हमें अपने गणतंत्र पर गर्व है
(मनीषा स्वामी कपूर-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)
इस बार हम भारतवासी 72वां गणतंत्र दिवस मना रहे हैं। स्वाधीनता की हीरक जयंती का यह पर्व और भी विशिष्ट हो गया। गणतंत्र तो हमारे पड़ोसी देश ने भी अपनाया था लेकिन एक दशक बाद ही वहां सैनिक शासन लागू हो गया। भारत ने इसी दिन 1950 में भारत सरकार अधिनियम एक्ट (1935) को हटाकर अपने संविधान को लागू किया था। हमारे देश के लिए 26 जनवरी का विशेष महत्व है क्योंकि आजादी मिलने से पहले इसी दिन स्वतंत्रता दिवस मनाया जाता था। भारत के गणतंत्र की यात्रा 1930 से शुरू हुई थी और 1930 से 1947 तक 30 जनवरी को ही स्वतंत्रता दिवस मनाया जाता रहा। इसके बाद 15 अगस्त 1947 को देश आजाद हुआ। पंडित जवाहर लाल नेहरू ने लाल किले की प्राचीर से यूनियन जैक को हटाकर भारत का राष्ट्रीय ध्वज फहराया। देश का संविधान तैयार करने के लिए एक समिति गठित की गयी जिसने 2 साल 11 महीने 17 दिन में 26 नवम्बर 1949 को संविधान तैयार किया। इसे 26 जनवरी 1950 से हम भारतीयों ने स्वयं पर लागू किया।
भारत को गणतंत्र राष्ट्र बनाने के बारे में कांग्रेस के लाहौर सत्र में 31 दिसम्बर 1929 को रात मे विचार किया गया था। पूर्व प्रधानमंत्री पंडित अटल बिहारी बाजपेयी ने जिस राबी की शपथ को एक कविता में अधूरा बताया है, उसीे राबी के तट पर भारत के रणबांकुरो ने शपथ ली थी कि 26 जनवरी को स्वतंत्रता दिवस के रूप में मनाएंगे। ताकि ब्रिटिश राज से स्वतंत्रता की मांग की जा सके। इस शपथ में क्रांतिकारी भी शामिल थे।
हमारे देश भारत की कुछ ऐसी विशेषताएं हैं जो हमें दुनिया भर में नहीं मिलतीं। इनमें सबसे बड़ी है अनेकता में एकता। यहां हर जाति, धर्म वर्ग, सम्प्रदाय के लोग एक साथ मिलजुलकर रहते हैं और तीज त्योहार भी मनाते हैं। इस देश में ही एक-दूसरे की संस्कृति का सम्मान भी किया जाता है। अभी हमने मकर संक्रांति का पर्व मनाया है और इस पर्व पर पतंग उड़ाने वाले सिर्फ हिन्दू ही नहीं थे, बल्कि सभी वर्ग-सम्प्रदाय के लोग शामिल थे। यहां की जलवायु और मौसम दुनिया भर में नहीं मिलते। भारत के पारंपरिक व्यंजन भी दुनिया भर में देश की शान बढ़ाते हैं। सरसों के साग के साथ मक्के की रोटी और रसभरी जलेबी। भारत के इस छोर से उस छोर तक संस्कृति की विभिन्नताओं को साफतौर पर देखा जा सकता है। हिन्दी के साथ मराठी, गुजराती, पंजाबी, उड़िया, कन्नड़, तमिल और तेलुगु के साथ आमार सोनार बांग्ला वाली बंगाली की मिठास सहज ही आकर्षित कर लेती है। भारत का ही गणतंत्र है जहां सभी को अपनी बात कहने की पूरी स्वतंत्रता है। इसलिए हमें अपने गणतंत्र पर गर्व है।
एक गणराज्य या गणतंत्र सरकार का एक ऐसा रूप है जिसमें देश को एक ‘सार्वजनिक मामला’ माना जाता है, न कि शासकों की निजी संस्था या सम्पत्ति। एक गणराज्य के भीतर सत्ता के प्राथमिक पद विरासत में नहीं मिलते हैं। यह सरकार का एक रूप है जिसके अन्तर्गत राज्य का प्रमुख राजा नहीं होता।प्राचीन काल में दो प्रकार के राज्य कहे गए हैं। एक राजाधीन और दूसरे गणधीन। राजाधीन को एकाधीन भी कहते थे। जहाँ गण या अनेक व्यक्तियों का शासन होता था, वे ही गणाधीन राज्य कहलाते थे। इस विशेष अर्थ में पाणिनि की व्याख्या स्पष्ट और सुनिश्चित है। उन्होंने गण को संघ का पर्याय कहा है (संघोद्धौ गणप्रशंसयो (अष्टाध्यायी 3,3,86)। साहित्य से ज्ञात होता है कि पाणिनि और बुद्ध के काल में अनेक गणराज्य थे। तिरहुत से लेकर कपिलवस्तु तक गणराज्यों का एक छोटा सा गुच्छा गंगा से तराई तक फैला हुआ था। बुद्ध शाक्यगण में उत्पन्न हुए थे। लिच्छवियों का गणराज्य इनमें सबसे शक्तिशाली था, उसकी राजधानी वैशाली थी किंतु भारतवर्ष में गणराज्यों का सबसे अधिक विस्तार वाहीक (आधुनिक पंजाब) प्रदेश में हुआ था। उत्तर पश्चिम के इन गणराज्यों को पाणिनि ने आयुधजीवी संघ कहा है। वे ही अर्थशास्त्र के वार्ताशस्त्रोपजीवी संघ ज्ञात होते हैं। ये लोग शांतिकल में वार्ता या कृषि आदि पर निर्भर रहते थे किंतु युद्धकाल में अपने संविधान के अनुसार योद्धा बनकर संग्राम करते थे। इनका राजनीतिक संघटन बहुत दृढ़ था और ये अपेक्षाकृत विकसित थे। इनमें क्षुद्रक और मालव दो गणराज्यों का विशेष उल्लेख आता है। उन्होंने यवन आक्रांता सिकंदर से घोर युद्ध किया था। वह मालवों के बाण से तो घायल भी हो गया था। इन दोनों की संयुक्त सेना के लिये पाणिनि ने गणपाठ में क्षौद्रकमालवी संज्ञा का उल्लेख किया है।
पंजाब के उत्तरपश्चिम और उत्तरपूर्व में भी अनेक छोटे मोटे गणराज्य थे, उनका एक श्रुंखला त्रिगर्त (वर्तमान काँगड़ा) के पहाड़ी प्रदेश में विस्तारित हुआ था जिन्हें पर्वतीय संघ कहते थे। दूसरा श्रुंखला सिंधु नदी के दोनों तटों पर गिरिगहवरों में बसने वाले महाबलशाली जातियों का था जिन्हें प्राचीनकाल में ग्रामीणाय संघ कहते थे। वे ही वर्तमान के कबायली हैं। इनके संविधान का उतना अधिक विकास नहीं हुआ जितना अन्य गणराज्यों का। वे प्रायः लूटमार कर जीविका चलानेवाले थे। इनमें भी जो कुछ विकसित थे उन्हें पूग और जो पिछड़े हुए थे उन्हें ब्रात कहा जाता था। संघ या गणों का एक तीसरा गुच्छा सौराष्ट्र में विस्तारित हुआ था। उनमें अंधकवृष्णियों का संघ या गणराज्य बहुत प्रसिद्ध था। कृष्ण इसी संघ के सदस्य थे अतएव शांतिपूर्व में उन्हें अर्धभोक्ता राजन्य कहा गया है। ज्ञात होता है कि सिंधु नदी के दोनों तटों पर गणराज्यों की यह श्रृंखला ऊपर से नीचे को उतरती सौराष्ट्र तक फैल गई थी क्योंकि सिंध नामक प्रदेश में भी इस प्रकार के कई गणों का वर्णन मिलता है। इनमें मुचकर्ण, ब्राह्मणक और शूद्रक मुख्य थे।
भारतीय गणशासन के संबंध में भी पर्याप्त सामग्री उपलब्ध है। गण के निर्माण की इकाई कुल थी। प्रत्येक कुल का एक एक व्यक्ति गणसभा का सदस्य होता था। उसे कुलवृद्ध या पाणिनि के अनुसार गोत्र कहते थे। उसी की संज्ञा वंश्य भी थी। प्रायः ये राजन्य या क्षत्रिय जाति के ही व्यक्ति होते थे। ऐसे कुलों की संख्या प्रत्येक गण में परंपरा से नियत थी, जैसे लिच्छविगण के संगठन में 7707 कुटुंब या कुल सम्मिलित थे। उनके प्रत्येक कुलवृद्ध की संघीय उपाधि राजा होती थी। सभापर्व में गणाधीन और राजाधीन शासन का विवेचन करते हुए स्पष्ट कहा गया है कि साम्राज्य शासन में सत्ता एक व्यक्ति के हाथ में रहती है। (साम्राज्यशब्दों हि कृत्स्नभाक्) किंतु गण शासन में प्रत्येक परिवार में एक एक राजा होता है। (गृहे गृहेहि राजानः स्वस्य स्वस्य प्रियंकराः, सभापर्व, 14,2)। इसके अतिरिक्त दो बातें और कही गई हैं। एक यह कि गणशासन में प्रजा का कल्याण दूर दूर तक व्याप्त होता है। दूसरे यह कि युद्ध से गण की स्थिति सकुशल नहीं रहती। गणों के लिए शम या शांति की नीति ही थी। यह भी कहा है कि गण में परानुभाव या दूसरे की व्यक्तित्व गरिमा की भी प्रशंसा होती है और गण में सबको साथ लेकर चलनेवाला ही प्रशंसनीय होता है। गण शासन के लिए ही परामेष्ठ्य पारिभाषिक संज्ञा भी प्रयुक्त होती थी। संभवतः यह आवश्यक माना जाता था कि गण के भीतर दलों का संगठन हो। दल के सदस्यों को वग्र्य, पक्ष्य, गृह्य भी कहते थे। दल का नेता परमवग्र्य कहा जाता था। गणसभा में गण के समस्त प्रतिनिधियों को सम्मिलित होने का अधिकार था किंतु सदस्यों की संख्या कई सहस्र तक होती थी अतएव विशेष अवसरों को छोड़कर प्रायः उपस्थिति सीमित ही रहती थी। शासन के लिये अंतरंग अधिकारी नियुक्त किए जाते थे। किंतु नियमनिर्माण का पूरा दायित्व गणसभा पर ही था। गणसभा में नियमानुसार प्रस्ताव रखा जाता था। उसकी तीन वाचना होती थी और शलाकाओं द्वारा मतदान किया जाता था। इस सभा में राजनीतिक प्रश्नों के अतिरिक्त और भी अनेक प्रकार के सामाजिक, व्यावहारिक और धार्मिक प्रश्न भी विचारार्थ आते रहते थे। उस समय की राज्य सभाओं की प्रायरू ऐसे ही लचीली पद्धति थी। भारतवर्ष में लगभग एक सहस्र वर्षों (600 सदी ई. पू. से 4 थी सदी ई.) तक गणराज्यों के उतार चढ़ाव का इतिहास मिलता है। उनकी अंतिम झलक गुप्त साम्राज्य के उदय काल तक दिखाई पड़ती है। आक्रांताओं ने हमें भौतिक रूप से कमजोर किया लेकिन हमारी संस्कृति को नहीं हिला पाए। यही संस्कृति जनतंत्र के रूप में फल फूल रही है। (हिफी)
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