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सृष्टि का प्रारंभ दिवस महाशिवरात्रि

सृष्टि का प्रारंभ दिवस महाशिवरात्रि

सत्येन्द्र कुमार पाठक
वेदों , पुरणों तथा स्मृतियों में भगवान शिव का प्रमुखता से वर्णन है । सृष्टि का प्रारंभ और अंत भगवान शिव में समाहित है । प्रत्येक मास का कृष्ण पक्ष का त्रयोदशी एवं दिन सोमवार शिव को समर्पित है । भारतीयों का एक प्रमुख त्यौहार है। यह भगवान शिव का प्रमुख पर्व है। शैव धर्म के शिव पुराण एवं लिंग पुराण के अनुसार फाल्गुन कृष्ण त्रयोदशी तिथि सृष्टि का आरम्भ अग्निलिंग तथा श्वेत कल्प एवं भगवान शिव एवं माता पार्वती का विवाह के उदय से हुआ है । प्रत्येक वर्ष में होने वाली 12 शिवरात्रियों में महाशिवरात्रि को सबसे महत्वपूर्ण है । भगवान शिव की उपासना विश्व के विभिन्न क्षेत्रों में शैव धर्म के अनुयायियों द्वारा रुद्र , शिव , हर , नटराज , महाकाल , सारंग , नाथ , हेराथ , हेरथ रात्रि के रूप में मनाते है । समुद्र मंथन करने के पश्चात अमृत एवं हलाहल उत्पन्न हुआ था। हलाहल विष में ब्रह्माण्ड को नष्ट से बचाने के लिए भगवान शिव ने हलाहल को अपने कण्ठ में रख लिया था। हलाहल पान करने से भगवान शिव बहुत दर्द से पीड़ित होने से उनका गला बहुत नीला हो गया था। भगवान शिव 'नीलकंठ' के नाम से प्रसिद्ध हैं। उपचार के लिए, चिकित्सकों ने देवताओं को भगवान शिव को रात भर जागते रहने की सलाह दी थी । शिव का आनन्द लेने और जागने के लिए, देवताओं ने अलग-अलग नृत्य और संगीत बजाने। सुबह हुई, उनकी भक्ति से प्रसन्न भगवान शिव ने उन सभी को आशीर्वाद दिया। शिवरात्रि इस घटना का उत्सव है ।
माता पार्वती जी ने भगवान शिव से पूछा, 'ऐसा कौन-सा श्रेष्ठ -पूजन करने से मृत्युलोक के प्राणी आपकी कृपा सहज ही प्राप्त करते हैं । शिवजी ने पार्वती को 'शिवरात्रि' के व्रत का विधान बताकर यह कथा सुनाई- 'एक बार चित्रभानु नामक एक शिकारी था। पशुओं की हत्या करके वह अपने कुटुम्ब को पालता था। वह एक साहूकार का ऋणी था, लेकिन उसका ऋण समय पर न चुका सका। क्रोधित साहूकार ने शिकारी को शिवमठ में बंदी बना लिया। संयोग से उस दिन शिवरात्रि थी।'शिकारी ध्यानमग्न होकर शिव-संबंधी धार्मिक बातें सुनता रहा। चतुर्दशी को उसने शिवरात्रि व्रत की कथा भी सुनी। संध्या होते ही साहूकार ने उसे अपने पास बुलाया और ऋण चुकाने के विषय में बात की। शिकारी अगले दिन सारा ऋण लौटा देने का वचन देकर बंधन से छूट गया। अपनी दिनचर्या की भांति वह जंगल में शिकार के लिए निकला। लेकिन दिनभर बंदी गृह में रहने के कारण भूख-प्यास से व्याकुल था। शिकार करने के लिए वह एक तालाब के किनारे बेल-वृक्ष पर पड़ाव बनाने लगा। बेल वृक्ष के नीचे शिवलिंग था जो विल्वपत्रों से ढका हुआ था। शिकारी को उसका पता न चला। पड़ाव बनाते समय उसने जो टहनियाँ तोड़ीं, वे संयोग से शिवलिंग पर गिरीं। इस प्रकार दिनभर भूखे-प्यासे शिकारी का व्रत भी हो गया और शिवलिंग पर बेलपत्र भी चढ़ गए। एक पहर रात्रि बीत जाने पर एक गर्भिणी मृगी तालाब पर पानी पीने पहुँची। शिकारी ने धनुष पर तीर चढ़ाकर ज्यों ही प्रत्यंचा खींची, मृगी बोली, 'मैं गर्भिणी हूँ। शीघ्र ही प्रसव करूँगी। तुम एक साथ दो जीवों की हत्या करोगे, जो ठीक नहीं है। मैं बच्चे को जन्म देकर शीघ्र ही तुम्हारे समक्ष प्रस्तुत हो जाऊँगी, तब मार लेना।' शिकारी ने प्रत्यंचा ढीली कर दी और मृगी जंगली झाड़ियों में लुप्त हो गई। कुछ ही देर बाद एक और मृगी उधर से निकली। शिकारी की प्रसन्नता का ठिकाना न रहा। समीप आने पर उसने धनुष पर बाण चढ़ाया। तब उसे देख मृगी ने विनम्रतापूर्वक निवेदन किया, 'हे पारधी! मैं थोड़ी देर पहले ऋतु से निवृत्त हुई हूं। कामातुर विरहिणी हूँ। अपने प्रिय की खोज में भटक रही हूँ। मैं अपने पति से मिलकर शीघ्र ही तुम्हारे पास आ जाऊँगी।' शिकारी ने उसे भी जाने दिया। दो बार शिकार को खोकर उसका माथा ठनका। वह चिन्ता में पड़ गया। रात्रि का आखिरी पहर बीत रहा था। तभी एक अन्य मृगी अपने बच्चों के साथ उधर से निकली। शिकारी के लिए यह स्वर्णिम अवसर था। उसने धनुष पर तीर चढ़ाने में देर नहीं लगाई। वह तीर छोड़ने ही वाला था कि मृगी बोली, 'हे पारधी!' मैं इन बच्चों को इनके पिता के हवाले करके लौट आऊँगी। इस समय मुझे शिकारी हँसा और बोला, सामने आए शिकार को छोड़ दूँ, मैं ऐसा मूर्ख नहीं। इससे पहले मैं दो बार अपना शिकार खो चुका हूँ। मेरे बच्चे भूख-प्यास से तड़प रहे होंगे। उत्तर में मृगी ने फिर कहा, जैसे तुम्हें अपने बच्चों की ममता सता रही है, ठीक वैसे ही मुझे भी। इसलिए सिर्फ बच्चों के नाम पर मैं थोड़ी देर के लिए जीवनदान माँग रही हूँ। हे पारधी! मेरा विश्वास कर, मैं इन्हें इनके पिता के पास छोड़कर तुरन्त लौटने की प्रतिज्ञा करती हूँ। मृगी का दीन स्वर सुनकर शिकारी को उस पर दया आ गई। उसने उस मृगी को भी जाने दिया। शिकार के अभाव में बेल-वृक्षपर बैठा शिकारी बेलपत्र तोड़-तोड़कर नीचे फेंकता जा रहा था। पौ फटने को हुई तो एक हृष्ट-पुष्ट मृग उसी रास्ते पर आया। शिकारी ने सोच लिया कि इसका शिकार वह अवश्य करेगा। शिकारी की तनी प्रत्यंचा देखकर मृगविनीत स्वर में बोला, हे पारधी भाई! यदि तुमने मुझसे पूर्व आने वाली तीन मृगियों तथा छोटे-छोटे बच्चों को मार डाला है, तो मुझे भी मारने में विलम्ब न करो, ताकि मुझे उनके वियोग में एक क्षण भी दुःख न सहना पड़े। मैं उन मृगियों का पति हूँ। यदि तुमने उन्हें जीवनदान दिया है तो मुझे भी कुछ क्षण का जीवन देने की कृपा करो। मैं उनसे मिलकर तुम्हारे समक्ष उपस्थित हो जाऊँगा। मृग की बात सुनते ही शिकारी के सामने पूरी रात का घटनाचक्र घूम गया, उसने सारी कथा मृग को सुना दी। तब मृग ने कहा, 'मेरी तीनों पत्नियाँ जिस प्रकार प्रतिज्ञाबद्ध होकर गई हैं, मेरी मृत्यु से अपने धर्म का पालन नहीं कर पाएँगी। अतः जैसे तुमने उन्हें विश्वासपात्र मानकर छोड़ा है, वैसे ही मुझे भी जाने दो। मैं उन सबके साथ तुम्हारे सामने शीघ्र ही उपस्थित होता हूँ।' उपवास, रात्रि-जागरण तथा शिवलिंग पर बेलपत्र चढ़ने से शिकारी का हिंसक हृदय निर्मल हो गया था। उसमें भगवद् शक्ति का वास हो गया था। धनुष तथा बाण उसके हाथ से सहज ही छूट गया। भगवान शिव की अनुकम्पा से उसका हिंसक हृदय कारुणिक भावों से भर गया। वह अपने अतीत के कर्मों को याद करके पश्चाताप की ज्वाला में जलने लगा।
थोड़ी ही देर बाद वह मृग सपरिवार शिकारी के समक्ष उपस्थित हो गया, ताकि वह उनका शिकार कर सके, किन्तु जंगली पशुओं की ऐसी सत्यता, सात्विकता एवम् सामूहिक प्रेमभावना देखकर शिकारी को बड़ी ग्लानि हुई। उसके नेत्रों से आँसुओं की झड़ी लग गई। उस मृग परिवार को न मारकर शिकारी ने अपने कठोर हृदय को जीव हिंसा से हटा सदा के लिए कोमल एवम् दयालु बना लिया। देवलोक से समस्त देव समाज भी इस घटना को देख रहे थे। घटना की परिणति होते ही देवी-देवताओं ने पुष्प-वर्षा की। तब शिकारी तथा मृग परिवार मोक्ष को प्राप्त होता है ।
शिव पुराण के अनुसार, महाशिवरात्रि पूजा में शिव लिंग का जल , दूध और शहद के साथ अभिषेक , बेर या बेल के पत्ते आत्मा की शुद्धि का प्रतिनिधित्व करते हैं; सिंदूर का पेस्ट स्नान के बाद शिव लिंग को लगाया जाता है। यह पुण्य का प्रतिनिधित्व करता है; फल, जो दीर्घायु और इच्छाओं की सन्तुष्टि को दर्शाते हैं; जलती धूप, धन, अनाज , दीपक जो ज्ञान की प्राप्ति के लिए अनुकूल है; और पान के पत्ते जो सांसारिक सुखों के साथ सन्तोष अंकन करते हैं।
बारह ज्योतिर्लिंग (प्रकाश के लिंग) जो पूजा के लिए भगवान शिव के पवित्र धार्मिक स्थल और केन्द्र हैं। स्वयम्भू बारह स्‍थानों पर बारह ज्‍योर्तिलिंग हैं। 1. गुजरात राज्य का काठियावाड़ में औषधि देव चंद्र द्वारा सोमनाथ ज्योतिर्लिंग स्थापित है। 2. श्री शैल मल्लिकार्जुन मद्रास में कृष्णा नदी के किनारे पर्वत पर स्थापित है । 3. महाकाल उज्जैन के अवंति नगर में स्थापित महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग , 4. ॐकारेश्वर मध्यप्रदेश के ओंकारेश्वर में नर्मदा तट पर पर्वतराज विंध्य की कठोर तपस्या से खुश होकर वरदान देने पर ममलेश्वर ज्योतिर्लिंग स्थापित हो गया। 5. नागेश्वर गुजरात के द्वारकाधाम के निकट स्थापित नागेश्वर ज्योतिर्लिंग , 6. बैजनाथ बिहार के बैद्यनाथ धाम में स्थापित शिवलिंग। 7. भीमाशंकर महाराष्ट्र की भीमा नदी के किनारे स्थापित भीमशंकर ज्योतिर्लिंग। 8. त्र्यंम्बकेश्वर नासिक (महाराष्ट्र) से 25 किलोमीटर दूर त्र्यंम्बकेश्वर में स्थापित ज्योतिर्लिंग।9. घृष्णेश्वर महाराष्ट्र के औरंगाबाद जिले का वेसल गाँव में स्थापित घृष्णेश्वर ज्योतिर्लिंग। 10. केदारनाथ हिमालय का दुर्गम केदारनाथ ज्योतिर्लिंग , 11. बनारस के काशी विश्वनाथ मंदिर में विश्वनाथ ज्योतिर्लिंग 12. रामेश्वरम्‌ त्रिचनापल्ली (मद्रास) समुद्र तट पर भगवान श्रीराम द्वारा स्थापित रामेश्वरम ज्योतिर्लिंग हैं । महाकालेश्वर मंदिर, (उज्जैन) सबसे सम्माननीय भगवान शिव का मंदिर , जेओनरा, सिवनी के मठ मंदिर में व जबलपुर के तिलवाड़ा घाट , बिहार के औरंगाबाद जिले का देवकुण्ड स्थित बाबा दुग्धेश्वर नाथ , जहानबद जिले का बराबर पर्वत श्रृंखला पर सिद्धेश्वर नातन , अरवल जिले का मदसरवां का च्यावनेश्वर , गया का पिता महेश्वर , मुजफ्फरपुर का गरीबनाथ , एवं दरभंगा का सिहेश्वरनाथ , नेपाल का पशुपतिनाथ , दमोह जिले के बांदकपुर धाम में है। सनातन धर्म के मुख्य पर्व महिलाओं एवं पुरुषों के लिये कश्मीरी ब्राह्मणों का महत्वपूर्ण त्योहार है। शिव और पार्वती के विवाह के रूप में हर घर में मनाया जाता है। वैज्ञानिक दृष्टि में महाशिवरात्रि की रात ग्रह का उत्तरी गोलार्द्ध इस प्रकार अवस्थित होने से मनुष्य के भीतर की ऊर्जा प्राकृतिक रूप से ऊपर की ओर जाने लगती है । प्रकृति स्वयं मनुष्य को उसके आध्यात्मिक शिखर तक जाने में मदद कर रही होती है । चंचल मन में स्थिरता एवं मन शांत , जीवन के दुःख मिटते और सकारात्मक ऊर्जा का प्रवेश एवं नकरतमस्क उर्या का ह्रास होता है । शिवपुराण का विद्येश्वर संहिता एवं यजुर्वेद 3/60 के अनुसार त्रयम्बकं यजामहे सुगन्धिम पुष्टिवर्धनम । उर्वारुकमिव बंधनांमृत्योर्मुक्षीय मामृतात । त्रयम्बकं यजामहे सुगंधिम पतिवेदनं । उर्वारुकमिव बंधनादितो मुक्षीय मामुत: ।
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