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केवल भाषा नहीं है कविता ----------------------------------- -- वेद प्रकाश तिवारी

केवल भाषा नहीं है कविता:- वेद प्रकाश तिवारी

अपनी रचनाओं को तटस्थ होकर देखना कवि की प्राथमिकता होनी चाहिए। हलांकि साहित्य की विधाओं में कविता का स्थान, उसके स्वरूप, विषय वस्तु और उसकी भाषा को लेकर भारतीय साहित्य हमेशा से सतर्क रहा है। कविता लिखने के लिए अध्ययन और अनुभव के साथ शब्दों के इस्तेमाल के प्रति सावधानी बहुत जरूरी है। शब्द बिल्कुल सहज होने चाहिए । यहां सहज का मतलब आसान नहीं बल्कि उसके स्वाभाविक रूप से है । कवि जीवन में जिस पीड़ा या अनुभव से गुजरता है वह उसका सहज बोध होता है । उस सहज बोध को व्यक्त करने के अनुकूल कविता की जो भाषा होती है वह सहज भाषा है । अच्छी कविता की यह विशेषता है कि कवि जब अपनी रचना निर्मित करता है तो वह स्वयं पात्र हो जाता है । जब चिंतन की अवस्था गहरी होती है तब रचनात्मक ऊर्जा प्रबल हो जाती है और कविता खुद ब खुद शब्दों की सीमा से बाहर भी हो जाती है । फिर वह अपनी भाषा खुद तय करती है । उसके बाद कविता अपना प्रभाव पाठक के मन- मस्तिष्क पर गहरे छोड़ती है । ऐसी रचनाएं कालजयी होती हैं ।
जो लोग भाषा को कविता समझते हैं उनके पास शब्द तो मिल जाते हैं पर कविता को पकड़ पाना बड़ा मुश्किल हो जाता है । मैं यह मानता हूं कि यदि शब्दों का भंडारण ही कविता होती तो केशवदास , तुलसीदास से बड़े कवि होते । तुलसीदास बड़े इसलिए हैं क्योंकि उनकी कविता लोक चेतना की कविता है उनकी कविता विद्वान के साथ- साथ एक किसान भी समझ सकता है। कविता यदि शब्दों में उलझ कर रह जाएगी तो वह अपने सैद्धांतिक और ऐतिहासिक पक्ष से काफी दूर हो जाएगी । यदि भाषा ही कविता होती तो कबीर कभी विचार न होते। कबीर को पढ़ने के बाद ऐसा लगता है कि जैसे कबीर की कविता आगे- आगे चल रही है और उसकी भाषा पीछे। यही बात आचार्य रामचंद्र शुक्ल भी कह रहे हैं-- जिस प्रकार आत्मा की मुक्त अवस्था ज्ञान दशा कहलाती है हृदय की इसी मुक्ति साधना के लिए मनुष्य की वाणी जो शब्द- विधान करती आई है उसे कविता कहते हैं । कविता में कही गई बातें चित्र के रूप में हमारे सामने आनी चाहिए । यही बात महावीर प्रसाद द्विवेदी जी भी कहते हैं कि अंतः करण की वृत्तियों के चित्र का नाम कविता है । कविता जिसके निमित्त लिखी गई है, यदि वह बिना किसी अवसर की तलाश किए सीधे उस तक पहुंचती है तो कविता अपना उद्देश्य पूरा कर लेती है पर जिन कविताओं में शब्दों के साथ कीमियागिरी की जाती है वह न तो मौलिक होती है ना प्रासंगिक। वह कविता मंचों से तालियां तो बटोर सकती है पर वह अपनी राह से भटक जाती है । धीरे-धीरे ऐसी रचनाएं सिर्फ मंच का हिस्सा बन कर रह जाती हैं और कवि अपने साहित्य धर्म से वंचित रह जाता है ।
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