्र से मारने का वर्णन है। वाल्मीकीय रामायण, युद्धकाण्ड, सर्ग 28 के श्लोक 12- 15 के अनुसार बाल्यावस्था में ही एक दिन जब इन्हें भूख लगी थी, तो उगते सूर्य को देखकर इन्होंने सोचा कि यहाँ के फलादि से तो मेरी भूख नहीं जायेगी, इसलिए आकाश के दिव्य फल सूर्य को ही ले आता हूँ, यह निश्चय कर यह तीन हजार योजन ऊँचा उछल गया था। परन्तु देवर्षि और राक्षस भी जिन्हें परास्त नहीं कर सकते, उन सूर्यदेव तक न पहुँचकर यह वानर उदय गिरि पर ही गिर पड़ा। शिलाखण्ड पर गिरने के कारण इस वानर की एक हनु अर्थात ठोढ़ी कुछ कट गई, साथ ही अत्यन्त दृढ़ हो गई, इसलिए यह हनुमान नाम से प्रसिद्ध हुआ।





इस कथा में सूर्य के निगलने की बात नहीं है, निगलने से पहले ही वे गिर पड़े थे। इस प्रकार सभी कथाओं में भिन्नता है। पुनः वाल्मीकीय रामायण में हनुमान की जन्म-कथा किष्किन्धाकाण्ड सर्ग 66 में अंकित है। यहाँ श्लोक 8- 14 में अंकित वर्णनानुसार जामवान (जाम्बवान) हनुमान से ही कहते हैं- वीरवर ! तुम्हारे प्रादुर्भाव की कथा इस प्रकार है। पुञ्जिकस्थला नाम से विख्यात अप्सरा समस्त अप्सरात्रों में अग्रगण्य है। एक समय शापवश वह कपियोनि में अवतीर्ण हुई। उस समय वह वानरराज महामनस्वी कुंजर की पुत्री इच्छानुसार रूप धारण करने वाली थी। इस भूतल पर उसके रूप की समानता करने वाली दूसरी कोई स्त्री नहीं थी। वह तीनों लोकों में विख्यात थी। उसका नाम अंजना था। वह वानरराज केसरी की पत्नी हई। एक दिन रूप और यौवन से सुशोभित होने वाली अंजना मानवी स्त्री का शरीर धारण करके वर्षा काल के मेघ की भांति श्याम कान्ति वाले एक पर्वत शिखर पर विचर रही थी। उसके अंगों पर रेशमी साड़ी शोभा पाती थी। वह फूलों के विचित्र आभूषणों से विभूषित थी। उस विशाललोचना बाला का सुन्दर वस्त्र तो पीले रंग का था, किन्तु उसके किनारे का रंग लाल था। वह पर्वत के शिखर पर खड़ी थी। उसी समय वायु देवता ने उसके उस वस्त्र को धीरे से हर लिया। तत्पश्चात उन्होंने उसकी परस्पर सटी हुई गोल-गोल जांघों, एक-दूसरे से लगे हुए पीन उरोजों तथा मनोहर मुख को भी देखा। उसके नितम्ब ऊंचे व विस्तृत और कटिभाग बहुत ही पतला तथा सारे अंग परम सुन्दर थे। इस प्रकार बलपूर्वक यशस्विनी अंजना के अंगों का अवलोकन करके पवन देवता काम से मोहित हो गये।





इसके आगे श्लोक 16 -24 में जाम्बवान ने हनुमान को कथा सुनाते हुए कहा है -उनके सम्पूर्ण अंगों में कामभाव का आवेश हो गया। मन अंजना में ही लग गया। उन्होंने उस अनिन्द्य सुन्दरी को अपनी दोनों विशाल भुजाओं में भरकर हृदय से लगा लिया। अंजना उत्तम व्रत का पालन करने वाली सती नारी थी, अतः उस अवस्था में पड़कर वह वहीं घबरा उठी और बोली-कौन मेरे इस पातिव्रत्य का नाश करना चाहता है? अंजना की बात सुनकर पवनदेव ने उत्तर दिया-सुश्रोणि ! मैं तुम्हारे एकपत्नी-व्रत का नाश नहीं कर रहा हूँ, इसलिए तुम्हारे मन से यह भय दूर हो जाना चाहिए। मैंने अव्यक्त रूप से तुम्हारा आलिंगन करके मानसिक संकल्प के द्वारा तुम्हारे साथ समागम किया है। इससे तुम्हें बल-पराक्रम से सम्पन्न एवं बुद्धिमान पुत्र प्राप्त होगा। वह महान धैर्यवान, महातेजस्वी, महावली, महापराक्रमी तथा लांघने और छलांग मारने में मेरे समान होगा। वायुदेव के ऐसा कहने पर तुम्हारी माता प्रसन्न हो गईं। फिर उन्होंने तुम्हें एक गुफा में जन्म दिया। बाल्यावस्था में एक विशाल वन के भीतर एक दिन उदित हुए सूर्य को देखकर तुमने समझा कि यह भी कोई फल है; अतः उसे लेने के लिए तुम सहसा आकाश में उछल पड़े। तीन सौ योजन ऊँचे जाने के बाद सूर्य के तेज से आक्रान्त होने पर भी तुम्हारे मन में खेद या चिन्ता नहीं हुई। अन्तरिक्ष में जाकर जब तुरन्त ही तुम सूर्य के पास पहुंच गये, तो इन्द्र ने कुपित होकर तुम्हारे ऊपर तेज से प्रकाशित वज्र का प्रहार किया। उस समय उदयगिरि के शिखर पर तुम्हारे हनु (ठोडी) का बायां भाग वज्र की चोट से खण्डित हो गया। तभी से तुम्हारा नाम हनुमान पड़ गया ।





इस कथा को ज्यों का त्यों सत्य मान लेने पर भी ऐतिहासिक दृष्टि से हनुमान का जन्म संदिग्ध ही रह जाता है। वायु जड़ है, सर्वत्रगामी है, पंचभूतों में एक भूत है। जड़ वायु नारी को देखकर, मनुष्यवत न कामी बन सकता है और न किसी से सम्भोग कर सकता है। प्रश्न उत्पन्न होता है कि आज-कल सर्वत्र स्वछन्द विचर रही एक से एक अंजना से भी बढ़कर उन्नतकुचा नारियों पर वायु क्यों नहीं कामातुर होकर उन्हें पकड़ता है ? उन्हें मनुष्यवत पकड़कर भोग क्यों नहीं करता? ऐसा न सुना गया और न ही देखा गया। स्पष्ट है, कथा आलंकारिक है। और इससे यह भी स्पष्ट है कि वायु नाम का कोई पुरुष था, जिसने अंजना के सौन्दर्य पर मुग्ध होकर उसके साथ भोग किया और हनुमान जी उत्पन्न हुए। इन्हें क्षेत्रज कहा जा सकता है।





नियोग से उत्पन्न पुत्र क्षेत्रज कहलाते हैं । इसलिए हनुमान केसरी के क्षेत्रज पुत्र हैं । रामायण में ही यह स्पष्टतः लिखा भी हुआ है। वाल्मीकीय रामायण, किष्किन्धाकाण्ड, सर्ग 66 के श्लोक 26 में इन्हें स्पष्ट रूप से केसरी का क्षेत्रज पुत्र कहा गया है-
स त्वं केसरिणः पुत्रः क्षेत्रजो भीमविक्रमः।

-वा० रा० किष्किन्धाकाण्ड, सर्ग 66 श्लोक 26

अर्थात- इस प्रकार तुम केसरी के क्षेत्रज पुत्र हो । तुम्हारा पराक्रम शत्रुओं के लिए भयंकर है।

आगे श्लोक 30 में भी स्पष्ट रूप से अंकित है-

मारुतस्यौरसः पुत्रस्तेजसा चापि तत्समः ।

--वा० रा० किष्किन्धाकाण्ड, सर्ग 66 श्लोक 30

अर्थात- तुम वायुदेव के पौरस पुत्र हो, इसलिए तेज की दृष्टि से भी उन्हीं के समान हो ।





इससे स्पष्ट सिद्ध है कि हनुमान जी केसरी के क्षेत्रज पुत्र थे। परन्तु पुराणों की भ्रांतिपूर्ण कथाओं तथा सर्वप्रचलित हनुमान चालीसा में हनुमान को शंकर -पार्वती का पुत्र बता देने से हनुमान के तीन पिता होने की यह भ्रान्ति चल पड़ी। सब एक ही माता-पिता से उत्पन्न होते हैं, परन्तु हनुमान भक्तों ने ही अज्ञानता व नासमझी में अद्भुत शक्ति व विद्वता के प्रतीक बल, बुद्धि व अद्भुत कृत्यों के कर्त्ता श्रीराम के अनन्य सेवक हनुमान के तीन पिता रच डाले हैं, बना डाले हैं।



हनुमान सम्बन्धी विभिन्न ग्रन्थों में प्राप्य उल्लेखों के अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि पुराणों के बाद मध्य कालीन रामकथा-साहित्य में हनुमान के चरित्र का अत्यंत विकास हुआ है, और अतिरंजित ढंग से उनके चरित्र को प्रस्तुत कर उन्हें ब्रह्म घोषित करने का भरसक प्रयास किया गया है। तुलसीदास कृत रामचरित मानस में तो हनुमान का उत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत किया गया है। विनय-पत्रिका में तुलसी ने राम के भक्त रूप के साथ ही स्वतन्त्र रूप से भी हनुमान के प्रति भक्ति प्रदर्शित करते हुए स्तोत्रों की रचना की है। कवितावली, उत्तरकाण्ड और हनुमान -बाहुक में भी तुलसी ने स्वतन्त्र नायक के रूप में हनुमान का गौरव-गान किया है। आदिकाव्य रामायण में वे कपिकुंजर तथा वायुपुत्र भी माने जाने लगे। प्रचलित रामायण में वानरत्व-विषयक विशेषणों के बाहुल्य से उनके वास्तविक वानरत्व की धारणा बनने लगी। तत्पश्चात् कपि योनि में रुद्रावतार और राम के आदर्श भक्त के रूप में उनकी पूजा होने लगी। हनुमान का शारीरिक बल व शक्ति अनुपम था और वे अनेक साहसिक कार्यों के कर्ता भी हैं। सागर पार करना, अशोक वन-विध्वंस, लंका-दहन, द्रोणाचल-प्राणयन और युद्ध विषयक पराक्रम आदि अनेक अद्भुत और महान कृत्यों का श्रेय हनुमान को प्राप्त है। उनके द्रुमशिला-युद्ध, उनकी लांगूल के दांव-पेंच, उनके पाद प्रहार, उनके विकराल तमाचे और थप्पड़ विश्व के एक अद्वितीय मल्ल का चित्र प्रस्तुत करते हैं। राम व लक्ष्मण को वे अपनी पीठ पर चढ़ाकर पम्पासर से ले गये थे। बड़े-बड़े पर्वत उनके शरीर के भार से दब जाते या कसमसा उठते अथवा फूट पड़ते थे। वे अष्ट सिद्धियों व नौ निधियों पर अधिकार रखनेवाले महान योगी और यौगिक सिद्धियों के स्वामी भी हैं। अपने इन्हीं गुणों के कारण वे आज भी भक्तों के लिए पूजनीय, नमनीय, प्रशंसनीय और वानरकेतन के रूप में शत्रु संहारनीय भी हैं। बोलो हनुमान की जय।

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