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इंडिया नाम बदलकर भारत करने का उचित समय-अशोक “प्रवृद्ध

इंडिया नाम बदलकर भारत करने का उचित समय-अशोक “प्रवृद्ध”

देश के कई शहरों व प्रदेशों के नाम परिवर्तित कर पारम्परिक नामों में बदले जाने के पश्चात क्या ऐसा नहीं लगता कि अब देश का नाम भी इंडिया से बदलकर भारत कर देने का उचित समय आ गया है? विभाजित भारत का कोई हिस्सा अब ऐसा नहीं रह गया है, जो अब ब्रिटिश शासकों द्वारा दिए गए नाम अर्थात अंग्रेजों वाले समय के नाम से जाना जाता हो। ऐसे में क्या यह उचित नहीं कि देश का नाम भी सुधार के पारम्परिक कर लिया जाए? अपने अस्तित्व, अपनी सही पहचान और देश की गौरवमयी भावना को समझने, आत्मसात करने और सत्य को स्वीकार करने के लिए विदेशी आक्रांताओं और शासकों द्वारा जबरन थोपे अथवा दिए गए नामों को हटा कर अपने सहज नाम अपनाने की प्रक्रिया स्वागत योग्य है, परन्तु दुखद, खेदजनक व क्षोभनाक बात यह है कि स्वयं देश को अब तक इस तरह से संस्कारित नहीं किया जा सका है। और हम विगत सात दशक से इंडिया रूपी विजातीय नाम ढोये जा रहे हैं, जबकि कई राष्ट्रचिंतकों, साहित्यकारों, और राजनीतिज्ञों ने विभाजन पूर्व और विभजित भारत के शासकों को इसका उलाहना देते हुए देश का नाम परिवर्तित कर भारतवर्ष करने का सुझाव दिया है। देश के जिन नेताओं ने त्रिवेन्द्रम को तिरुअनंतपुरम, अथवा सेंट्रल असेंबली को लोक सभा, कर्जन रोड को कस्तूरबा गाँधी मार्ग, या फिर कनॉट प्लेस को बदल कर राजीव चौक नामांकित करना जरूरी समझा, उन्होंने भी देश के प्राचीन गौरवमयी नाम को स्वीकार करना जरुरी नहीं समझा, जबकि उन्हें सबसे पहले इंडिया शब्द को बदलकर भारतवर्ष करना चाहिए था। यह इसलिए भी आवश्यक था, क्योंकि भारत अथवा भारतवर्ष शब्द देश के सभी भाषाओं में प्रयोग में रहा है। अतः इसे पुनर्स्थापित करने में किसी क्षेत्र को कोई आपत्ति भी नहीं होगी। दासता के प्रतीक त्रिवेंद्रम, मद्रास, बोम्बे, कैलकटा, आदि का नाम बदलना देश के सही नामांकन के लिए एकदम उपयुक्त कदम है। इंडिया शब्द भी भारत पर ब्रिटेन के औपनिवेशिक शासन को स्मरण कराकर दिल को कचोटता है। यह भी सत्य है कि इंडिया शब्द का प्रथम प्रयोग किसी आधिकारिक नाम में व्यापार करने के उद्देश्य से भारत आई ईस्ट इंडिया कंपनी में हुआ था। उस समय यहाँ के लोग इसे भारतवर्ष या हिन्दुस्तान कहते थे। इसलिए उस विदेशी कंपनी और ब्रिटिश राज की समाप्ति के पश्चात देश का नाम पुनर्स्थापित करना आवश्यक था, लेकिन खेदजनक स्थिति यह है कि ऐसा न हो सका, और हम आज भी विदेशी दासता के प्रतीक को ढोए जा रहे हैं।
उल्लेखनीय है कि नाम अथवा शब्द का अत्यंत महत्व होता है । स्थानों, नगरों, राज्यों अथवा देश का नाम अथवा उनका नाम बदलना सांस्कृतिक, राजनीतिक और गौरवमयी महत्व रखता है। यही कारण है कि ब्रिटिश शासकों ने इस देश पर कब्ज़ा करने के बाद यहाँ के लोगों को मानसिक दासता में बाँधने के लिए देश का नाम भारतवर्ष से बदलकर इंडिया कर दिया। अपने औपनिवेशिक देशों में कई जगह ब्रिटिश शासकों ने ऐसा किया। अन्य कारणों से भी कई स्थानों के नाम बदले गये, परन्तु वहां के लोगों ने स्वाधीनता प्राप्त करने के बाद अपने पारम्परिक नामों को अपना लिया। कम्युनिस्ट राज के समाप्त होते ही रूस में लेनिनग्राड को पुनः पूर्ववत सेंट पीटर्सबर्ग, स्तालिनग्राड को वोल्गोग्राद आदि किया गया। पोलैंड ने अपना नाम बदल कर पोलस्का किया। ग्रेट ब्रिटेन ने भी अपनी संज्ञा बदलकर यूनाइटेड किंगडम कर लिया।इस प्रकार स्पष्ट है कि देश के नाम को पुनर्स्थापित करना सिर्फ भावना की बात नहीं, वरन इन परिवर्तनों में भावना से भी अधिक गहरे कारण रहे हैं। शब्द व नाम की महता को इस बात से समझा जा सकता है कि मुहम्मदी बनते अर्थात मुसलमान होते ही सबसे पहले उनका नाम बदला जाता है, और फिर नाम से ही पूरी पहचान बनती बदलती है।
भारतवासियों में अतिप्राचीन काल से ही प्रचलित नवजात शिशु के नामकरण संस्कार नामक महत्वपूर्ण विधान से नामकरण की महता का पता चलता है। सिर्फ व्यक्तियों की ही बात नहीं, वरण समुदाय और राष्ट्र के लिए भी नाम का अत्यंत विशिष्ट महत्व है। अगर ऐसा नही होता तो पचहतर वर्ष पूर्व मुस्लिम लीग के पृथक देश की मांग पर अलग होकर बने देश का नाम पाकिस्तान क्यूँ रखा गया? जिस तरह जर्मनी, कोरिया, यमन आदि देश के विभाजनों पर उनका नाम पूर्वी जर्मनी, पश्चिमी जर्मनी, उत्तरी कोरिया और दक्षिणी कोरिया आदि रखा गया, उसी तरह पश्चिनी भारत अथवा पश्चिमी हिन्दुस्तान रखा जा सकता था, लेकिन उन्होंने इससे भिन्न, बिलकुल अलग मजहबीय नाम पकिस्तान रखा। इस मजहबीय नाम रखे जाने की पीछे एक पहचान त्यागने और दूसरी को अपनाने की चाहत ही मुख्य थी । स्वयं को मुगलों का उतराधिकारी मानते हुए भी उन्होंने मुगलों के द्वारा प्रदत्त नाम अथवा शब्द हिन्दुस्तान को भी नहीं अपनाया। आखिर क्यों?
शब्द कोई निर्जीव वस्तु नहीं वरण यह सजीव है। प्रत्येक शब्द किसी भाषा, समाज और संस्कृति की थाती होती है। शब्द रुपी संग्रहालय में किसी समाज की हजारों वर्ष पुरानी पंरपरा, स्मृति और ज्ञान संघनित रहता है। भारत वैसा ही एक गौरवशाली शब्द है। इसलिए जब कोई एक भाषा या शब्द त्यागता है, तो जाने-अनजाने उस के पीछे की पूरी परंपरा ही छोड़ देता है। यही कारण है कि श्रीलंका ने सीलोन को त्याग कर औपनिवेशिक दासता के अवशेष से मुक्ति पाई। हमारे देश भारत में ही मराठाओं ने बम्बई शब्द को त्याग मुंबई अपना कर मुंबा देवी से जुड़ी अपनी भूमि को पुनः संस्कारित कर लिया। इसमें कोई शक नहीं कि भारतवर्ष विभाजन के बाद हमारे राष्ट्रीय नेताओं के द्वारा देश का नाम इंडिया रहने देकर एक बड़ी भूल की गई है, जिससे स्वतंत्र भारत में भारी तबाही हुई है। यदि देश का नाम भारत या हिन्दुस्तान हो जाता तो यहाँ के मुसलमान भी स्वयं को भारतीय मुसलमान अथवा हिन्दुस्तानी मुसलमान कहते। इन्हें अरब देशों में अभी भी हिन्दवी या हिन्दू मुसलमान ही कहा जाता है। भारत से ही कटकर बने पाकिस्तान में तो इन्हें अर्थात भारतीय मुसलमानों को आज भी मुहाजिर अर्थात अपने देश को छोड़कर दूसरे देश में बसने वाले के रूप में ही समझा और संज्ञायित किया जाता है। यूरोपीय भी सदैव भारतवासियों को हिन्दू ही कहते रहे हैं और आज भी कहते हैं। यही हमारी वास्तविक पहचान है, जिस से मुसलमान भी जुड़े थे और जुड़े रहते, यदि हमने अपना नाम सही कर लिया होता। हिन्दू या हिन्दवी शब्द में कोई अंतर नहीं है। इसलिए अगर देश का नाम भारत अथवा हिन्दुस्तान कर दिया जाए तो यह इस भूमि की सभ्यता- संस्कृति में स्वतः ही लोगों को सम्बद्ध करता रहेगा। इस एक शब्द इंडिया ने भारत में बड़ी भयंकर तबाही मचाते हुए इंडियन और हिन्दू को अलग कर दिया। और आज स्थिति यह है कि इसने इंडियन को हिन्दू से बड़ा बना दिया है। यही कारण है कि आज सेक्यूलरिज्म, डाइवर्सिटी, इन्क्लूसिवनेस, आदि की लफ्फाजी करने वाले अपनी गाल बजाते हुए फूले नहीं समाते। और देश का नाम भारत या हिन्दुस्तान करने का प्रयास किये जाते अथवा नाम लेते ही ये छद्म धर्म निरपेक्षता के अलम्बरदार सेक्यूलर-वामपंथी बुद्धिजीवी, एक्टिविस्ट और पत्रकार कडा विरोध करने लगते हैं। उन्हें भारतीयता और हिन्दू शब्द और इनके भाव से पुरानी व स्थायी शत्रुता है। इसीलिए चाहे उन्होंने कैलकटा, बांबे, बैंगलोर, आदि बदलने का विरोध न किया, परन्तु इंडिया नाम बदलने के प्रस्ताव पर वे चुप नहीं बैठेंगे। यह इसका एक और प्रमाण होगा कि नामों के पीछे कितनी बड़ी सांस्कृतिक, राजनीतिक मनोभावनाएं रहती हैं?
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