सभी संकटों को दूर करती है सकट चौथ
(पं. आर.एस. द्विवेदी-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)
हिंदू धर्म में सकट चैथ का विशेष महत्व है। पंचांग के अनुसार माघ माह के कृष्ण पक्ष की तृतीया तिथि को सकट चैथ के रूप में मनाया जाता है। इस बार सकट चैथ 21 जनवरी 2022 को है। इसे संकटा चैथ, संकष्टी और तिलकुट चैथ आदि नामों से जाना जाता है। इस दिन महिलाएं निर्जला व्रत रखती हैं और अपनी संतान की लंबी आयु और खुशहाल जीवन के लिए कामना करती हैं। यह पर्व भगवान गणेश को समर्पित होता है। इस दिन भगवान गणेश की विधि-विधान से पूजा की जाती है और तिल के लड्डू चढ़ाए जाते हैं।
सकट चैथ के दिन महिलाएं निर्जला व्रत रखती हैं और अपनी संतान की लंबी आयु और खुशहाल जीवन के लिए कामना करती हैं। यह पर्व भगवान गणेश को समर्पित होता है। इस दिन भगवान गणेश की विधि-विधान से पूजा की जाती है और तिल के लड्डू चढ़ाए जाते हैं। सकट चैथ का व्रत संतान की दीर्घायु और खुशहाल जीवन की कामना के लिए रखा जाता है। इसे संकट हरने वाली गणेश चतुर्थी भी माना जाता है। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार सकट चैथ के दिन भगवान गणेश की पूजा के बाद शाम को चंद्रमा को अर्घ्य देकर ही व्रत तोड़ा जाता है। इस दिन चन्द्रमा को दूध में शहद, रोली, चंदन और रोली डालकर अर्घ्घ्य देना चाहिए।
माघ मास की चतुर्थी तिथि को मनाया जाता है संकष्ठी चतुर्थी व्रत। इसे तिल चतुर्थी या माघी चतुर्थी भी कहा जाता है। इस दिन महिलाएं अपने बेटे की लंबी आयु की कामना के लिए निर्जला व्रत रखती हैं। इस दिन भगवान गणेश और चंद्रमा की उपासना की जाती है। कहते हैं कि इस दिन व्रत रखने से रिद्धि-सिद्धि तो मिलती है साथ ही जीवन में आने वाले संकट भी दूर होते हैं।
इस व्रत में भगवान श्रीगणेश और माता पार्वती की पूजा की जाती है। गणेश जी की कथा सुनी जाती है और चंद्रमा को अर्ध्य दिया जाता है। इस व्रत की पूजा में तिल और गुड़ के बने हुए लड्डु, गुड़ और घी भगवान गणेश जी को अर्पित किया जाता है। इस दिन लितकूट का भोग भगवान को लगाया जाता है। कई जगह तिलकूट का पहाड़ बनाया जाता है। इसके अलावा कई जगह तिल को बकरे की आकृति में बनाया जाता है और उसे काटा जाता है।
पौराणिक कथा के अनुसार, एक बार मां पार्वती स्नान करने के लिए गयी अपने पुत्र गणेश जी को पहरेदार के रुप में दरवाजे पर खड़ा कर दिया और बताया कि जब तक मैं स्नान करके वापस न आऊं तब तक किसी को अन्दर प्रवेश मत करने देना। उसी समय शिव जी पार्वती जी से मिलने आते है। गणेश जी उन्हें दरवाजे के भीतर न जाने के लिए कहते हैं। गणेश जी के द्वारा बार-बार शिव जी को मना करने पर शिव जी को क्रोध आ जाता है और अपना त्रिशूल गणेश जी पर चला देते हैं। इससे गणेश जी की गर्दन कट कर दूर जा गिरती है। तेज आवाजें सुनकर स्नान निपटाकर माता पार्वती बाहर आकर देखती हैं तो अपने पुत्र की गर्दन कटी देखकर विलाप करने लगती है। शिव जी से गणेश जी को पुनः जीवित करने का आग्रह करती है। शिव जी गणेश भगवान के सिर की जगह हाथी के बच्चे का सिर लगाकर जीवित कर देते है। मां पार्वती जी के जीवन में पुनः खुशी आ जाती है। तभी से महिलायें अपने बच्चों के कल्याण के लिए सकट व्रत रखती हैं। सकट चैथ यानी संकष्ट चतुर्थी से संबंधित कई कथाएं प्रचलित हैं, जिसमें गणेश जी का अपने माता-पिता की परिक्रमा करने वाली कथा, नदी किनारे भगवान शिव और माता पार्वती की चैपड़ खेलने वाली कथा, कुम्हार का एक महिला के बच्चे को मिट्टी के बर्तनों के साथ आग में जलाने वाली कथा प्रमुख रूप से शामिल है। आज आपको सकट चैथ पर तिलकुट से संबंधित गणेश जी की एक कथा के बारे में बताते हैं।
एक समय की बात है। एक नगर में एक साहूकार अपनी पत्नी के साथ रहता था। वे दोनों पूजा पाठ, दान आदि नहीं करते थे। एक दिन साहूकारनी अपने पड़ोसन के घर गई। वहां वह पूजा कर रही थी। उस दिन सकट चैथ थी। साहूकारनी ने पड़ोसन ने सकट चैथ के बारे में पूछा, तो उसने बताया कि आज वह सकट चैथ का व्रत है। इस वजह से गणेश जी की पूजा कर रही है। साहूकारनी ने उससे सकट चैथ व्रत के लाभ के बारे में जानना चाहा। तो पड़ोसन ने कहा कि गणेश जी की कृपा से व्यक्ति को पुत्र, धन-धान्य, सुहाग, सबकुछ प्राप्त होता है। इस पर साहूकारनी ने कहा कि वह मां बनती है तो सवा सेर तिलकुट करेगी और सकट चैथ व्रत रखेगी। गणेश जी ने उसकी मनोकामना पूर्ण कर दी। वह गर्भवती हो गई। अब साहूकारनी की लालसा बढ़ गई। उसने कहा कि उसे बेटा हुआ तो ढाई सेर तिलकुट करेगी। गणेश जी की कृपा से उसे पुत्र हुआ। तब उसने कहा कि यदि उसके बेटे का विवाह हो जाता है, तो वह सवा पांच सेर तिलकुट करेगी।
गणेश जी के आशीर्वाद से उसके लड़के का विवाह भी तय हो गया, लेकिन साहूकारनी ने कभी भी न सकट व्रत रखा और न ही तिलकुट किया। साहूकारनी के इस आचरण पर गणेश जी ने उसे सबक सिखाने की सोची। जब उसके लड़के का विवाह हो रहा था, तब गणेश जी ने अपनी माया से उसे पीपल के पेड़ पर बैठा दिया। अब सभी लोग वर को खोजने लगे। वर न मिलने से विवाह नहीं हुआ। एक दिन साहूकारनी की होने वाली बहू सहेलियों संग दूर्वा लाने जंगल गई थी। उसी समय पीपल के पेड़ पर बैठे साहूकारनी के बेटे ने आवाज लगाई ‘ओ मेरी अर्धब्याही’। यह सुनकर सभी युवतियां डर गईं और भागकर घर आ गईं। उस युवती ने सारी घटना मां को बताई। तब वे सब उसे पेड़ के पास पहुंचे। युवती की मां ने देखा कि उस पर तो उसका होने वाला दामाद बैठा है। उसने यहां बैठने का कारण पूछा, तो उसने अपनी मां की गलती बताई। उसने तिलकुट करने और सकट व्रत रखने का वचन दिया था लेकिन उसे पूरा नहीं किया। सकट देव नाराज हैं। उन्होंने ही इस स्थान पर उसे बैठा दिया है। यह बात सुनकर उस युवती की मां साहूकारनी के पास गई और उसे सारी बात बताई। तब उसे अपनी गलती का एहसास हुआ। तब उसने कहा कि हे सकट महाराज! उसका बेटा घर आ जाएगा तो ढाई मन का तिलकुट करेगी। गणेश जी ने उसे फिर एक मौका दिया। लड़का घर आ गया और उसका विवाह पूर्ण हुआ। उसके बाद साहूकारनी ने ढाई मन का तिलकुट किया और सकट व्रत रखा। उसने कहा कि हे सकट देव! आपकी महिमा समझ गई हूं, आपकी घ्कृपा से ही उसकी संतान सुरक्षित है। अब मैं सदैव तिलकुट करूंगी और सकट चैथ का व्रत रहूंगी। इसके बाद से उस नगर में सकट चैथ का व्रत और तिलकुट धूमधाम से होने लगा। (हिफी)
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