संसद व विधानसभा में हंगामा
(अशोक त्रिपाठी-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)
महाराष्ट्र विधानसभा में भाजपा के एक दर्जन विधायकों के निलंबन पर फैसला सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने संसद व विधानसभा में हंगामे पर सारगर्भित टिप्पणी की है। सुप्रीम कोर्ट की यह टिप्पणी उन जनप्रतिनिधियों के लिए है जो अपने को कार्यपालिका और न्यायपालिका से भी श्रेष्ठ मानते हैं। उन्हंे इस बात का गुरूर होता है कि उनका चुनाव गणतंत्र के गण अर्थात् मतदाता ने किया है। ऐसे जनप्रतिनिधियों के आचरण पर सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि लोकतंत्र के इन सदनों में असहमत होने के लिए सहमत होना चाहिए का दार्शनिक सिद्धांत बहस के दौरान दिखाई नहीं पड़ता। कोर्ट ने कहा कि अब तो यह सुनना आम बात हो गयी है कि सदन अपने निर्धारित कार्य को पूरा नहीं कर सका। सदनों में शिक्षाप्रद बहसों की जगह उपहास और व्यक्तिगत हमले होते रहते हैं। मजे की बात यह कि सत्तापक्ष इसके लिए विपक्ष को और विपक्ष सत्ता पक्ष को दोषी ठहराता है। सच्चाई यह है कि हंगामे के लिए जितना सत्ता पक्ष दोषी होता है, उतना ही विपक्ष भी जिम्मेदार माना जाता है। इसलिए संसद और विधानसभाओं में हंगामा न हो, लोग रचनात्मक बहस करें इस बारे में सत्तापक्ष और विपक्ष दोनों को गंभीरता से विचार करना चाहिए।
महाराष्ट्र विधानसभा मामले में फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने संसद और विधाानसभाओं में हंगामे पर चिंता जताई है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि संसद-विधान सभा ज्यादा से ज्यादा असंवेदनशील स्थान बनते जा रहे हैं। सदन के सदस्यों का ज्यादा वक्त एक दूसरे के खिलाफ उपहास और व्यक्तिगत हमलों में बीतता है। सदस्य स्टेटसमैनशिप दिखाएं, ब्रिंकमैनशिप नहीं। जस्टिस ए एम खानविलकर, जस्टिस दिनेश माहेश्वरी और जस्टिस सीटी रविकुमार की बेंच ने 90 पेज के फैसले में कहा कि यह रेखांकित करना अनावश्यक है कि संसद के साथ-साथ राज्य विधान सभा को भी पवित्र स्थान माना जाता है, ठीक वैसे ही जैसे न्यायपालिका को न्याय का मंदिर माना जाता है। वास्तव में, पहली जगह जहां लोकतांत्रिक प्रक्रिया द्वारा आम आदमी को न्याय मिलता है, वह है संसद और विधान सभा। यह एक ऐसा स्थान है, जहां नागरिकों को शासित करने के लिए नीतियां और कानून बनाए जाते हैं। यहां अंतिम मील तक बैठी जनता से संबंधित गतिविधियों की पूरी श्रृंखला पर चर्चा की जाती है और उनकी नियति को आकार दिया जाता है।
यह अपने आप में इस देश के नागरिकों को न्याय दिलाने की प्रक्रिया है। ये ऐसे स्थान हैं जहां मजबूत और निष्पक्ष बहस और चर्चाएं होती हैं। राष्ट्र-राज्य के ज्वलंत मुद्दों को हल करने और न्याय देने के लिए सच्चाई और सही तरीके की परंपराएं होनी चाहिए। सदन में होने वाली घटनाएं समकालीन सामाजिक ताने-बाने का प्रतिबिंब हैं। बहस के दौरान सदन के सदस्यों की विचार प्रक्रिया और कार्यों में समाज का व्यवहार पैटर्न प्रकट या प्रतिबिंबित होता है।
यह सार्वजनिक डोमेन में है (प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक और सोशल मीडिया के माध्यम से) कि संसद या राज्य की विधानसभा अथवा परिषद के सदस्य अपना अधिकांश समय द्वेषपूर्ण माहौल में बिताते हैं। संसर्द-विधान सभा अधिक से अधिक असंवेदनशील स्थान बनते जा रहे हैं। किसी को असहमत होने के लिए सहमत होना चाहिए का दार्शनिक सिद्धांत, बहस के दौरान शायद ही कभी दिखाई देता है या दुर्लभ होता है। यह सुनना आम बात हो गई है कि सदन अपने सामान्य निर्धारित कार्य को पूरा नहीं कर सका। उसका अधिकांश समय प्रतिष्ठित निकाय की सर्वोच्च परंपरा के अनुरूप रचनात्मक और शिक्षाप्रद बहस की बजाय एक दूसरे के खिलाफ उपहास और व्यक्तिगत हमलों में बिताया गया। यह आम आदमी के बीच लोकप्रिय भावना है। यह पर्यवेक्षकों के लिए निराशाजनक है। वे गंभीरता से महसूस करते हैं कि यह उचित समय है कि सभी द्वारा सुधारात्मक कदम उठाए जाएं। चुने हुए प्रतिनिधि उच्चतम स्तर की बौद्धिक बहस के गौरव और मानक को बहाल करने के लिए पर्याप्त प्रयास करें। जैसा कि पूर्वजों ने इतिहास में किया है। वह विरासत बहुत बार होने वाले हुड़दंग से अधिक अहम होनी चाहिए। वाद-विवाद के दौरान आक्रामकता का कानून के शासन द्वारा शासित देश में कोई स्थान नहीं है।
यहां तक कि एक जटिल मुद्दे को भी सौहार्दपूर्ण माहौल में एक-दूसरे के प्रति पूर्ण सम्मान दिखाते हुए हल करने की आवश्यकता है। उन्हें सदन के गुणवत्तापूर्ण समय का इष्टतम उपयोग सुनिश्चित करना चाहिए, जो कि बहुत कीमती है, और समय की आवश्यकता है। खासकर जब हम भारत के लोग, जो कि भारत हैं, ग्रह पर सबसे पुरानी सभ्यता और दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने का श्रेय लेते हैं । विश्व नेता और आत्मनिर्भर बनने के लिए, सदन में बहस की गुणवत्ता उच्चतम क्रम की होनी चाहिए और देश राज्यों के आम आदमी के सामने आने वाले आंतरिक संवैधानिक और देशी मुद्दों की ओर निर्देशित होनी चाहिए, जो अभी आधे चैराहे पर हैं। हम स्वतंत्रता के बाद 75 वर्ष पूरे होने पर प्लेटिनम या हीरक जयंती वर्ष कह सकते हैं । सम्मानित और सम्माननीय सदस्यों का सदन होने के नाते, जो जिनका अनुयायियों द्वारा अनुकरण किया जाता है और अपने संबंधित निर्वाचन क्षेत्र से चुने जाते हैं, उनसे अपेक्षा की जाती है कि वे स्टेटसमैनशिप दिखाएं ब्रिंकमैनशिप नहीं। सदन में उनका लक्ष्य एक होना चाहिए, ताकि हम इस देश के लोगों का कल्याण और खुशी सुनिश्चित कर सकें। किसी भी मामले में, सदन में घोर अव्यवस्थता को छोड़कर, अव्यवस्थित आचरण के लिए कोई जगह नहीं हो सकती है। सदन के व्यवस्थित कामकाज को सुनिश्चित करने के लिए इस तरह के आचरण से सख्ती से निपटा जाना चाहिए। लेकिन, वह कार्रवाई संवैधानिक, कानूनी, तर्कसंगत और कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार होनी चाहिए। इस मामले ने सभी संबंधितों के लिए इस पर विचार करने का अवसर दिया है कि इस सम्मानित निकाय के लिए उपयुक्त प्रथाओं को विकसित करने और उनका पालन करने की आवश्यकता है और लोकतांत्रिक ढंग से चुने गए प्रतिनिधियों द्वारा सदन में अलोकतांत्रिक गतिविधियों के समर्थकों की उचित निंदा और निरुत्साहित करने की जरूरत है।
इस टिप्पणी के साथ महाराष्ट्र विधानसभा से 12 भाजपा विधायकों का एक साल के लिए निलंबन सुप्रीम कोर्ट ने रद्द कर दिया। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ये निलंबन असंवैधानिक और मनमाना है। सुप्रीम कोर्ट ने फैसले में कहा कि ये निलंबन जुलाई 21 में चल रहे मानसून सत्र के लिए ही हो सकता था। वहीं, बीजेपी ने सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले का स्वागत किया है। इससे पहले, सुप्रीम कोर्ट ने 19 जनवरी को मैराथन सुनवाई के बाद भाजपा विधायकों की याचिका पर फैसला सुरक्षित रख लिया था। सुप्रीम कोर्ट को यह तय करना था कि महाराष्ट्र विधानसभा द्वारा विधायकों का एक साल का निलंबन सही है या नहीं। शीर्ष न्यायालय ने अपना फैसला सुनाया। निलंबित किए गए 12 भाजपा विधायकों में आशीष शेलार, गिरिश महाजन, अभिमन्यु पवार, अतुल भातखलकर, नारायण कुचे, संजय कुटे, पराग अलवणी, राम सातपुते, हरीश पिंपले, जयकुमार रावल, योगेश सागर और कीर्ति कुमार बागडिया के नाम शामिल थे। (हिफी)
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