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जब कभी सोचता हूँ

जब कभी सोचता हूँ

कविता लिखना
भाव नहीं आते हैं,
गहरे समंदर मे,
सीप के मोती से
कहीं खो जाते हैं।
कभी-कभी अचानक
कविता
मेरे जहन मे मचल जाती है,
मन आतुर कर जाती है।
यदि तुरंत ही विचारों को
लेखनी से नहीं बांधा,
तो
लहर के सामान आकर,
फिर वापस चली जाती है।
कविता
बड़ी चंचला है।
कविता मन के जंगल मे
हिरणी सी कुलाचें भरती,
कभी कोयल सी कूकती,
तो कभी फुदकती
मन के आँगन मे
सोन चिरैया सी।
कविता
तभी कविता बन पाती
जब मन के आँगन मे
फुदकते भावों को
लेखनी से
कागज पर कैद करता हूँ।
मैं जानता हूँ
कैद करने से
आज़ादी ख़त्म हो जाती है।
पर
कविता की आज़ादी
शायद
लेखनी मे बंध कर ही
नया जीवन पाती है।
कविता
मेरे पन्नों मे सिमट जाती है,
फिर कविता,
किताब मे छप कर
जीवन्त हो जाती है।
कविता
वात्सल्य बन जाती है।
कविता
प्रेरणा बन जाती है।

डॉ अ कीर्तिवर्धन
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