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क्या आप जानते हैं कि वैदिक युग में 36 तरह के आवश्यक आभूषण हुआ करते थे।

क्या आप जानते हैं कि वैदिक युग में 36 तरह के आवश्यक आभूषण हुआ करते थे।


संकलन अश्विनी कुमार तिवारी
आभूषण हमारी संस्कृति में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इसकी रचना और डिजाइन में बदलाव के बावजूद, उन्होंने कभी भी अपना मूल्य नहीं खोया है।
भारत में आभूषण हमेशा अपने साथ गहरा भावनात्मक लगाव रखते हैं, जो इसके ऐतिहासिक महत्व के कारण आता है। इन्हें हमेशा से विरासत की निशानी माना जाता है और अगली पीढ़ी के लिए बचाया जाता है।
✍🏻साभार the_tales_of_india


गाव॒ उपा॑वताव॒तं म॒ही य॒ज्ञस्य॑ र॒प्सुदा॑ । उ॒भा कर्णा॑ हिर॒ण्यया॑ ॥
ऋ.8.72.12, साम117,साम 1602, यजु 33.19, 71


जहां गौवों की अच्छी देख भाल होती है वहां गोबर गोमूत्र पर आधारित जैविक कृषि से भूमि में आर्द्रता बनी रहती है, बार बार सिचाई की आवश्यकता कम होती है। भूमि अधिक उपजाउ होती है। कृषि उत्पादन की समृद्धि से, कृषि द्वारा समृद्ध सम्पन्न लोग अपने कानों में स्वर्ण आभूषण पहनते हैं।ऋ 8.72.12


भारतीय साहित्य में सोलह शृंगारी (षोडश शृंगार) की यह प्राचीन परंपरा रही हैं। आदि काल से ही स्त्री और पुरुष दोनों प्रसाधन करते आए हैं और इस कला का यहाँ इतना व्यापक प्रचार था कि प्रसाधक और प्रसाधिकाओं का एक अलग वर्ग ही बन गया था। इनमें से प्राय: सभी शृंगारों के दृश्य हमें रेलिंग या द्वारस्तंभों पर अंकित (उभारे हुए) मिलते हैं।


अंगशुची, मंजन, वसन, माँग, महावर, केश।
तिलक भाल, तिल चिबुक में, भूषण मेंहदी वेश।।
मिस्सी काजल अरगजा, वीरी और सुगंध।
अर्थात् अंगों में उबटन लगाना, स्नान करना, स्वच्छ वस्त्र धारण करना, माँग भरना, महावर लगाना, बाल सँवारना, तिलक लगाना, ठोढी़ पर तिल बनाना, आभूषण धारण करना, मेंहदी रचाना, दाँतों में मिस्सी, आँखों में काजल लगाना, सुगांधित द्रव्यों का प्रयोग, पान खाना, माला पहनना, नीला कमल धारण करना।


स्नान के पहले उबटन का बहुत प्रचार था। इसका दूसरा नाम अंगराग है। अनेक प्रकार के चंदन, कालीयक, अगरु और सुगंध मिलाकर इसे बनाते थे। जाड़े और गर्मी में प्रयोग के हेतु यह अलग अलग प्रकार का बनाया जाता था। सुगंध और शीतलता के लिए स्त्री पुरुष दोनों ही इसका प्रयोग करते थे।


स्नान के अनेक प्रकार काव्यों में वर्णित मिलते हैं पर इनमें सबसे अधिक लोकप्रिय जलविहार या जलक्रीड़ा था। अधिकांशत: स्नान के जल को पुष्पों से सुरभित कर लिया जाता था जैसे आजकल "बाथसाल्ट" का प्रयत्न किया जाता है। एक प्रकार के साबुन का भी प्रयोग होता था जो "फेनक" कहलाता था और जिसमें से झाग भी निकलते थे।


वसन वे स्वच्छ वस्त्र थे जो नहाने के बाद नर नारी धारण करते थे। पुरुष एक उत्तरीय और अधोवस्त्र पहनते थे और स्त्रियाँ चोली और घाघरा। यद्यपि वस्त्र रंगीन भी पहने जाते थे तथापि प्राचीन नर-नारी श्वेत उज्जवल वस्त्र अधिक पसंद करते थे। इनपर सोने, चाँदी और रत्नों के काम कर और भी सुंदर बनाने की अनेक विधियाँ थीं।


स्नान के उपरांत सभी सुहागवती स्त्रिययाँ सिंदूर से माँग भरती थीं। वस्तुत: वारवनिताओं को छोड़कर अधिकतर विवाहित स्त्रियों के शृंगार प्रसाधनों का उल्लेख मिलता है, कन्याओं का नहीं। सिंदूर के स्थान पर कभी कभी फूलों और मोतियों से भी माँग सजाने की प्रथा थी।


बाल सँवारने के तो तरीके हर समय के अपने थे। स्नान के बाद केशों से जल निचोड़ लिया जाता था। ऐसे अनेक दृश्य पत्थर पर उत्कीर्ण मिलते हैं। सूखे बालों को धूप और चंदन के धुँए से सुगंधित कर अपने समय के अनुसार अनेक प्रकार की वेणियों, अलकों और जूड़ों से सजाया जाता था। बालों में मोती और फूल गूँथने का आम रिवाज था। विरहिणियाँ और परित्यक्ता वधुएँ सूखे अलकों वाली ही काव्यों में वर्णित की गई हैं; वे प्रसाधन नहीं करती थीं।


महावर लगाने की रीति तो आज भी प्रचलित है, विशेषकर त्यौहारों या मांगलिक अवसरों पर। इनसे नाखून और पैर के तलवे तो रचाए ही जाते थे, साथ ही इसे होठों पर लगाकर आधुनिक "लिपिस्टिक" का काम भी लिया जाता था। होठों पर महावर लगाकर लोध्रचूर्ण छिड़क देने से अत्यंत मनमोहक पांडुता का आभास मिलता था।


मुँह का प्रसाधन तो नारियों को विशेष रूप से प्रिय था। इसके "पत्ररचना", विशेषक, पत्रलेखन और भक्ति आदि अनेक नाम थे। लाल और श्वेत चंदन के लेप से गालों, मस्तक और भवों के आस पास अनेक प्रकार के फूल पत्ते और छोटी बड़ी बिंदियाँ बनाई जाती थीं। इसमें गीली या सूखी केसर या कुमकुम का भी प्रयोग होता था। बाद में इसका स्थान बिंदी ने ले लिया जो आज भी इस देश की स्त्रियों का प्रिय प्रसाधन है। कभी केवल काजल की अकेली बिंदी भी लगाने की रीति थी। आजकल की भाँति ही बीच ठोढ़ी पर दो छोटे छोटे काजल के तिल लगाकर सौंदर्य को आकर्षक बनाने का चलन था।


आजकल की तरह प्राचीन भारत में भी हथेली और नाखूनों को मेहँदी से लाल करने का आम रिवाज था।


आभूषणों की तो अनंत परंपरा थी जिसे नर नारी दोनों ही धारण करते थे। मध्यकाल में तो आभूषणों का प्रयोग इतना बढ़ा कि शरीर का शायद ही कोई भाग बचा हो जहाँ गहने न पहने जाते हों।


आँखों में काजल या अंजन का प्रयोग व्यापक रूप से होता था। मूर्तिकला में बहुधा शलाका से अंजन लगाती हुई नारी का चित्रण हुआ है।


अरगजा एक प्रकार का लेप है जिसे केसर, चंदन, कपूर आदि मिलाकर बनाते थे। आधुनिक इत्र या सेंट की तरह शरीर को सुगंधित करने के लिए इसका अधिकतर प्रयोग किया जाता था।


मुँह को सुगंधित करने के लिए स्त्री और पुरुष दोनों ही तांबूल या पान खाते थे। राजाओं की परिचारिकाओं में तांबूलवाहिनी का अपना विशेष स्थान था।


भारतीय नारी को अपने प्रसाधन में फूलों के प्रति विशेष मोह है। जूड़े में, वेणियों में, कानों, हाथों, बाहों कलाइयों और कटिप्रदेश में कमल, कुंद, मंदार, शिरीष, केसर आदि के फूल और गजरों का प्रयोग करती थीं।


शृंगार का सोलहवाँ अंग है नीला कमल, जिसे स्त्रियाँ पूर्वोक्त पंद्रह शृंगारों से सज्जित हो पूर्ण विकसित पुष्प या कली के दंड सहित धारण करती थीं। नीले कमलों का चित्रण प्राचीन मूर्तिकला में प्रभूत रूप से हुआ है।


भारत के परिप्रेक्ष्य में अंगराग, सुगंध आदि की रचना व उपयोग को मनुष्य की तामसिक वासनाओं का उत्तेजक न मानकर समाज कल्याण और धर्म प्रेरणा का साधन समझा जाता रहा है। आर्य संस्कृति में अंगराग और गंध शास्त्र का महत्व प्रत्येक सद्गृहस्थ के दैनिक जीवन में उतना ही आवश्यक रहा है जितना पंच महायज्ञ और वर्णाश्रम धर्म की मर्यादा का पालन। वैदिक साहित्य, महाभारत, बृहत्संहिता, निघंटु, सुश्रुत, अग्निपुराण, मार्कण्डेयपुराण, शुक्रनीति, कौटिल्य अर्थशास्त्र, शारंगधर पद्धति, वात्स्यायन कामसूत्र, ललित विस्तर, भरत नाट्यशास्त्र, अमरकोश इत्यादि में नानाविध अंगरागों और गंध-द्रव्यों का रचनात्मक और प्रयोगात्मक वर्णन पाया जाता है। सद्गोपाल और पी.के. गोडे के अनुसंघानों के अनुसार इन ग्रंथों में शरीर के विविध प्रसाधनों में से विशेषतया दर्पण की निर्माण कला, अनेक प्रकार के उद्वर्तन, विलेप, धूलन, चूर्ण, पराग, तैल, दीपवर्ति, धूपवर्ति, गंधोदक, स्नानीय चूर्णवास, मुखवास इत्यादि का विस्तृत विधान किया गया है।


गंगाधरकृत गंधसार नामक ग्रंथ के अनुसार तत्कालीन भारत में अंगरागों के निर्माण में मुख्यतया निम्नलिखित छह प्रकार की विधियों का प्रयोग किया जाता था।


1. भावन क्रिया - चूर्ण किए हुए पदार्थों को तरल द्रव्यों से अनुबिद्ध करना।


2. पाचन क्रिया - क्वथन द्वारा विविध पदार्थों को पकाकर संयुक्त करना।


3. बोध क्रिया - गुणवर्धक पदार्थों के संयोग से पुनरुत्तेजित करना।


4. वेध क्रिया - स्वास्थ्यवर्धक और त्वचोपकारक पदार्थों के संयोग से अंगरागों को चिरोपयोगी बनाना।


5. धूपन क्रिया - सौगंधिक द्रव्यों के धुओं से सुवासित करना।


6. वासन क्रिया - सौगंधिक तैलों और तत्सदृश अन्य द्रव्यों के संयोग से सुवासित करना।


रघुवंश, ऋतुसंहार, मालतीमाधव, कुमार संभव, कादम्बरी, हर्षचरित और पालि ग्रंथों में वर्णित विविध अंगरागों में निम्नलिखित द्रव्यों का विस्तृत विधान पाया जाता है।


मुख प्रसाधन के लिए विलेपन और अनुलेपन, उद्वर्तन, रंजकनकिका, दीपवति इत्यादि; सिर के बालों के लिए विविध प्रकार के तैल, धूप और केशपटवास इत्यादि; आँखों के लिए काजल, सुरमा और प्रसाधन शलाकाएँ इत्यादि; ओष्ठों के लिए रंजकशलाकाएँ; हाथ और पाँव के लिए मेंहदी और आलता; शरीर के लिए चंदन, देवदारु और अगरु इत्यादि के विविध लेप, स्थानीय चूर्णवास और फेनक इत्यादि तथा मुखवास, कक्षवास और गृहवास इत्यादि। इन अंगरागों और सुगंधों की रचना के लिए अनुभवी शास्त्रों तथा प्रयोगादि के लिए प्रसाधकों तथा प्रसाधिकाओं को विशेष रूप से शिक्षित और अभ्यस्त करना आवश्यक समझा जाता था।


अंगरागशास्त्र की वैज्ञानिक कला द्वारा उन सभी प्रसाधन द्रव्यों का रचनात्मक और प्रयोगात्मक विधान किया जाता है जिनके उपयोग से मनुष्य शरीर के विविध अंगोपांगों और त्वचा को स्वस्थ, निर्दोष, निर्विकार, कांतिमान और सुंदर रखकर लोक कल्याण सिद्ध किया जा सके। भारत में पुरातन काल से अंगराग संबंधी विविध प्रसाधन द्रव्यों का निर्माण प्राकृतिक और मुख्यतया वानस्पतिक संसाधनों द्वारा होता रहा है। किंतु वर्तमान युग में आधुनिक विज्ञान की उन्नति से अंगरागों की रचना और प्रयोग में आने वाले संसाधनों की संख्या का विस्तार इतना बढ़ गया है कि अन्य वैज्ञानिक विषयों की तरह इस विषय का ज्ञानार्जन भी विशेष प्रयत्न द्वारा ही संभव है।
✍🏻विकिपीडिया


दर्पण - आदर्श, मुकुर और Mirror


दर्पण से सब कोई परिचित है,,, उपनिषद के एक संदर्भ से विदित होता है कि मुंह ठहरे हुए पानी में देखकर समझ लिया जाता था, देखने वाले को दर्शक किस रूप में देखते हैं। मगर, दर्पण हजारों सालों से हमें अपना रूप दिखाने का काम कर रहा है। यह प्रसाधन का उपस्‍कारक है और हमें उस मुख को दिखाता है जिसे हम आंखे रखकर भी देख नहीं पाते। बस, मुख, ग्रीवा और आगा-पीछा दिखाने का काम करता है ये दर्पण। इसको आदर्श भी कहा गया, आजकल हम मीरर (Mirror) कहकर सुंदरतम हमारे अपने ही शब्‍दों को भूल रहे हैं जबकि हमारे यहां आरसी, शीशा, आईना जैसे शब्‍द भी कम नहीं हैं। कहावतों में भी आरसी, आईने का जिक्र बहुत है।


कल्‍पसूत्र से ज्ञात होता है कि कभी दीवारों, खम्‍भों पर मणिखचित मुकुर होते थे, ये भवन की शोभा तो थे ही, आते-जाते कभी भी उनमें खुद को देखने के काम भी आते। मगर, पार्वती की जो प्रतिमा शिव के साथ बनती है, उसमें एक हाथ में उमा दर्पण लिए होती है। मत्‍स्‍यपुराण का यह निर्देश विष्‍णुधर्मोत्‍तरपुराण, मयमतम्, शैवागमों, देवतामूर्तिप्रकरणम् आदि में ज्‍यों का त्‍यौं आया है। (देखिये तस्‍वीर में उमा अपने हाथ में दर्पण उठाए है) मगर, ये दर्पण होते कैसे थे, कांच हमारे यहां उत्‍खननों में मिले हैं, चूना पत्‍थर को बहुत आंच देकर तपाया जाए तो कांच बन जाता है,, ये विधि हमने बहुत पहले ही जान ली थी।


मगर, मुखदर्शन वाले दर्पण का वर्णन वैखानस ग्रंथ में आया है। करीब आठवीं सदी के इस ग्रंथ में कहा गया है कि दर्पण प्रतिमा के मान जैसा हो या उसका आधा हो, मगर शोभास्‍पद होना चाहिए। यह वृत्‍ताकार होता था, मजबूत और कांस्‍य में मण्डित, महारत्‍नाें से खचित-जटित। इसके पांवों और नाल सहित बनाया जाता ताकि पकड़ा सके। प्राय: मुख देखने के योग्‍य दर्पण को मुख के प्रमाण के अनुसार ही बनाया जाता था।


'सिद्धान्‍त शेखर' ग्रंथ में कहा गया है कि दर्पण के लिए शुद्ध कांसे का प्रयोग किया जाता और यह पूरे चंद्रमा की आकृति का बनाया जाता था। यह छत्‍तीस अंगुल नाह या परिधि वाला या उसके अाधे प्रमाण का बनाया जाता था। इसकी नाल आठ अंगुल रखी जाती और उसका पद चार अंगुल प्रमाण का रखा जाता था। इसको नाना पट्टिकाओं से युक्‍त बनाया जाता था। मंदिराें के सौंदर्य के लिए बनाई जाने वाली नायिका प्रतिमाओं में मुखदर्शन करती दर्पणा देवांगनाओं का भी न्‍यास किया जाता रहा है.. है न दर्पण दुर्लभ,, कभी झूठ न बोलने वाला, मगर ये भी तो सच है कि वह उलटा ही दिखाता है।


द्विपदी : पाजामा
#History_of_pazama
पाजामा जैसा पहनावा हमारे यहां उस काल से प्रचलन में था जबकि शिकार की पानीयजा जैसी तकनीक थी। इसमें नकली पानी के गर्त तैयार किये जाते और लुभाने वाले मृगों के बहाने जंगली हरिणों को फुसलाया जाता।


लगभग एक हज़ार वर्ष पहले सोमेश्वर ने इस मृगया का जो वर्णन किया है, उसमें लुब्धकों, शिकारियों के लिए नीले रंग की छत वाले हरे कपड़ों के शिविर (तंबू) लगाने की विधि है। उसी में तत्कालीन परम्परा और शिकार की सुविधा के लिए जंगल के हरे रंग के अनुसार हरे पाजामे पहनने का निर्देश है। दोनों पांवों में पहनने के कारण इसे द्विपदी कहा जाता।


यह बहुत रोचक सन्दर्भ है और इस अर्थ में खास है कि शिकार के लिए ऐसी वेशभूषा तब से लेकर प्रतिबन्ध लगने तक प्रचलन में रही। वन में झाड़-झंखाड़ में धोती जैसे वस्त्रों के उलझकर फट जाने की समस्या के कारण द्विपदी को सुगम, निरापद माना गया।


यह तब बहुत लोकप्रिय परिधान था क्योंकि विवरण कहता है कि मित्रों, स्त्रियों के साथ की गोठ-गोष्टियों में भी द्विपदी को धारण किया जाता। साथ में भट, सुभट, तांबूल धारक, नालीदार जल पात्र के धारक भी होते। मतलब यह है कि द्विपदी जो प्रायः मोटे कपड़े का बनता, डोरी से ही कसकर बांधा जाता और जरूरत के मुताबिक एक से अधिक साथ में रखा जाता। औरतें भी इनको धारण करतीं बिलकुल आज की ही तरह। पुराने मंदिरों की मूर्तियां किस परिधान को बताती हैं? क्या वहां आगरा का घाघरा है?


यह तो हुआ नीति ग्रन्थ का संदर्भ, आदरणीय अत्रि जी ने तो बृहद आरण्यक उपनिषद के सन्दर्भ ( 1.1) पर पाणिनि सूत्र की रोशनी डालते हुए पाजामा की कालयात्रा और भी पीछे दिखाई है। बहरहाल, यह विचित्र किंतु सच है कि खास मौकों पर पाजामा प्रचलन में था, वरना धोती तो है जो है ही।
जय जय।
✍🏼श्रीकृष्ण जुगनू


आज आपको रूबरू करते है भोटिया समाज की सांस्कृतिक विरासत बेशभूषा ओर सुंदर आभूषणों का राजेंद्र सिंह श्रीनगर गढ़वाल के माध्यम से लिखित
तेरी गाते की आंगडी ----! तेरी नाके की नथुली----! तेरी गले की हंसुली---!


--- पहनावा किसी भी समाज का आईना व पहचान होती है। सीमांत जनपद चमोली की नीती -माणा घाटी के रोंग्पा लोगों की अपनी अलग प्रकार की वेशभूषा है जो बरबस ही लोगों को अपनी ओर आकर्षित करती है। यह पहनावा इनकी संस्कृति का परिचायक भी है।
आपको रूबरू करवाते है उत्तराखंड के जनपद चमोली के नीती-माणा घाटी के रोंग्पा महिलाओ द्वारा पहने जाने वाले पहनावे ( वेशभूषा-आभूषण ) के बारे में........ !


1-- वेशभूषा


घुंघुटी /छुबला !
--- रोंग्पा महिलाओ द्वारा पहनी जाने वाली एक सुंदर सौम्य व विशिष्ट वस्त्र है। जो नारी के सुहाग का प्रतीक माना जाता है। यह सफ़ेद रंग का (मारकीन व गेट्टे ) खादी के कपडे का चार हाथ लम्बा तथा सवा हाथ चौड़ा रहता है जिसमे माथे के ऊपर ६"४" का एक ताजनुमा चमकता हुआ कपडा जिसे स्थानीय भाषा में "छ्याका" कहते है, सिला जाता है इसके चारो ओर आयताकार रूप में लाल रंग का जीन का कपडा सिला होता है जो एक सुहागन औरत का मांग का सिंदूर का प्रतीक है। छुबले को सिर पर बढ़नेके लिए छ्याका के अगल-बगल से दो फ़ूलनुमा फीते भी बनाये जाते है। यह ऐसा दिखता है मानो हिमालय की चोटी पर सूर्य उदय हुआ हो।


वहीं छुबला प्रतीक है एक क्षत्रिय औरत के मुकुट का, जो इनके राजपूत होने का प्रमाण प्रस्तुत करता है। आज भी रोंग्पा महिलाये निरंतर पहनती आ रही है जो इनके ख़ूबसूरती पर चार चाँद लगा देता है इसे दो तरीके से पहना जाता है। घुँघटा एव् बिरबट्टा अंदाज़ में, छुबले को जब कोई महिला सर पर ताणे की सहायता से बांधती है और इसके पल्लू को पीछे की तरफ से पाखी के साथ संबंद्ध कर देती है तो यह घुंघटा अंदाज़ कहलाता है यह अंदाज़ ऐसा लगता है जैसे हिमालय से गंगा की अविरल धारा बह रही हो और जब पल्लू को रस्सी की तरह मोड़ कर फिर सिर के चारो ओर घुमाकर फूल बनाते हुए पहनती है तो यह बिरबट्टा अंदाज़ कहलाता है। यह अंदाज़ ऐसा लगता है जैसे किसी अप्सरा के बालों में सूरजमुखी के फूल लगा हो।


कंछू या सौल!
--कंछू ऊन का हाथ से बुना हुआ एक प्रकार का डिजाइनदार टोपी होती है जो माथे पर चौड़ा तथा पीछे गर्दन की ओर संकरा होता है इसे छोटे बच्चे व लड़किया पहनती है। विधवा औरत छुबला नहीं पहनती वे शॉल या तौलिया पहनते है जिसे स्थानीय भाषा में मंथुरी कहते है।


आंगडा!
--यह सूती कपडे का बना होता है जिसे औरत पहनती है यह कला व स्लेटी रंग का पूरी बाजू का वस्त्र होता है जिसके अंदर अस्तर (सजांग) मखमल के कपडे का बना होता है। इसे बंद करने के लिए बटन लगे होते है यह काफी गरम होता है।

खनांगड़ा!
--खनांगड़ा को अन्तः वस्त्र के रूप में प्रयोग किया जाता है। जिसे अधिकतर बच्चों को पहनाया जाता है यह मखमल व गेट्टे के कपडे का बनाया जाता है। यह दोनों ओर से डिजायनदार होता है। इस पर सूर्य व चन्द्रमा जैसी आकृति बनी होती है।


घाघरा!
--यह पाखी के अंदर पहना जाने वाला अन्तः वस्त्र है। घाघरे का जो बड़ा घेरा वह ४ या ५ गज का होता है। जिन पर मूजा (चुन्नट )होते है इसके निचले सिरे पर लाल या नीले रंग की जीन के कपडे की फॉल (सजांग) गोटी के कपडे की लगाई जाती है ठीक उसी प्रकार जैसे राजस्थानी घाघरो में होता है। यह छींट, गबरुन व गेट्टा के कपड़ो की बनती है जो कोमल व गरम होती है।


पाखी/लव्वा!
--पाखी ऊन से निर्मित काले रंग का कम्बल होता है इसे लव्वा भी कहा जाता है। यह एक परम्परागत वस्ती है जिसे रोंग्पा महिलाये कालान्तर से पहनती आ रही है यह घाघरे के बाहर से पहना जाता है। इसका आकार ७'३ से ५ फ़ीट होती है। इसके किनारे लाल व सफ़ेद रंग के मोटे धागे से सुई द्वारा डिजाइनदार सिला होता है।


पागड़ू/कमर कसनी!
-- यह कमर पर बांधा जाने वाला सफ़ेद कोमल कपडा होता है जो १२ से १५ फ़ीट लम्बा स्थानीय माप के अनुसार १२ हाथ से १३ हाथ लम्बा व १ से १.५ हाथ चौड़ा सूती कपडा होता है आंगडा और पाखी के बीच में पगडा महिला की सुंदरता को काफी सौम्य बना देता है।


ध्वेगी !
यह बच्चों के सिर पर पहना जाने वाला ऊनी वस्त्र है।


च्वल्या!
यह छोटे बच्चों को पहनाया जाने वाला वस्त्र है।

लोम!
यह तिब्बती जूता है जिसे महिलाये और बच्चे पहनते है यह घुटनो से कुछ नीचे तक लम्बे व रंगीन धागों से बने सुंदर आकृति के होते है। नीचे के तल पर जानवरो के छाल लगा होता है।


छ्प्योल!
यह पैरों में पहना जाने वाला जुराबनुमा पहनावा ऊनी रेशो, छालो, भांग के छाल व रेशो से बुनकर बनाया जाता है।


2- आभूषण।


बिंदी बीड़ा!
यह माथे पर पहना जाने वाला चाँदी का बना आभूषण है। जिसे हम आधुनिक कुमकुम कह सकते है।

सीसफूल!
यह सिर पर पहना जाने वाला चाँदी का आभूषण है। इसका आकर फूल की तरह होता है।

नथुली/नथ!
यह नाक में पहना जाने वाला आभूषण है परम्परागत नथ ३-४ तोले का होता है इस पर नक्कासी के साथ लाल नग लगे होते है जो इसे अधिक सुन्दर बना देते है। इसे पहनने के लिए नाक पर थोई पहनते है ताकि नथ को पहनने में कोई परेशानी ना हो। ज्यादातर नथ शादी-विवाह, उत्सव व पर्वो पर पहना जाता है।


फुल्ली।
यह भी नाक का आभूषण है जो सोने का बना होता है यह नग और बिना नग का भी होता है।


बुलाक/बेसर!
यह नाक के बीच में पहना जाने वाला सोने का आभूषण है।


मुरकुली/मुरकी!
यह कान में पहना जाने वाला आभूषण है जो चाँदी के बने होते है। कान के ऊपरी हिस्से में एक लाइन में ३-४ तक पहनते है।


मुर्की।
यह कान के निचले छोर पर पहना जाने वाला सोने का आभूषण है।


सुत्ता/हँसुली!
यह गले में पहना जाने वाला चाँदी व गिलट का बना आभूषण है यह भारी व डिजायनदार होता है।

गुलाबंद/कंठी!
यह सोने के वर्गाकार टुकड़ो पर कवकबध आकृति उत्कीर्ण करके इन छोटे छोटे टुकड़ो को लाल रंग के पट्टी पर लगाया जाता है। इसके अंतिम छोर पर बटन लगा होता है इसे गले में पहना जाता है।


चन्द्रहार!
यह गले में पहना जाने वाला चाँदी का आभूषण हैजिसे पुराने सिक्को से पिरोकर बनाया जाता है।

कलदार माला!
यह गले में पहना जाने वाला चाँदी की माला है।


छौड़ा!
यह दो दुग्दुगी चाँदी के पट्टे की सहायता से जुडी ५-७ चाँदी की जंजीर होती है।

त्वाडा!
यह चाँदी की माला बच्चो के गले में पहनाये जाते है जो बीच में अर्धचंद्राकार आकृति होती उसे स्थानीय भाषा में त्वाडा कहते है।


झप्या माला!
यह सोने का बना माला जिसके बीच में सोने का फूलनुमा आकृति होती है व दोनों छोर पर मूंग के दाने व चमकदार गोले पिरोये होते है गले में पहना जाता है।


स्यूंण-सांगल!
यह चाँदी का आभूषण जिसके दोनों किनारो पर तिकोने तथा रंगीन पट्टे होते है। जिनमे से ऊपरी पट्टे पर उसे अटकाने के लिए सुईनुमा आकृति होती है बीच का पट्टा आयताकार व डिजाइनदार होता जो लाल या पीले रंग से रंगे होते है पर चाँदी के ५-७जंजीरो से आपस में जुड़े होते है। इन चाँदी के पट्टों को स्थानीय भाषा में दुव्वा कहते है।


स्युदाडा!
शेर, बाघ और कस्तूरी मृग के दांत के ऊपर चाँदी के कुंडे बनाकर एक धागे में बांध कर पिन के सहारे पहनते है पिन पर स्युदाडा के अलावा कनक्वेरी (कान साफ करने वाला ) और दांतकोच्या (दांतो के बीच फंसी चीजों को निकलने वाला ) संबंद्ध होता है।


चूड़ी/पाटी!
यह हाथ में पहना जाने वाला चाँदी का आभूषण है जो चौड़ा व भारी होता है जिसके दोनों किनारे उभरे व बीच में विशिष्ट प्रकार का डिज़ायन बना होता है पहनते समय कोई परेशानी ना हो बीच में चाँदी का तार लगाने के लिए सांचे बने होते है।

पौजी
यह चाँदी से निर्मित कलाई पर पहना जाने वाला आभूषण है। इसमें ४० -५० तक चाँदी के डिज़ाइयनदार नुकीले व अलंकृत डेन होते है जिन्हे लाल कपडे की पट्टी पर बुने होते है चाँदी के डिजाइनदार बटन द्वारा ही इसे हाथ में पहना जाता है।


धगुला!
यह चाँदी का बना आभूषण कलाई में पहना जाता है जो गोलाकार व डिजाइनदार होता है।


झिवेंरी!
यह पाँव में पहना जाने वाला आभूषण है जिसके अंदर छोटे-छोटे चाँदी के घुंघरू होते है जो चलते समय बजते है। अधिकतर बच्चो को पहनाया जाता है।


पौंटा!
यह भी चाँदी का बना आभूषण है जिसे पांव में पहना जाता है।

झांझर!
यह भी पांव में पहना जाने वाला पायजेब जैसा चाँदी का आभूषण है।

प्वालिया!
यह पांव की अंगुलियों में पहना जाने वाला चाँदी का आभूषण है।
✍🏻साभार! -- राजेंद्र सिंह, शोधार्थी!
Department of Sociology & Social Work
H.N.B.Garhwal University, SrinagarRongpa Gurup Niti Mana की वॉल से
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