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सामाजिक न्याय पर सुप्रीम फैसला

सामाजिक न्याय पर सुप्रीम फैसला

(अशोक त्रिपाठी-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)

आर्थिक की जगह जातीय आधार पर आरक्षण का उपभोग करने वाले बैकवर्ड और अदर बैकवर्ड अर्थात ओबीसी वर्ग हैं। ओबीसी वर्ग को मिल रहे आरक्षण पर गत 20 जनवरी को सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला आया है। इस समय उत्तर प्रदेश समेत पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव की गतिविधियों को ही प्रमुखता दी जा रही है।सच कहें तो हर कोई चुनाव की खबरों में ही मशगूल रहता है। कोरोना का नया वेरिएंट तेजी से फैल रहा है लेकिन उस तरफ भी ध्यान नहीं जा रहा है। इसलिए ओबीसी आरक्षण पर सुप्रीम कोर्ट ने जो महत्वपूर्ण बात कही है, उसपर भी बहुत कम लोगों का ध्यान जाएगा। सुप्रीम कोर्ट ने सामाजिक न्याय को महत्वपूर्ण माना है। राजनीतिक दल तो वोट की राजनीति के चलते आरक्षण पर बोलना भी बारूद में चिनगारी जैसा समझते हैं। सुप्रीम कोर्ट की सलाह पर इस समय तो बड़े से लेकर छोटे राजनीतिक दल कुछ भी नहीं बोलेंगे लेकिन यह काम मतदाताओं का है कि वे चुनाव लड़ रहे राजनीतिक दलों और उनको भी जो पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव से सीधे सीधे नहीं जुड़े हैं, उनको मजबूर करें कि आरक्षण को लेकर सुप्रीम कोर्ट जो कह रहा है, उसपर उनके क्या विचार हैं। चुनाव के समय तरह तरह के लुभावने वादे करने वाले राजनीतिक दल आरक्षण की हकीकत का सामना क्यों नहीं करना चाहते?

सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि आरक्षण और मेरिट एक दूसरे के विपरीत नहीं हैं। सामाजिक न्याय के लिए आरक्षण जरूरी है। सुप्रीम कोर्ट ने मेडिकल कॉलेज में एमबीबीएस, बीडीएस और सभी पोस्ट ग्रेजुएट कोर्स में 27 फीसदी ओबीसी आरक्षण को संवैधानिक तौर पर सही ठहराया है। हालांकि कोर्ट ने ये आदेश पहले ही दिया था लेकिन 20 जनवरी को अदालत ने उस पर अपना विस्तृत फैसला सुनाया है। ओबीसी आरक्षण को अनिवार्य करने के लिए शीर्ष अदालत की तरफ से पिछले फैसले में ही तीन स्तरीय मानदंड स्थापित किया गया है। इसके तहत राज्य को पहले स्थानीय निकायों में पिछड़ेपन की प्रकृति और लागू होने की गहन जांच के लिए एक आयोग गठन करने की जरूरत है। दूसरा, पैनल की तरफ से की गई सिफारिशों पर विचार करते हुए प्रति स्थानीय निकाय में प्रस्ताव के लिए आरक्षण के अनुपात को विशेष रूप से बताना और तीसरा, ऐसा आरक्षण एससी/एसटी/ओबीसी के लिए आरक्षित कुल सीटों के 50 फीसदी से ज्यादा नहीं होना चाहिए।

सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले में सबसे अहम बात सामाजिक न्याय को लेकर कही गई है। आमतौर पर स्पेशलाइज्ड कोर्स में आरक्षण का विरोध किया जाता है। कहा जाता है कि ऐसे कोर्स में आरक्षण नहीं होना चाहिए। आरक्षण देने से मेरिट पर असर पड़ता है लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इस विचार पर अहम टिप्पणी की है। कोर्ट ने कहा है कि मेरिट और आरक्षण एक दूसरे के विपरीत नहीं हैं। दरअसल आरक्षण सामाजिक न्याय के लिए जरूरी है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि जहां कहीं भी कंपटीशन या एग्जाम से दाखिला होता है, उसमें सामाजिक और आर्थिक पिछड़ेपन को नहीं देखा जाता है। कुछ समुदाय आर्थिक और सामाजिक तौर पर आगे होते हैं। एग्जाम में इस बात को नहीं देखा जाता। इसलिए मेरिट को सामाजिक ताने बाने के साथ देखा जाना चाहिए।

एक अन्य मामले में सुप्रीम कोर्ट ने गत 19 जनवरी को महाराष्ट्र सरकार को निर्देश दिया था कि वह अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) से संबंधित आंकड़े अन्य पिछड़ा वर्ग आयोग के समक्ष पेश करे ताकि इनकी सत्यता की जांच की जा सके और वह स्थानीय निकायों के चुनावों में उनके प्रतिनिधित्व पर सिफारिशें कर सके। शीर्ष अदालत ने राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग (एसबीसीसी) को यह निर्देश दिया कि वह राज्य सरकार से सूचना मिलने के दो हफ्ते के अंदर संबंधित प्राधिकारियों को अपनी अंतरिम रिपोर्ट सौंपे। जस्टिस ए एम खानविलकर, जस्टिस दिनेश माहेश्वरी और जस्टिस सीटी रविकुमार की तीन सदस्यीय पीठ ने कहा, ‘महाराष्ट्र ने इस अदालत से अन्य पिछड़े वर्गों के संबंध में राज्य के पास पहले से उपलब्ध आंकड़ों के आधार पर चुनाव की अनुमति देने के लिए कहा है। आंकड़ों की जांच करने की बजाय इन आंकड़ों को राज्य द्वारा नियुक्त आयोग के समक्ष प्रस्तुत करना उचित कदम होगा जो इनकी सत्यता की जांच कर सकता है।’पीठ ने कहा, ‘अगर वह उचित समझे तो राज्य को सिफारिशें करें जिसके आधार पर राज्य या राज्य चुनाव आयोग आगे कदम उठा सकता है। राज्य सरकार से सूचना/आंकड़े प्राप्त होने के दो हफ्ते के भीतर संबंधित प्राधिकारियों को अगर सलाह दी जाती है तो आयोग अपनी अंतरिम रिपोर्ट दे सकता है.’ हालांकि शीर्ष अदालत ने स्पष्ट किया कि सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों के संबंध में राज्य सरकार की ओर से तैयार की जाने वाली सूची केंद्र द्वारा की गई जनगणना से अलग होगी। पीठ ने कहा, ‘राज्य उपलब्ध जानकारी और आंकड़े संबंधित आयोग के समक्ष पेश कर सकता है जो इसकी प्रभावशीलता के बारे में निर्णय ले सकता है और राज्य सरकार को आवश्यकतानुसार सिफारिशें कर सकता है। यह स्पष्ट रूप से ओबीसी श्रेणी के लिए स्थानीय निकायों में सीटों का आरक्षण देने से पहले तीन स्तरीय जांच की कवायद को पूरा नहीं करेगा जो (2010 के फैसले के अनुसार) पूरी की जानी चाहिए थी। शीर्ष अदालत ने कहा कि यह टिप्पणी उन विभिन्न राज्यों में लागू होगी जहां स्थानीय चुनाव होने हैं। उसने कहा कि जब तक तीन स्तरीय जांच पूरी नहीं होगी तब तक इन सीटों को सामान्य श्रेणी का माना जाएगा।

इसी संदर्भ में महाराष्ट्र की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता शेखर नफड़े ने कहा था कि राज्य के पास कुछ आंकड़े हैं, जिनके आधार पर आरक्षण कायम रखा जा सकता है। उन्होंने कहा कि मार्च में चुनाव हैं और आंकड़ें आयोग के पास पहले से ही हैं। उन्होंने कहा कि आयोग से दो हफ्ते में रिपोर्ट देने के लिए कहा जा सकता है, ताकि सरकार मार्च में होने वाले चुनाव पर काम कर सके। उन्होंने कहा अन्यथा समुदाय का बड़ा वर्ग प्रतिनिधित्व से वंचित रह सकता है। इससे पूर्व सुप्रीम कोर्ट ने 7 जनवरी 2022 को एनईईटी पीजी में आरक्षण के मुद्दे पर फैसला सुनाया था। कोर्ट ने ऑल इंडिया कोटे में 10 फीसदी ईडब्ल्यूएस यानी आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग को और 27 फीसदी ओबीसी कोटे को बरकरार रखने का आदेश दिया था। सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बाद नीट पीजी की काउंसिलिंग का रास्ता साफ हो गया। इसको लेकर लंबे समय से डॉक्टर प्रदर्शन कर रहे थे। केंद्र सरकार द्वारा काउंसिलिंग शुरू करने का आश्वासन देने के बाद डॉक्टरों की तरफ से विरोध प्रदर्शन समाप्त किया गया। इसके बाद 6 जनवरी को कोर्ट ने इस मामले की सुनवाई करते हुए अपना फैसला सुरक्षित रख लिया था। इस दौरान कोर्ट ने यह भी कहा था कि देश के हित में काउंसिलिंग शुरू होना जरूरी है।अपने फैसले में कोर्ट ने कहा कि इस सत्र के लिए ईडबल्यूएस की आय सीमा 8 लाख रुपए में किसी तरह का बदलाव नहीं किया जाएगा। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ईडबल्यूएस की आय सीमा की समीक्षा के लिए बनाई गई पांडेय कमेटी की रिपोर्ट पर मार्च के तीसरे सप्ताह में सुनवाई होगी, यानी कि अगले सत्र से ईडबल्यूएस कोटे के लिए क्या आय सीमा होगी, ये मार्च में तय होगा। (हिफी)
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