भारतीय सिनेमा की शुरुआत ही , भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों की स्थापना से हुई थी ।
संकलन अश्विनीकुमार तिवारी
आज से लगभग हजार वर्ष पहले भरत मुनि ने नाट्यशास्त्र दिया था जिसे हमलोंग पांचवा वेद भी कहते हैं। बाद में कालिदास आदि अन्य नाटककारों ने नाटक लिखे और मंचन किया। तुलसीदास जी की रामचरितमानस की रचना के पश्चात रामलीला मंडलियाँ बनी और समाज को दिशा देने लगी। हमारे देवी देवताओं की मूर्तियों को पहली बार कागज पर लाने का कार्य सर्वप्रथम राजा रवि वर्मा जी ने किया था । बाद में वे मुंबई आ गए जहां भारतीय सिनेमा के भीष्म पितामह दादा साहब फाल्के उनके सानिध्य में आए और उनके शिष्य बन गए । बाद में महान चित्रकार रवि वर्मा से प्राप्त कैमरे से ही उन्होंने पहली भारतीय मूक फिल्म राजा हरिश्चंद्र 1013 में बनाई और भारतीय फिल्म के निर्माण का श्रीगणेश किया था।
संस्कृत में जिसे रूपक कहा गया है उसे आज की फ़िल्म मान सकते हैं।
वैसे ये रूपक दस प्रकार के हैं लेकिन आगे जाकर कई भेद हो जाते हैं।
इनमें जो प्रथम स्थान पर है उसे नाटक कहते हैं। नाटक की यह शर्त है कि उसका नायक कोई सद्वन्श क्षत्रिय अथवा देवता होना चाहिए, उसकी कथा बहुत भव्य, विराट और धर्म अर्थ काम मोक्ष से गुम्फित होनी चाहिए। अब यदि हम फ़िल्म बाहुबली को देखते हैं तो वह नाटक श्रेणी की है। (यहाँ एक एक ही उदाहरण दे रहा हूँ, आगे आप अनुमान लगा सकते हैं।)
दूसरा स्थान आता है #प्रकरण का। यह बाकी सब नाटक जैसी ही होती है लेकिन मोक्ष के अतिरिक्त शेष तीन वर्ग और नायक कोई थोड़ा मध्यम श्रेणी का होता है। दक्षिण की फ़िल्म #अपरिचित इस श्रेणी की है।
ऐसे ही जिस फ़िल्म में हास्य प्रधान हो, धूर्त और निम्न चरित्र अभद्र भाषा में ईर्ष्या, लोभ के साथ चेष्टाएँ करें वह #समवकार कहलाता है, उदाहरण के लिए हेराफेरी सीरीज की सभी फिल्में।
विशुद्ध हास्य की फ़िल्म प्रहसन मानी जायेगी जैसे पड़ोसन।
ऐसे ही एक होता है #डिम जिसमें अधर्मी कुटिल पात्र भूत, प्रेत, रहस्य रोमांच का प्रदर्शन करते हैं, उदाहरण : दक्षिण की फ़िल्म kashmoraa।
जहां सभी धूर्त, भांड, अपराधी हो वह भाण कहलाता है, जैसे गैंग ऑफ वासेपुर।
ऐसे ही एक होता है व्यायोग, इसमें अत्यंत बलशाली नायक अत्यंत कठिन मिशन को पूरा करता है, इसमें वीर रस प्रधान होता है। उदाहरण उरी या कारगिल पर बनी फिल्में। अंक में स्त्री विलाप अधिक होता है, वीथी में स्त्रियां ही प्रमुख होती है,,,, इत्यादि।
ये जो लल्ला लल्ली के खेल वाली फिल्में, जिनमें इश्क, सौतन, मिलन में अवरोध और अंत में नायक नायिका का मिलन, बीच बीच में नाच गाना और कभी मिलन कभी जुदाई.... इन्हें तो रूपक श्रेणी में भी नहीं माना जाता। ये तो उपरूपक में भी नाटिका श्रेणी की फिल्में हैं जिन्हें स्त्रियां अधिक पसंद करती हैं।
हाल ही में पुष्पा फ़िल्म हिट हुई, दक्षिण की फिल्में बाजी मारती जा रही है, इसका एक कारण यह भी है कि दक्षिण के सभी फिल्मकार प्रायः भरत मुनि के #नाट्यशास्त्र और धनंजय के दशरूपक का अध्ययन कर उन नियमों का पालन करते हैं। नाट्यशास्त्र के बाद धनञ्जय की कृति ही अपने में परिपूर्ण है जो आपको कथा, उपकथा, उसके भेद, प्रभेद, कहानी के मोड़, उसे समेटने की विधि, एक एक बात का इतना सूक्ष्म और सोदाहरण विवेचन है कि कोई भी साहित्यकार चमत्कृत हो सकता है।
एक उदाहरण देता हूँ, फ़िल्म में नायक की एंट्री (प्रथम प्रवेश) करने के ही 64 तरीके बताए हैं दशरूपक में।
यह संस्कृत में है और हिन्दी अनुवाद उपलब्ध है। धनंजय का तो अध्ययन निश्चित रूप से हॉलीवुड भी लेता है, मैंने भी अनुभव किया है। दशरूपक कालजयी रचना है, न भूतों न भविष्यति।
अस्तु, यह विषय बहुत लंबा चौड़ा है। पोस्ट का भाव यही है कि दक्षिण भारत के फिल्मकार अभी भी शास्त्रीय नियमों को फॉलो करते हैं इसलिए इतना अच्छा ला पाते हैं। जैसे जैसे भारत की सांस्कृतिक प्यास बढ़ेगी, यह क्रम बढ़ता जाएगा।
बाकी हमारी नजर में तो दद्दा जिसे गुलजार, जावेद अख्तर, सलीम, और नासिर का बेहतरीन कार्य बता लहालोट हो रहे हैं, निहायत ही घटिया सिनेमा है।
✍🏻कुमार_एस
धर्म, दर्शन और कला का त्रिक अगर किसी एक ग्रंथ में रूपायित हुआ है तो वह "विष्णु धर्मोत्तर" है।
भारतीय शास्त्रीय कलाओं के जो सिद्धांतकार हैं, अगर आप उनसे वार्ता करें तो पाएंगे कि उनके लिए जो महत्व भरतमुनि के नाट्यशास्त्र का है, उससे कम महत्व विष्णु धर्मोत्तर का नहीं है। इसके तृतीय परिवर्त में छंद, अलंकार, नाट्यगीत, नृत्यस्थान, अभिनय कला, नवरस प्रतिपाद, चित्र सूत्र, मंदिर स्थापन, मूर्ति प्रतिष्ठा आदि का विस्तृत विवेचन है। दण्डी और भामह के काव्यालंकार सम्बंधी ग्रंथ भी इसी "विष्णु धर्मोत्तर" से प्रणीत हुए हैं।
एक बार मैं इन्दौर में नृत्याचार्य श्री पुरु दाधीच- जिन्हें हाल ही में पद्मश्री दिया गया- से वार्ता कर रहा था। उनके पुस्तकालय में नाट्यशास्त्र था और काव्यालंकार के ग्रंथ थे किंतु विष्णु धर्मोत्तर देखकर चौंका। पूछने पर उन्होंने बतलाया- नृत्याचार्य के यहाँ यह ग्रंथ नहीं होगा तो और कौन-सा होगा, यह तो ललित कलाओं की गीता है।
विष्णुधर्मोत्तर पुराण में मृत्यु की विलक्षण परिभाषा दी गई है।
उसके शुद्धितत्व प्रकरण में कहा गया है कि जिसे हम मृत्यु कहते हैं, उसमें वास्तव में शरीर के पांच में से दो ही तत्वों की क्षति होती है- पृथ्वी और जल। पार्थिव शरीर इन्हीं से बनता है। पदार्थ का गुरुत्व भी इन्हीं को खींचता है।
किंतु मृत्यु के बाद तीन तत्व शेष रह जाते हैं- अग्नि, आकाश और वायु। अग्नि पुराण में अग्नि को तेज तत्व कहा गया है। यह तीनों ही तत्व गुरुत्वाकर्षण से मुक्त हैं, अपार्थिव हैं और जिस सूक्ष्म शरीर का निर्माण करते हैं, उसे आतिवाहिक या प्रेतदेह कहा गया है।
कदाचित्- कल्पना, आकांक्षा, स्मृति, चेतना और संकल्प इस आतिवाहिक शरीर के अंग होंगे, जो मृत्यु के बाद जीवित रहते हों।
पिंडों के दान से जिस देह का निर्माण होता है, उसे भोगदेह कहा गया है। वहां से फिर लौकिक संसार की ओर वापसी है- वैसा वर्णित है।
कितना अचरज है कि प्रियजन की मृत्यु के तुरंत बाद हम इन प्रयासों में जुट जाते हैं कि जीव को पुनः पार्थिव देह मिले, जिसमें तर्पण का जल है और पिंड की पृथिवी। जबकि एक जीवनपर्यंत विषाद के बाद वह अब अग्नि, आकाश और वायु के तत्व में थिर हुआ है।
कौन जाने, आतिवाहिक चेतनाओं का अंधकार भरा जो पितृलोक या प्रजापति लोक है, वह इससे राज़ी होता है या नहीं, कहीं वह इससे संघर्ष तो नहीं करता?
जो जीवित हैं वो जीवनभर मृत्यु का प्रतिकार करते हैं। तो क्या जो मर चुके वो फिर जीवन में लौट आना चाहते होंगे?
✍🏻सुशोभित
सुमेरियन तंत्री वाद्य : भारतीय संदर्भ
नाट्यशास्त्र आदि में चार प्रकार के वाद्याें में तंत्रवाद्य का जिक्र आया है और इसमें वे वाद्य कोटिकृत किए गए हैं जिनके लिए तार का प्रयोग होता आया था। ऐसे वाद्य सुमेरियन सभ्यता में भी प्रयोग में आते थे। लगभग 2000 ईसापूर्व की एक मृणपट्टिका में एक हारपिस्ट या तंत्रीवादक को दिखाया गया है जिसके लिए कहा गया है कि वह कविता को संगीतबद्ध करने में सहायता करता था। (Stamped clay plaque of a harpist- 2000 B.C, Music was an important part of daily life. Sumerians used many instruments including harps, pipes, drums, and tambourines. The music was often used in conjunction with poems and songs dedicated to the gods) नाट्यशास्त्र में हारपिस्ट के लिए 'वेणिक' का प्रयोग हुआ है।
हमारे यहां भी तंत्री वाद्य का वैदिक काल से ही जिक्र मिलता है। बाण, कर्करी, गर्गर, गोथा और आघाटी नामक वीणाओं का यही स्वरूप हाेता था। जिसमें तूंबे का प्रयोग होता, वह 'अलाबु वीणा' कही जाती थी। शांख्यायन ब्राह्मण की वह कथा मशहूर है कि असुर ने सिद्धत्व के परीक्षण के लिए कण्व मुनि को कैद कर लिया। चुनौती दी कि वह बिना देखे बताए कि सूर्योदय हो गया है। तब उन्होंने अश्वि देवता के प्रात:कालीन तंत्रीवादन को सुनकर बताया कि सवेरा हाे गया है... तब जाकर असुरों ने उनको स्वतंत्र किया। रामायण काल में भी 'तंत्रीलय समन्वितम्...' (बालकांड, सर्ग 4) का संदर्भ सुबह सुबह गूंजने वाली मंगलध्वनि के प्रसंग में आया है।
बौद्ध ग्रंथों में गुत्तिल जातक में एेसी ही कथा आती है। तब वीणा वादन की प्रतियोगिताएं होती थी। उज्जैनी या उज्जैन के वीणा वादक मूसिल और वाराणसी के राजवादक गुत्तिल के बीच राजदरबार में जो प्रतियोगिता हुई, उसमें बड़ी भीड़ जुटी थी। गुत्तिल ने वीणा की सप्ततंत्रियों में से प्रत्येक तार को तोड़ते हुए भी अपना वादन निरंतर रखा। जब सारे ही तार भूमि पर गिर पड़े तब भी तमाशबीन देख रहे थे कि वीणा से ध्वनि निकल रही थी,, दर्शक चकित थे... दण्ड ही ध्वनि निष्पन्न कर रहा था।
है न तंत्रीवाद्य की रोचक कहानियां और प्रसंग। ऐसे दर्जनों प्रसंग याद हैं मगर, सबसे अधिक रोचक बात यह है कि यह वाद्य भारत से लेकर सुमेरियन सभ्यता तक अपनी झंकार से जनजीवन में सुरों का सुख पूरित करता रहा है...।
✍🏻श्रीकृष्ण जुगनु
दसवीं सदी में राजा भोज से पूर्व मालवा की धारा नगरी ने साहित्य, संगीत और कला के क्षेत्र में उज्जयिनी के वैभव को बहुत पीछे छोड़ दिया था। वह समय भोज के पितृव्य मुञ्ज का था, जिन्हें वाक्पतिराज द्वितीय के नाम से जाना जाता है।मुञ्ज का शासनकाल सन् 974 से 994 तक का माना जाता है । राजा मुञ्ज ने 16 बार चालुक्यवंशी राजा तैलपदेव पर आक्रमण किया। अंतिम युद्ध के बाद मुञ्ज तैलपदेव को बंदी बना कर उज्जयिनी ले आये, और फिर उदारतापूर्वक छोड़ भी दिया । कुछ ही दिनों बाद तैलपदेव ने फिर आक्रमण कर दिया, और मुञ्ज को पराजय झेलना पड़ी । कठिन परिस्थितियों का सामना करते हुए मृत्यु का वरण करना पड़ा ।
वाक्पतिराज मुञ्ज विद्वानों, कवियों और कलाकारों से प्रेम करते थे , वे सरस्वती के अनन्य उपासक थे । राजा मुञ्ज की मृत्यु पर कही गई उक्ति धार के लोगों की जुबान पर अब तक है। ” गते मुञ्जे यश:पुञ्जे निरालम्बा सरस्वती “, अर्थात् यशस्वी मुञ्ज के चले जाने से तो सरस्वती का भी सहारा चला गया।
मुञ्ज के समय में धारानगरी में दो भाई रहते थे । बड़े भाई का नाम था धनञ्जय ,और छोटे का नाम था धनिक। दोनों भाई साहित्य में रुचि रखने वाले योग्य विद्वान् थे। दोनों ही कुशाग्र थे, और दोनों पर ही मुञ्ज की स्नेह-दृष्टि थी। यह समय आज से लगभग 1100 वर्ष पहले का है। सभाओं में भास, कालिदास, भट्टनारायण, भवभूति के नाटक खेले जाने की परम्परा थी। धनञ्जय और धनिक दोनों की ही गहरी रुचि संस्कृत नाटकों में थी, प्राय: दोनों मिल कर ही नाट्यनिर्देशन और रंगकर्म करते, और मुञ्ज की उपस्थिति में नाट्यसभाओं का आयोजन होता।
उन दिनों धारा नगरी में नाटक एक आन्दोलन की तरह था, और ये दोनों भाई ही इस सांस्कृतिक आन्दोलन के सूत्रधार थे। इसी दौर में बड़े भाई धनञ्जय ने नाट्यशास्त्र पर तीन सौ कारिकाएँ लिखीं, और छोटे भाई धनिक ने उन कारिकाओं पर साथ ही साथ ‘अवलोक’ नामक टीका भी लिखी। धनञ्जय की इन कारिकाओं का संग्रह ” दशरूपकम् ” के नाम से जाना
जाता है। यह ‘दशरूपक’ प्राचीन नाट्यशास्त्र का आधुनिक संस्करण माना जाता है, और ग्यारह सदियाँ बीत जाने के बाद आज भी यही एक ग्रंथ है, जिसके सूत्र नाटककारों की अमूल्य निधि समझे जाते हैं ।
मालवा की सांस्कृतिक राजधानी रही धारा नगरी में लिखा गया ‘दशरूपकम्’ भरत मुनि के नाट्यशास्त्र के बाद सबसे ज्यादा लोकप्रिय ग्रंथ है। यह ग्रंथ चार प्रकाशों (अध्यायों )
में बाँटा गया है। ‘दशरूपकम्’ में नाटक के लक्षण, नाटक की पञ्चसन्धियों, कथावस्तु के भेदों के साथ नायक और नायिकाओं के भेदों को सरलतापूर्वक समझाया गया है। नाटक में रसों की महत्ता, पात्रों की संख्या, मंचनिर्माण की प्रक्रिया और रसास्वादन के प्रकारों पर भी विस्तार से चर्चा हुई है ।
‘दशरूपकम्’ में जो कारिकाएँ हैं , वे सामान्यत: कुछ सूत्रों को मिलाकर बने हुए सम्पूर्ण छंद हैं। उदाहरण के लिये देखिए- “अवस्थानुकृतिर्नाट्यं। रूपं दृश्यतयोच्यते। रूपकं तत्समारोपात्। दशधैव रसाश्रयम्। “धनञ्जय ने बहुत ही अच्छी तरह समझाया है कि नाटक अवस्था की अनुकृति है। नाटक “रस” पर ही आश्रित होता है, और नृत्य “भाव” पर आश्रित होता है। ताल और लय पर जो होता है, वह “नृत्त” कहलाता है। धनिक ने अपनी अवलोक टीका से ‘दशरूपकम्’ में चार चाँद लगा दिये हैं। संस्कृत साहित्य के अत्यंत महत्वपूर्ण और चुने हुए काव्य-अंशों को एक जगह ला कर धनिक ने बड़े भाई की इस अनुपम कृति को रोचक बना दिया है। ‘दशरूपकम्’ एक विश्वस्तर का शास्त्रीय ग्रंथ है, किंतु आप इसे विविध रसों से परिपूर्ण आह्लादमयी कविता की तरह भी आराम से पढ सकते हैं।
दशरूपककार धनञ्जय के बाद नाट्यशास्त्र का कोई बड़ा आचार्य अब तक नहीं हुआ। धनञ्जय के बाद भट्टनायक, महिमभट्ट, क्षेमेन्द्र , मम्मट, शारदातनय, विश्वनाथ आदि ने धनञ्जय की शैली तो अपनायी, किन्तु शारदातनय को छोड़ कर कोई भी नाट्यशास्त्र के नहीं, काव्यशास्त्र के ही आचार्य हुए।
नि:सन्देह ‘दशरूपक’ अकेले धनञ्जय का पराक्रम नहीं है। छोटे भाई धनिक की बहुमूल्य टीका को वहाँ से हटा लिया जाए, तो शायद यह एक नीरस ग्रंथ हो। पूरे ‘दशरूपकम्’ में धारा नगरी के इन दोनों भाइयों की उपस्थिति साथ-साथ अनुभव होती है। धनिक ने तो बाद में ‘काव्यनिर्णय’ ग्रंथ भी लिखा था। धनिक का पुत्र वसन्ताचार्य भी बड़ा विद्वान् था। वह भी मुञ्ज की राजसभा में सम्मानित हुआ था।
दशरूपक के समापन में धनञ्जय ने एक श्लोक लिखा है, जिसमें वे धारनरेश के प्रति अत्यंत कृतज्ञ होकर कहते हैं कि मुञ्ज की राजसभा में कुशलता को प्राप्त करने वाले
विष्णुपुत्र धनञ्जय ने पंडितों के मन को प्रसन्नता व प्रेम में बाँध लेने वाले इस दशरूपक का “आविष्कार ” किया है।
“विष्णो: सुतेनापि धनञ्जयेन विद्वन्मनोरागनिबन्धहेतु: ।
आविष्कृतं मुञ्जमहीशगोष्ठीवैदग्धभाजा दशरूपमेतत्।।”
✍🏻अत्रि विक्रमार्क अन्तर्वेदी
काव्यशास्त्र से सम्बन्धित ग्रन्थ
नाट्यशास्त्र -- भरतमुनि
काव्यप्रकाश -- मम्मट
टीकाएँ
अलंकारसर्वस्व -- रुय्यक
संकेत टीका -- माणिक्यचंद्र सूरि (रचनाकाल ११६० ई.)
दीपिका -- चंडीदास (१३वीं शती)
काव्यप्रदीप -- गोविंद ठक्कुर (१४वीं शती का अंतभाग)
सुधासागर या सुबोधिनी -- भीमसेन दीक्षित (रचनाकाल १७२३ ई.)
दीपिका -- जयंतभट्ट (रचनाकाल १२९४ ई.)
काव्यप्रकाशदर्पण -- विश्वनाथ कविराज (१४वीं शती)
विस्तारिका -- परमानंद चक्रवर्ती (१४वीं शती)
साहित्यदर्पण -- विश्वनाथ
काव्यादर्श -- दण्डी
काव्यमीमांसा -- कविराज राजशेखर (८८०-९२० ई.)
दशरूपकम् -- धनंजय
अवलोक -- धनिक (धनंजय के लघु भ्राता)
ध्वन्यालोक -- आनन्दवर्धन
लोचन -- अभिनवगुप्त (ध्वन्यालोक की टीका)
काव्यप्रकाशसंकेत -- माणिक्यचंद्र (११५९ ई)
अलंकारसर्वस्व -- राजानक रुय्यक
चंद्रालोक --अलंकारशेखर -- केशव मिश्र
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