अपनों ने दिया भाजपा को झटका
(रमेश सर्राफ धमोरा-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)
पार्टी विद डिफरेंस की टैग लाइन के साथ राजनीति में खुद को अन्य सभी पार्टियों से अलग व श्रेष्ठ बताने वाली भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) इन दिनों अपनों द्वारा दिए जा रहे झटकों से उबर नहीं पा रही है। देश के पांच राज्यों उत्तर प्रदेश, पंजाब, उत्तराखंड, गोवा और मणिपुर में विधानसभा चुनाव की प्रक्रिया प्रारंभ हो चुकी है। पांचो प्रदेशों में चुनाव लड़ने वाले सभी राजनीतिक दलों द्वारा अपने-अपने प्रत्याशियों के नामों की घोषणा की जा रही है। इसी दौरान विभिन्न पार्टियों के नेताओं द्वारा दलबदल का खेल भी जोरों से चल रहा है। इस दौरान सबसे अधिक झटका भाजपा को लगा है। कुछ वर्षों पूर्व सत्ता के लालच में भाजपा में शामिल होकर सत्ता का सुख भोगने वाले नेता ऐन चुनाव के वक्त भाजपा छोड़कर दूसरे दलों में शामिल होने लगे हैं।
भाजपा नेताओं के दल बदल के लिए जिम्मेदार भी पार्टी के बड़े नेता ही है। 2014 में नरेंद्र मोदी को आगे कर लोकसभा चुनाव लड़ने के दौरान भाजपा ने अपनी मूल विचारधारा को ताक पर रखकर दूसरे दलों से आने वाले सभी नेताओं को धड़ल्ले से पार्टी में शामिल कर उनको चुनाव में प्रत्याशी भी बना दिया था। उसके बाद से ही चाहेे प्रदेशों में विधानसभा के चुनाव हो या 2019 का लोकसभा चुनाव, भाजपा ने किसी भी दल से आने वाले नेता को अछूत नहीं समझा और पार्टी में शामिल कर लिया।
भाजपा के बढ़ते जनाधार को देखकर दूसरे दलों के बहुत से ऐसे मौकापरस्त नेता जिनकी अपने दलों में दाल नहीं गल रही थी। वो सभी भाजपा में शामिल हो गए। भाजपा ने भी दूसरे दलों से आने वाले नेताओं को भरपूर उपकृत किया। उन्हें विधानसभा व लोकसभा का चुनाव भी लड़वाया तथा चुनाव जीतने पर उनको मंत्री भी बनाया। ऐसे में दल बदल कर पार्टी में आने वाले नेताओं के क्षेत्रों में वर्षों से भाजपा के लिए काम करने वाले पार्टी नेताओं को पूरी तरह से नजरअंदाज कर दिया गया। दल-बदलू नेताओं को भाजपा में पूरी तरजीह मिली। इसका फायदा उठाकर उन्होंने जहां आर्थिक रूप से मजबूती प्राप्त की, वहीं पार्टी के पुराने कार्यकर्ताओं को दरकिनार कर अपने समर्थकों को विभिन्न पदों पर बैठाया। इससे पार्टी के मूल कार्यकर्ताओं में निराशा व्याप्त होने के कारण वह धीरे-धीरे मुख्यधारा से से किनारे हो गए।
लंबे समय तक सत्ता का दोहन करने के कारण अन्य दलों से भाजपा में आये बहुत से नेताओं पर भ्रष्टाचार के आरोप लगने लगे। उनके नाम के साथ कई तरह के विवाद जुड़ गए। ऐसे में चुनाव नजदीक आने पर जब उन्हें पार्टी में फिर से टिकट नहीं मिलने का अंदेशा हो गया तो वे अपने पद पर रहते ही भाजपा विरोधी किसी अन्य पार्टी में शामिल हो गए। इससे एक तो चुनाव के वक्त पार्टी छोड़ने से जहां भाजपा की हवा खराब हुई, वहीं पार्टी के सामने एकाएक मजबूत प्रत्याशी खड़ा करना मुश्किल हो गया। दूसरे दलों से भाजपा में आए कई नेताओं ने तो पद पर रहते ही भाजपा को
अलविदा कह कर पार्टी की किरकिरी भी कराई।
2014 के लोकसभा चुनाव से पहले कांग्रेस से भाजपा में आए नाना पटोले ने भाजपा टिकट पर प्रफुल्ल पटेल जैसे दिग्गज नेता को पराजित किया था। मगर तीन साल बाद ही उन्होंने भाजपा व सांसद से इस्तीफा देकर कांग्रेस की सदस्यता ले ली थी। नाना पटोले के इस्तीफे देने के बाद भंडारा गोंदिया लोकसभा सीट पर हुए उपचुनाव में राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के मधुकर राव कुकड़े ने भाजपा प्रत्याशी हेमन्त श्रवण पटेल को हरा दिया था। उस उप चुनाव में राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के प्रत्याशी को कांग्रेस का भी समर्थन प्राप्त था।
पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान दूसरी पार्टी से भाजपा में आए उत्तर पश्चिम दिल्ली में सांसद उदित राज, उत्तर प्रदेश में बहराइच के सांसद रही सावित्रीबाई फुले, आजमगढ़ से पूर्व सांसद रमाकांत यादव, हिमाचल प्रदेश के सुखराम जैसे कई बड़े नेताओं ने भाजपा छोड़कर दूसरे दलों का दामन थाम लिया था। जो कुछ वर्षों पूर्व ही दूसरी पार्टियों से भाजपा में आए थे।
पश्चिम बंगाल में विधानसभा चुनाव से पूर्व मुकुल राय सहित बहुत से बड़े नेता भाजपा में शामिल हुए थे। सभी को बंगाल में भाजपा सरकार बनती दिख रही थी। इसलिए अपने लाभ के लिए भाजपा में आने वालों की बहुत बड़ी संख्या थी। मगर जैसे ही विधानसभा चुनाव के नतीजे आए और ममता बनर्जी भारी बहुमत से तीसरी बार मुख्यमंत्री बनी। उसके बाद भाजपा में दूसरे दलों से आए दल बदलू नेताओं ने पार्टी को छोड़ना शुरू कर दी। सबसे पहले भाजपा के बड़े नेता व राष्ट्रीय उपाध्यक्ष मुकुल राय ने ममता बनर्जी से फिर से हाथ मिला लिया। उसके बाद केंद्र में मंत्री रहे बाबुल सुप्रियो ने मंत्री पद से हटाने से नाराज होकर भाजपा व संसद सदस्यता से त्यागपत्र देकर तुणमुल कांग्रेस में शामिल हो गए। अब तक बंगाल में भाजपा के कई बड़े नेता व करीबन दस विधायक तुणमुल कांग्रेस में शामिल हो चुके हैं। इसी तरह 2017 में विधानसभा चुनाव के दौरान उत्तराखण्ड में कांग्रेस से भाजपा में आकर मंत्री बने यशपाल आर्य अपने विधायक बेटे संजीव आर्य के साथ व हरक सिंह रावत भाजपा छोड़कर फिर से कांग्रेस में शामिल हो गए हैं।
उत्तर प्रदेश में भी स्वामी प्रसाद मौर्य, धर्म सिंह सैनी, दारासिंह चैहान ने मंत्री पद से इस्तीफा देकर समाजवादी पार्टी में शामिल हो गए हैं। उनके साथ ही करीबन 15 अन्य विधायकों ने भी भाजपा छोड़कर समाजवादी पार्टी का दामन थाम लिया है। इनके अलावा टिकट नहीं मिलने पर कई अन्य नेताओं के भी भाजपा छोड़ने की संभावना जताई जा रही है। हालांकि भाजपा ने भी स्वामी प्रसाद मौर्य जैसे बड़े नेता के पार्टी छोड़ने पर उनके प्रतिद्वंदी रहे पूर्व केंद्रीय मंत्री व कांग्रेस के बड़े नेता आरपीएन सिंह को भाजपा में शामिल कर लिया है। आरपीएन सिंह स्वामी प्रसाद मौर्य के क्षेत्र पडरौना से ही पूर्व में तीन बार विधायक रह चुके हैं। वह मौर्य की कुर्मी जाति से है तथा पडरौना उनका परंपरागत विधानसभा क्षेत्र रहा है।
पार्टी में चल रहे दलबदल के बारे में भाजपा के बड़े नेताओं का कहना है कि जिनके टिकट कटने की पूरी संभावना हैं। वही लोग पार्टी छोड़कर दूसरे दलों में जा रहे हैं। मगर भाजपा को भी अपने अंतर्मन में झांकना होगा कि ऐन चुनाव के वक्त पार्टी के नेता पार्टी छोड़कर क्यों जाते हैं। इसके जिम्मेवार कहीं न कहीं पार्टी के ही बड़े नेता है। जो सिर्फ सरकार बनाने के लिए बिना सोचे समझे दूसरे दलों के ऐसे नेताओं को पार्टी में शामिल कर लेते हैं जिनकी भाजपा के प्रति ना तो कभी निष्ठा रही है ना ही भाजपा की विचारधारा से उनका तालमेल रहा है।
पिछले सात वर्ष से अधिक समय से भाजपा की केंद्र में सरकार चल रही है। अधिकांश राज्यों में भी भाजपा व उनके सहयोगी दलों की सरकार है। ऐसे में भाजपा आलाकमान को सोचना चाहिए की दल बदल कर दूसरे दलों से आने वाले नेताओं को पार्टी में शामिल करने के बजाए अपनी ही पार्टी का संगठन मजबूत किया जाए। पार्टी में काम करने वाले कार्यकर्ताओं को आगे बढ़ाया जाए। वर्षों से सहयोगी रहे दलों की उपेक्षा करने की बजाय उनको पूरा सम्मान देना चाहिये। ताकि चुनाव के समय पार्टी को दल बदल का सामना नहीं करना पड़े, जिससे पार्टी इस प्रकार से शर्मिंदगी झेलने से बच सके। (हिफी)
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