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स्वामी विवेकानंद की यात्रा

स्वामी विवेकानंद की यात्रा


संकलन अश्विनीकुमार तिवारी
स्वामी विवेकानंद की यात्रा की बात आते ही फ़ौरन उनकी अमेरिका यात्रा और शिकागो के भाषण की याद तो आती है, मगर भारत में वो जिन मंदिरों में भ्रमण करते रहे, उनके बारे में चर्चा थोड़ी कम होती है। जम्मू-कश्मीर का क्षीर भवानी मंदिर वैसे मंदिरों में से है, जहाँ उनके जाने का जिक्र आता है। जम्मू कश्मीर के इतिहास के लिए जानी जाने वाली प्रसिद्ध, कल्हण की राजतरंगिनी में भी इस मंदिर की चर्चा है और काफी बाद में किसी अबुल फज़ल नाम के लिखने वाले ने भी तुलमुल में स्थित इस मंदिर का जिक्र किया है। इस मंदिर की कहानी भी रोचक है।
ऐसा माना जाता है कि रावण की तपस्या के कारण देवी के वरदान से उनकी स्थापना लंका में हुई थी। बाद में रावण के उत्पातों से देवी दुखी हुईं और उन्होंने हनुमान से कहा कि उन्हें लंका से ले जाकर जम्मू-कश्मीर में स्थापित कर दें। देवी के हमेशा एक से अधिक नाम प्रचलित होते हैं। वैसे ही, लंका में जहाँ इन्हें “श्यामा” नाम से जाना जाता है, वहीँ जम्मू-कश्मीर आकर देवी राज्ञी कभी कभार त्रिपुरसुन्दरी के नाम से भी जानी जाती हैं। अक्सर जैसा शाक्त परम्पराओं में होता है, उससे थोड़ा अलग, यहाँ स्थापित देवी का वैष्णव रूप होता है।
यहाँ स्थित झील के बारे में ऐसा माना जाता है कि उसका रंग बदलता रहता है। कुछ ब्रिटिश पर्यवेक्षकों ने कभी इसका रंग बैंगनी सी आभा वाला बताया है। स्थानीय लोग मानते हैं कि 1989 में जम्मू-कश्मीर में हुए हिन्दुओं के नरसंहार के वक्त इसका पानी मटमैला सा हो गया था। अभी मंदिर का भवन दिखता है वो जम्मू-कश्मीर के इलाके के महाराजा प्रताप सिंह ने 1912-20 के बीच बनवाया था। ऐसा माना जाता है कि उस समय भी यहाँ कुछ और कलाकृतियों-मूर्तियों वाले पत्थर मिले थे, लेकिन उसके पहले कोई बड़ा मंदिर था, ऐसा नहीं लगता।
परंपरागत रूप से ज्येष्ठ अष्टमी को यहाँ श्रद्धालुओं की विशेष भीड़ होती है। इस वर्ष संभवतः ऐसा नहीं होगा। फिर भी कई काले कानूनों और आक्रमणकारियों से ये क्षेत्र अब पहले से ज्यादा सुरक्षित है ये संतोष तो रहता है!
✍🏻आनन्द कुमार
यहुदियों ने सारी दुनिया में अपने नरसंहार के स्मारक बनवाए, आने वाली पीढ़ियों को उनका इतिहास बताया उस उत्पीड़न के सीख के तौर पर यहुदी राष्ट्र की नींव रखी।
यहां कोई पूछे 30 साल पहले 19 जनवरी के दिन 1990 को क्या हुआ था। किसी को याद ही नहीं, ऐसा भूले जैसे ये कभी हुआ ही नहीं और सेक्युलर वोटबैंक बनाए रखने के लिए जरूरी है कि किसी को पता भी न चले, क्यों हुआ, कैसे हुआ, किसने किया।
✍🏻अविनाश
माँ सरस्वती का निवास: शारदा देश कश्मीर और ‘सर्वज्ञ पीठ’ की धरोहर
कश्मीर में जिस मंदिर के द्वार कभी आदि शंकर के लिए खुले थे आज उसके भग्नावशेष ही बचे हैं।
हम प्रतिवर्ष वसंत पंचमी और नवरात्र में माँ सरस्वती की वंदना शंकराचार्य द्वारा रची गई स्तुति से करते हैं लेकिन उस सर्वज्ञ पीठ को भूल गए हैं जिसपर कभी आदि शंकर विराजे थे।
देश की चारों दिशाओं में चार मठ स्थापित करने तथा आचार्य गौड़पाद में महाविष्णु के दर्शन करने के पश्चात आदि शंकर को माँ सरस्वती की कृपा प्राप्त हुई थी।
विद्यारण्य कृत ‘शंकर दिग्विजय’ ग्रंथ में वर्णित कथा के अनुसार शंकर अपने शिष्यों के साथ गंगा किनारे बैठे थे तभी किसी ने समाचार दिया कि विश्व में जम्बूद्वीप, जम्बूद्वीप में भारत और भारत में काश्मीर सबसे प्रसिद्ध स्थान है जहाँ शारदा देवी का वास है।
उस क्षेत्र में माँ शारदा को समर्पित एक मंदिर है जिसके चार द्वार हैं।
मंदिर के भीतर ‘सर्वज्ञ पीठ’ है। उस पीठ पर वही आसीन हो सकता है जो ‘सर्वज्ञ’ अर्थात सबसे बड़ा ज्ञानी हो।
उस समय माँ शारदा के उस मंदिर के चार द्वार थे जो चारों दिशाओं में खुलते थे।
पूर्व, पश्चिम और उत्तर दिशा से आए विद्वानों के लिए तीन द्वार खुल चुके थे किंतु दक्षिण दिशा की ओर से कोई विद्वान आया नहीं था इसलिए वह द्वार बंद था। आदि शंकर ने जब यह सुना तो वे शारदा मंदिर के सर्वज्ञ पीठ के दक्षिणी द्वार के लिए निकल पड़े।
शंकर जब काश्मीर पहुँचे तब वहाँ उन्हें अनेक विद्वानों ने घेर लिया।
उन विद्वानों में न्याय दर्शन, सांख्य दर्शन, बौद्ध एवं जैनी मतावलंबी समेत कई विषयों के ज्ञाता थे।
शंकर ने सभी को अपनी तर्कशक्ति और मेधा से परास्त किया तत्पश्चात मंदिर का दक्षिणी द्वार खुला और आदि शंकर पद्मपाद का हाथ पकड़े हुए सर्वज्ञ पीठ की ओर बढ़ चले। तभी माँ सरस्वती ने शंकर की परीक्षा लेने के लिए उनसे कहा, “तुम अपवित्र हो।
एक सन्यासी होकर भी काम विद्या सीखने के लिए तुमने एक स्त्री संग संभोग किया था। इसलिए तुम सर्वज्ञ पीठ पर नहीं बैठ सकते।”
तब शंकर से कहा, “माँ मैंने जन्म से लेकर आजतक इस शरीर द्वारा कोई पाप नहीं किया।
दूसरे शरीर द्वारा किए गए कर्मों का प्रभाव मेरे इस शरीर नहीं पड़ता।”
यह सुनकर माँ शारदा शांत हो गईं और आदि शंकर सर्वज्ञ पीठ पर विराजमान हुए।
माँ सरस्वती का आशीर्वाद प्राप्त कर शंकर की कीर्ति चहुँओर फैली और वे शंकराचार्य कहलाए।
आदि शंकराचार्य ने माँ सरस्वती की वंदना में स्तुति की रचना की जो आज प्रत्येक छात्र की वाणी को अलंकृत करती है- “नमस्ते शारदे देवि काश्मीरपुर वासिनी, त्वामहं प्रार्थये नित्यं विद्यादानं च देहि मे।”
कश्मीर में जिस मंदिर के द्वार कभी आदि शंकर के लिए खुले थे आज उसके भग्नावशेष ही बचे हैं।
हम प्रतिवर्ष वसंत पंचमी और नवरात्र में माँ सरस्वती की वंदना शंकराचार्य द्वारा रची गई स्तुति से करते हैं लेकिन उस सर्वज्ञ पीठ को भूल गए हैं जिसपर कभी आदि शंकर विराजे थे।
शारदा पीठ देवी के 18 महाशक्ति पीठों में से एक है। आज वह शारदा पीठ पाकिस्तान अधिकृत जम्मू-कश्मीर में है और वहाँ जाने की अनुमति किसी को नहीं है।
कश्मीर के रहने वाले एक मुसलमान डॉ अयाज़ रसूल नाज़की अपने रिश्तेदारों से मिलने पाक अधिकृत कश्मीर स्थित मुज़फ्फ़राबाद कई बार गए।
अंतिम बार जब वे 2007 में गए थे तब उन्होंने शारदा पीठ जाने की ठानी।
डॉ नाज़की की माँ के पूर्वज हिन्दू थे इसलिए वे अपनी जड़ों को खोजने शारदा पीठ गए थे।
गत 60 वर्षों में वे पहले और अंतिम भारतीय कश्मीरी थे जो शारदा पीठ गए थे।
एक समय ऐसा भी था जब बैसाखी पर कश्मीरी पंडित और पूरे भारत से लोग तीर्थाटन करने शारदा पीठ जाते थे।
आज वह शारदा पीठ उस क्षेत्र में है जिसे पाकिस्तान आज़ाद कश्मीर कहता है।
आज़ाद कश्मीर मीरपुर मुज़फ्फ़राबाद का क्षेत्र है जो जम्मू कश्मीर राज्य का अंग है।
मुज़फ्फ़राबाद झेलम और किशनगंगा नदियों के संगम पर बसा छोटा सा नगर है। किशनगंगा के तट पर ही शारदा तहसील में शारदा गाँव स्थित है। वहाँ आज शारदा विश्वविद्यालय के अवशेष ही दिखाई पड़ते हैं। कनिष्क के राज में यह समूचे सेंट्रल एशिया का सबसे बड़ा ज्ञान का केंद्र था।
वस्तुतः कश्मीर की ख्याति ही ‘शारदा प्रदेश’ के नाम से थी। आर्थर लेवलिन बैशम ने अपनी पुस्तक ‘वंडर दैट वाज़ इण्डिया’ में लिखा है कि बच्चे अपने उपनयन संस्कार के समय ‘कश्मीर गच्छामि’ कहते थे जिसका अर्थ था कि अब वे उच्च शिक्षा हेतु कश्मीर जाने वाले हैं।
कश्मीर के शंकराचार्य के समकक्ष आदर प्राप्त आचार्य अभिनवगुप्त ने लिखा है कि कश्मीर में स्थान-स्थान पर ऋषियों की कुटियाँ थीं और पग-पग पर भगवान शिव का वास था।
शारदा पीठ का उल्लेख सर्वप्रथम नीलमत पुराण में मिलता है। इसके अतिरिक्त कल्हण ने राजतरंगिणी में लिखा है कि सम्राट ललितादित्य के समय में शारदा विश्वविद्यालय में बंगाल के गौड़ समुदाय के लोग शारदा पीठ आते थे।
संस्कृत समूचे कश्मीर की भाषा थी और शारदा विश्वविद्यालय में 14 विषयों की पढ़ाई होती थी। शारदा विश्वविद्यालय में ही देवनागरी से भिन्न शारदा लिपि का जन्म हुआ था।
डॉ अयाज़ रसूल नाज़की ने Cultural Heritage of Kashmiri Pandits नामक पुस्तक में प्रकाशित अपने लेख में ‘सारिका’ या ‘शारदा’ की लोक प्रचलित कहानी लिखी है।
हुआ यह कि एक बार कश्मीर में रहने वालों की वाणी चली गई। कोई न कुछ बोल सकता था न व्यक्त कर सकता था।
आवाज़ चली जाने से लोग दु:खी और परेशान थे।
तब सबने मिलकर हरि पर्वत पहाड़ी पर जाने का निश्चय किया।
वहाँ पहुँच कर सबने भगवान से प्रार्थना की।
तभी एक बड़ी सी मैना आई और उस चिड़िया ने अपनी चोंच से पत्थरों पर खोए हुए अक्षरों को लिखना प्रारंभ किया।
सबने मिलकर उन अक्षरों को बोलकर पढ़ा, और इस प्रकार सबकी वाणी लौट आई।
संभव है कि वाग्देवी सरस्वती ने कश्मीरी लिपि शारदा को इसी प्रकार प्रकट किया हो लेकिन शेष भारत ने शारदा देश, लिपि, आदि शंकर की सर्वज्ञ पीठ और देवी की शक्ति पीठ को भी लगभग भुला दिया है।
✍🏻यशार्क पांडेय
भारत की ज्ञान-परंपरा में आचार्य अभिनवगुप्त एवं कश्मीर की स्थिति को एक ‘संगम-तीर्थ’ के रुपक से बताया जा सकता है। जैसे कश्मीर (शारदा देश) संपूर्ण भारत का ‘सर्वज्ञ पीठ’ है, वैसे ही आचार्य अभिनव गुप्त संपूर्ण भारतवर्ष की सभी ज्ञान-विधाओं एवं साधनों की परंपराओं के सर्वोपरि समादृत आचार्य हैं। कश्मीर केवल शैवदर्शन की ही नहीं, अपितु बौद्ध, मीमांसक, नैयायिक, सिद्ध, तांत्रिक, सूफी आदि परंपराओं का भी संगम रहा है। आचार्य अभिनवगुप्त भी अद्वैत आगम एवं प्रत्यभिज्ञा –दर्शन के प्रतिनिधि आचार्य तो हैं ही, साथ ही उनमें एक से अधिक ज्ञान-विधाओं का भी समाहार है। भारतीय ज्ञान दर्शन में यदि कहीं कोई ग्रंथि है, कोई पूर्व पक्ष और सिद्धांत पक्ष का निष्कर्ष विहीन वाद चला आ रहा है और यदि किसी ऐसे विषय पर आचार्य अभिनवगुप्त ने अपना मत प्रस्तुत किया हो तो वह ‘वाद’ स्वीकार करने योग्य निर्णय को प्राप्त कर लेता है। उदाहरण के लिए साहित्य में उनकी भरतमुनिकृत रस-सूत्र की व्याख्या देखी जा सकती है जिसे ‘अभिव्यक्तिवाद’ के नाम से जाना जाता है। भारतीय ज्ञान एवं साधना की अनेक धाराएं अभिनवगुप्तपादाचार्य के विराट् व्यक्तित्व में आ मिलती है और एक सशक्त धारा के रुप में आगे चल पड़ती है।
आचार्य अभिनवगुप्त के पूर्वज अत्रिगुप्त (8वीं शताब्दी) कन्नौज प्रांत के निवासी थे। यह समय राजा यशोवर्मन का था। अभिनवगुप्त कई शास्त्रों के विद्वान थे और शैवशासन पर उनका विशेष अधिकार था। कश्मीर नरेश ललितादित्य ने 740 ई. जब कान्यकुब्ज प्रदेश को जीतकर काश्मीर के अंतर्गत मिला लिया तो उन्होंने अत्रिगुप्त से कश्मीर में चलकर निवास की प्रार्थना की। वितस्ता (झेलम) के तट पर भगवान शितांशुमौलि (शिव) के मंदिर के सम्मुख एक विशाल भवन अत्रिगुप्त के लिये निर्मित कराया गया। इसी यशस्वी कुल में अभिनवगुप्त का जन्म लगभग 200 वर्ष बाद (950 ई.) हुआ। उनके पिता का नाम नरसिंहगुप्त तथा माता का नाम विमला था।
भगवान् पतञ्जलि की तरह आचार्य अभिनवगुप्त भी शेषावतार कहे जाते हैं। शेषनाग ज्ञान-संस्कृति के रक्षक हैं। अभिनवगुप्त के टीकाकार आचार्य जयरथ ने उन्हें ‘योगिनीभू’ कहा है। इस रुप में तो वे स्वयं ही शिव के अवतार के रुप में प्रतिष्ठित हैं। आचार्य अभिनवगुप्त के ज्ञान की प्रामाणिकता इस संदर्भ में है कि उन्होंने अपने काल के मूर्धन्य आचार्यों-गुरूओं से ज्ञान की कई विधाओं में शिक्षा-दीक्षा ली थी। उनके पितृवर श्री नरसिंहगुप्त उनके व्याकरण के गुरू थे। इसी प्रकार लक्ष्मणगुप्त प्रत्यभिज्ञाशास्त्र के तथा शंभुनाथ (जालंधर पीठ) उनके कौल-संप्रदाय –साधना के गुरू थे। उन्होंने अपने ग्रंथों में अपने नौ गुरूओं का सादर उल्लेख किया है। भारतवर्ष के किसी एक आचार्य में विविध ज्ञान विधाओं का समाहार मिलना दुर्लभ है। यही स्थिति शारदा क्षेत्र काश्मीर की भी है। इस अकेले क्षेत्र से जितने आचार्य हुए हैं उतने देश के किसी अन्य क्षेत्र से नहीं हुए| जैसी गौरवशाली आचार्य अभिनवगुप्त की गुरु परम्परा रही है वैसी ही उनकी शिष्य परंपरा भी है| उनके प्रमुख शिष्यों में क्षेमराज , क्षेमेन्द्र एवं मधुराजयोगी हैं| यही परंपरा सुभटदत्त (12वीं शताब्ती) जयरथ, शोभाकर-गुप्त महेश्वरानन्द (12वीं शताब्दी), भास्कर कंठ (18वीं शताब्दी) प्रभृति आचार्यों से होती हुई स्वामी लक्ष्मण जू तक आती है |
दुर्भाग्यवश यह विशद एवं अमूल्य ज्ञान राशि इतिहास के घटनाक्रमों में धीरे-धीरे हाशिये पर चली गई | यह केवल कश्मीर के घटनाक्रमों के कारण नहीं हुआ | चौदहवीं शताब्दी के अद्वैत वेदान्त के आचार्य सायण -माधव (माधवाचार्य) ने अपने सुप्रसिद्ध ग्रन्थ 'सर्वदर्शन सङ्ग्रह' में सोलह दार्शनिक परम्पराओं का विनिवेचन शांकर-वेदांत की दृष्टि से किया है| आधुनिक विश्वविद्यालयी पद्धति केवल षड्दर्शन तक ही भारतीय दर्शन का विस्तार मानती है और इन्हे ही आस्तिक दर्शन और नास्तिक दर्शन के द्वन्द्व-युद्ध के रूप में प्रस्तुत करती है|आगमोक्त दार्शनिक परम्पराएँ जिनमें शैव, शाक्त, पंचरात्र आदि हैं, वे कही विस्मृत होते चले गए| आज कश्मीर में कुछ एक कश्मीरी पंडित परिवारों को छोड़ दें, तो अभिनवगुप्त के नाम से भी लोग अपरिचित हैं| भारत को छोड़ पूरे विश्व में अभिनवगुप्त और काश्मीर दर्शन का अध्यापन आधुनिक काल में होता रहा है लेकिन कश्मीर विश्वविद्यालय में, उनके अपने वास-स्थान में उनकी अपनी उपलब्धियों को संजोनेवाला कोई नहीं है। काश्मीरी आचार्यों के अवदान के बिना भारतीय ज्ञान परंपरा का अध्ययन अपूर्ण और भ्रामक सिद्ध होगा। ऐसे कश्मीर और उनकी ज्ञान परंपरा के प्रति अज्ञान और उदासीनता कहीं से भी श्रेयस्कर नहीं है।
आचार्य अभिनवगुप्त ने अपने अस्सी वर्षों के सुदीर्घ जीवन को केवल तीन महत् लक्ष्यों के लिए समर्पित कर दिया-शिवभक्ति, ग्रंथ निर्माण एवं अध्यापन। उनके द्वारा रचित 42 ग्रंथ बताए जाते हैं, इनमें से केवल 20-22 ही उपलब्ध हो पाए हैं। शताधिक ऐसे आगम ग्रंथ हैं, जिनका उल्लेख-उद्धरण उनके ग्रंथों में तो है, लेकिन अब वे लुप्तप्राय हैं। अभिनवगुप्त के ग्रंथों की पांडुलिपियां दक्षिण में प्राप्त होती रही हैं, विशेषकर केरल राज्य में। उनके ग्रंथ संपूर्ण प्राचीन भारतवर्ष में आदर के साथ पढ़ाये जाते रहे थे।
80 वर्ष की अवस्था में जब उन्होंने महाप्रयाण किया तब उनके 10 हजार शिष्य काश्मीर में थे। श्रीनगर से गुलमर्ग जाने वाले मार्ग पर स्थित भैरव गुफा में अकेले प्रवेश कर उन्होंने सशरीर महाप्रयाण किया। वह गुफा भी आज उपेक्षित है और इसका अस्तित्व संरक्षित नहीं है। जिस महादेवगिरि के शिखरों पर अवतरित होकर स्वयं भगवान शिव ने आगमों का उपदेश किया, वे धवल शिखर संपूर्ण देश से आज भी अपनी प्रत्यभिज्ञा की आशा रखते हैं। प्रत्यभिज्ञा का अर्थ है, स्वयं को विस्मृति के आवरणों से मुक्त कर स्वरूप को जानना, शिवोहं की प्रतीति। त्रिक अथवा प्रत्यभिज्ञा जैसे दर्शन की पुण्यभूमि है काश्मीर और प्रकारान्तर से ‘प्रत्यभिज्ञा’ हमारे देश का सबसे प्रासांगिक जीवन–दर्शन होना चाहिए। हमें अपनी शक्तियों की प्रत्यभिज्ञा होनी ही चाहिए।
✍🏻कौशलेश राय
कश्मीर का समुद्र से उद्भव-इसका वर्णन तथा कालमान का ठीक अनुमान नीलमत पुराण में है। जलोद्भव दैत्य की कहानी १९९१ में दुहराई गई।
नीलमत पुराण-
यैषा देवी उमा सैव कश्मीरा नृपसत्तम।
आसीत् सरः पूर्नजलं सुरम्यं सुमनोहरम्॥३१॥
कल्पारम्भप्रभृति यत्पुरा मन्वन्तराणि षट्।
अस्मिन् मन्वन्तरे जातं विषयं सुमनोहरम्॥३२॥
मन्वन्तरेषु सर्वेषु यदासीद्विमलं सरः।
कथं वैवस्वते जातं तन्मण्डलमिति प्रभो॥४६॥
मन्वन्तरेषु पूर्वेषु नासीदेतत् पुरं किल।
कश्मीराख्यं बभूवास्मिन् कथं वैवस्वतेऽन्तरे॥५०॥
अयने द्वे तथैवाब्दं नृपैव वर्षसंख्यया।
द्वात्रिंशच्च सहस्राणि तथा लक्षचतुष्टयम्॥५२
प्रोक्तं कलियुगं राजन् द्वापरं द्विगुणं स्मृतम्।
त्रिगुणं तु तथा त्रेता कृतं ज्ञेयं चतुर्गुणम्॥५३॥
चतुर्युगैकसप्तत्या मन्वन्तरमिहोच्यते।
तस्मिन्मन्वन्तरेऽतीते प्रजाः स्थावरजङ्गमाः॥५४॥
इदं च शिखरं पश्य देशेऽस्मिन्नृप पश्चिमे॥६२॥
नौबन्धनमितिख्यातं पुण्यं पापभयापहम्॥
कृततुल्ये तदा काले व्यतीते तु मनुस्तदा॥६३॥
विदधाति प्रजासर्गं यथापूर्वमरिन्दम।
नौदेहेन सतीदेवी भूमिर्भवति पार्थिव॥६४॥
तस्यां तु भूमौ भवति सरस्तु विमलोदकम्।
षड्योजनायतं रम्यं तदर्धेन च विस्तृतम्॥६५॥
सतीदेश इति ख्यातं देवाक्रीडं मनोहरम्।
आकाशमिव गम्भीरं जलजैश्च विवर्जितम्॥६६॥
शीतलामलपानीयं सर्वभूमि मनोहरम्।
अस्मिन्वैवस्वते प्राप्ते राजन् मन्वन्तरे किल॥६७॥
अबुल फजल सतीसर को उमासर कहता है-काश्मीर पेश अज अम्रत सती नाम अस्त सती नाम ईजा अस्त व सर नाम ए हौज कता।
पारसी इतिहासकार ववैउद्दीन-आदम शरन दीप (लंका) से काश्मीर में आये। सेथ (वसिष्ठ) के वंश में काश्मीर का राज्य ११०० वर्ष रहा। हजरत सुलेव्मान ने काश्मीर को आबाद किया। अपने भतीजे इसौन को काश्मीर का राजा बनाया। हिन्दुओं ने राजा हरीनन्द के नेतृत्व में विजय प्राप्त की। उसका वंश जलप्लावन तक राज्य करता रहा। उसके बास तुर्किस्तान की एक जाति काश्मीर में आयी।
मुहम्मद आजम दिदामारी के वाकयाते कश्मीर में उल्लेख है-काश्मीर प्रदेश जल से भरा था। दैत्य जलदेव वहां रहता था। वह मनुष्यों को खाता था। आस पास जो कुछ मिलता था, खा जाता था। विस्तृत वर्णन जलोद्भव के प्रसंग में है।
राजतरङ्गिणी, तरङ्ग १-
दृग्गोचरं पूर्वसूरिग्रन्था राजकथाऽऽश्रयाः।
ममत्वेकादश गता मतं नीलमुनेरपि॥१४॥
(नीलमुनि का नीलमत पुराण)
द्वापञ्चाशतमाम्नाय भ्रंशाद्यान् नाऽस्मरन् नृपान्।
तेभ्यो नीलमताद् दृष्टं गोनन्दादि चतुष्टयम्॥१६॥
पुरा सतीसरः कल्पारम्भात् प्रभृति भूरभूत्।
कुक्षौ हिमाद्रेरर्णोभिः पूर्णा मन्वन्तराणि षट्॥२५॥ज्योतिष के अनुसार इस मन्वन्तर में प्रायः २८ युग बीत चुके हैं। आदि सन्धि के सत्य युग को मिला कर १७२८००० + ४३२०००० x २८ = १२.२६ करोड़ वर्ष बीत चुके हैं। आधुनिक अनुमान के अनुसार प्रायः २० करोड़ वर्ष पूर्व हिमालय के स्थान पर समुद्र था तथा उसके जीवों के अवशेष अभी भी हिमालय की चोटियों पर मिलते हैं। एशिया भूखण्ड पर दक्षिण से भारतीय भूखण्ड के धक्के से वह जमीन उठ गयी तथा हिमालय बना। इसकी आयु प्रायः ५ करोड़ वर्ष कही जाती है। पुराना पर्वत शिवालिक था जो हिमालय के दक्षिण मुख्यतः पश्चिमी भाग में है। शिव की पत्नी के नाम पर हिमालय के स्थान पर स्थित समुद्र को सती समुद्र कहते थे। सती देवी को ग्रीक में टेथीज कहते थे। अतः इसे आधुनिक भूगर्भ विज्ञान में टेथीज समुद्र कहते हैं। नील मुनि का स्थान नीलम है जहां पाकिस्तान चीन की सहायता से बान्ध बना रहा है। जलोद्भव दैत्य का स्थान डल झील है।
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