गुरु का महत्व और शिष्य के दायित्व
(हिफी डेस्क-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)
भारत के आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक विकास में गुरु-शिष्य परम्परा का विशेष महत्व रहा है।
सवाल है शिष्य किसे कहते हैं और शिष्यत्व का महत्व क्या है?
उसका सीधा अर्थ है। आध्यात्मिक उन्नति हेतु जो गुरु द्वारा बताई साधना करता है, उसे ‘शिष्य’ कहते हैं। शिष्यत्व का महत्व यह है कि उसे देवऋण, ऋषिऋण, पितृऋण एवं समाजऋण चुकाने नहीं पडते।
शिष्य के अनेक गुणों में से कुछ प्रमुख गुण आगे निम्नानुसार हैं:
पहला है मुमुक्षुत्व: वास्तव में जबतक शिष्य यह बात ठान न ले, अर्थात जबतक उसमें वैसी इच्छा न हो, तब तक वह जीवन्मुक्त नहीं हो सकता। जिसकी प्रज्ञा जागृत हुई, वही वास्तविक शिष्य है।
दूसरा है- आज्ञाकारिता: यह शिष्य के समस्त गुणों में सर्वश्रेष्ठ है।
कहते हैं गुर्वाज्ञा का बुद्धि से विश्लेषण न करें परंतु
बुद्धि का प्रयोग कर आज्ञापालन अधिक अच्छे ढंग से अवश्य करें! ऐसा क्यों?
आज्ञा की पृष्ठभूमि से शिष्य कदाचित अनभिज्ञ हो लेकिन उसे इस बात का पूर्ण विश्वास होता है कि ‘गुरु की विचारधारा कल्याणकारी है’ अतः सत्शिष्य सद्गुरु की आज्ञा का पालन निस्संदेह करता है। वे कहें ‘नामजप कर’, तो वह उसी अनुसार करता है। ‘उससे क्या लाभ होगा?’, इसका विचार वह नहीं करता। जब गुरु ने कहा ‘निरंतर नामजप करो’, तब अंबू ने सात दिन लगातार नामजप किया। इसके परिणामस्वरूप उसे साक्षात्कार हुआ और वह अंबुराव महाराज बना। गुरु की बात पर विश्वास न हो, तो प्रथम उनके कहे अनुसार आचरण करें, तत्पश्चात कारण पूछें। यदि गुरु कहें, ‘माता-पिता के पास जाओ एवं उनकी बात मानो’, तब भी बुरा न मानकर गुरु के कहे अनुसार ही करें। ‘गुरु मुझे अपने से दूर कर रहे हैं’, ‘माता-पिता के पास जाओ’ ऐसा कहते हैं परंतु ‘माता-पिता के पास जाना माया का भाग है’ इत्यादि विचार मन में लाना उचित नहीं है। गुरु के ‘जा’ कहने में भी कुछ उद्देश्य होता है। बिट्ठलपंत नेे (संत ज्ञानेश्वर के पिता ने) संसार त्याग कर संन्यास लिया था। गुरु ने उनसे कहा ‘संसारी बनो’, क्योंकि गुरु जगत को संत ज्ञानेश्वर देना चाहते थे।
गुरु के किसी उद्दिष्ट के या उनके द्वारा बताई गई किसी सेवा के कार्यकारण भाव को भली-भांति समझकर, न्यूनतम समय में एवं उचित ढंग से उसे पूर्णत्वतक ले जाना गुरु को अपेक्षित होता है। गुरु यदि कहें, ‘पूजा करो’ और शिष्य बुद्धि का प्रयोग कर अधिकाधिक अच्छे ढंग से पूजा करे, तो यह अवज्ञा नहीं होतीय अपितु गुरु इस बात से प्रसन्न होते हैं।
श्री गुरु के आज्ञापालन का रहस्य क्या है?
आज्ञापालन की क्षमता गुरु-आज्ञा में ही है। गुरु कभी ऐसा नहीं कहते, जिसका पालन नहीं कर पाओगे। यद्यपि ‘आज्ञापालन नहीं हो पाएगा’ ऐसा बाह्यतः प्रतीत हो, तब भी गुरु ही अंतःकरण में आज्ञापालन का सामथ्र्य प्रदान करते हैं। इस प्रकार आज्ञापालन की क्षमता प्राप्त करने के लिए पहले चरण में गुरुके कहे अनुसार कार्य करना और आगे गुरु के मन की बात जानकर कार्य करना आवश्यक होता है। आज्ञापालन न करने का दोष भी शिष्य को लगता है। गुरुचरित्र में बताया गया है कि जो गुरु की बात नहीं मानता, वह रौरव नरक में जाता है। वह यमलोक में वास करता है और अखंड कष्ट भोगता है। वह नर पापी और दरिद्र बनकर रह जाता है।
गुर्वाज्ञापालन कैसे करना चाहिए, इसके कुछ शिष्यों के उदाहरण
‘एक बार धौम्य ऋषि ने आरुणि नामक अपने शिष्य से खेत में फसल को पानी देने के लिए कहा। आरुणि ने खेत में जाकर देखा कि सारा पानी बह जाने के कारण फसलों को पानी नहीं मिल रहा था। आरुणि ने बांध बनाकर, पत्थर डालकर पानी रोकने का प्रयत्न कियाय परंतु प्रवाह के वेग के कारण बांध टिक न सका। अंततः वह स्वयं बांध के दोनों छोरों के बीच लेट गया। इससे पानी थम गया तथा सारी फसल को पानी मिला।’ (गुरुचरित्र, अध्याय 16)
‘पर्वतेश्वर नामक शूद्र ने अपनी पत्नी एवं संतान की इच्छा के विरुद्ध गुरु-आज्ञा हेतु खेत में उगी हुई, ठेके में ली हुई ज्वार की फसल काट डाली। (आगे चलकर उन कटे हुए पौधों में कई गुना अधिक ज्वार की फसल हुई।)’ (गुरुचरित्र, अध्याय 47)
इन उदाहरणों से शिष्य की गुरु के प्रति भक्ति और समर्पण दिखता है। गुरु त्रिकालज्ञानी हैं, इसलिए उनके द्वारा बताई हुई बात बुद्धिसे समझ में न भी आ रही हो, तबभी शिष्य के लिए वह परम हितकारी होती है। इसलिए उसे मान लेना चाहिए।
गुरु के प्रति दृढ श्रद्धा होनी चाहिए।
कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं-
1993 में मुंबई में भीषण दंगे हुए थे। सैकडों हिन्दू-मुसलमान मारे गए। ऐसी स्थिति में साधु समान नित्य के वेश में, स्वामी परमानंद सिर पर जटा बांधे एवं लंबी दाढी रख, मुसलमानों की एक घनी बस्ती में परिचित व्यक्ति से मिलने गए। कुछ कालोपरांत जब हमने उनसे पूछा, ‘उस समय डर नहीं लगा क्या?’’ उन्होंने उत्तर दिया, ‘‘गुरु के समर्थ होते हुए डर कैसा?’’
गुरुचरित्र के कुछ उदाहरण
‘जब श्री गुरु ने एक ब्राह्मण स्त्री को, बांझ भैंस को दुहने के लिए कहा, तो उसने श्रद्धापूर्वक दूध निकालना आरंभ किया तथा भैंस ने अत्यधिक दूध दिया ।’ (श्री गुरुचरित्र, अध्याय 22)
‘गुरु पर संपूर्ण श्रद्धा के कारण कुष्ठरोग से पीडित नरहरि ब्राह्मण ने उनकी आज्ञानुसार चार वर्ष तक शुष्क, ईंधन हेतु लाई गई गूलर के पेड की (उदुम्बर की) एक टहनी को रोपकर पानी से सींचा । लोगों ने उसे पागल कहकर उसका उपहास किया परंतु उसने उसे पानी से सींचना जारी रखा। आगे चलकर उस टहनी पर कोमल पत्ते निकले तथा नरहरि का कुष्ठरोग भी ठीक हो गया।’ (श्री गुरुचरित्र, अध्याय 40)
समर्थ रामदास स्वामीजी के चरित्र से कुछ उदाहरण
एक बार जब समर्थ रामदास स्वामीजी का एक शिष्य मार्ग पर चल रहा था, तो कहीं पर उसने देखा कि, एक घर के युवा पालनकर्ता की मृत्यु पर उसके वृद्ध माता-पिता, पत्नी, बच्चे सभी रो रहे हैं । उसे दया आई। ‘राम-राम’ कहकर उसने शव पर पानी छिडका, तो मृत युवक जीवित हो उठा। यह घटना जब उस शिष्य ने स्वामीजी को सुनाई, तो स्वामीजी ने उसे एक थप्पड मारा और बोले, ‘‘राम-राम’’ कहकर राम को दो बार क्यों पुकारा ? पहली पुकार से ही राम कार्य संपन्न करेंगे, ऐसी श्रद्धा नहीं थी क्या?’’ एक बार शिष्य अंबादास को समर्थ रामदास स्वामीजी ने वृक्ष की एक शाखा के सिरे पर बैठकर शाखा काटने के लिए कहा। गुरु पर पूर्ण श्रद्धा होने के कारण उसने उनके कहे अनुसार शाखा काटना आरंभ किया। शाखा कटते ही वह वृक्ष के नीचे स्थित कुएं में गिर पडा। तीन दिन के उपरांत जब स्वामीजी ने उससे पूछा, ‘कुशल-मंगल है न ?’’ इस पर वह बोला, ‘आपकी कृपा से ठीक हूं।’’ तत्पश्चात स्वामीजी ने उसे बाहर निकाला तथा उसका नाम ‘कल्याण’ रखा। (हिफी)
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