पाप और sin नितान्त भिन्न हैं
सत्व, रज और तम ये तीन गुण सम्पूर्ण प्रकृति में व्याप्त हैं। रजोगुण की क्रियाशीलता प्रायः पाप की ओर ले जाती है। विभिन्न व्यक्तियों में ये तीन गुण विभिन्न अनुपातों में होते हैं। रजोगुण की तीव्रता से सक्रियता भी होती है और ज्ञान का नियंत्रण नहीं रहे तो यह सक्रियता पाप की ओर भी आकर्षित करती है। प्रत्येक जीवात्मा अनादिवासना से संचालित है और सबमें उनके अपने-अपने पूर्व कर्मों के परिणामस्वरूप ये तीन गुण भिन्न-भिन्न अनुपात में रहते हैं।
वस्तुतः कोई भी व्यक्ति अर्थात् कोई भी जीवात्मा कहाँ जन्म लेता है, उसकी आयु कितनी रहती है और उसके भोग क्या-क्या रहते हैं, यह पूर्व के कर्माशय पर निर्भर होता है। कर्माशय का अर्थ है कर्म-संस्कार। धर्म और अधर्म रूप कर्माशय ही कर्म संस्कार होता है। चित्त मंे कोई भाव जगने पर उस भाव की एक छाप चित्त में रह जाती है, उसे ही संस्कार कहते हैं। ये संस्कार ज्ञानमूलक या प्रज्ञामूलक भी होते हैं और अज्ञानमूलक भी। संस्कारों के समुच्चय का ही नाम कर्माशय है। कर्माशय से ही जन्म, आयु और भोग ये तीन विपाक या फल होते हैं। कर्माशय बीज है, वासना क्षेत्र है और सुख-दुख इस क्षेत्र में बीज से उपजने वाले फल हैं। जन्म ही वृक्ष है। कौन जीव कहाँ जन्म लेता है, यह कर्माशय से निर्धारित होता है और फिर उसके अनुसार ही आयु और भोग प्राप्त होते हैं। योगशास्त्र में इसका विस्तार से विवेचन है कि क्या एक कर्माशय एक ही जन्म का कारण होता है या अनेक जन्मों का। विवेचना का सार यह है कि एक कर्माशय एक ही जन्म का कारण बनता है। परंतु कुछ कर्माशय ऐसे होते हैं जो इस नियम के अपवाद होते हैं। वे अन्य जन्म तक जाकर फल को निष्पन्न करते हैं। एक जन्म में जो कर्माशय संचित होता है, वह उसी जन्म में कुछ नष्ट भी हो सकता है। अतिप्रबल या प्रधान कर्माशय यदि किसी जन्म में फल दे रहे हैं तो अप्रधान कर्माशय उससे दबे रहते हैं और वे किसी अगले जन्म में जाकर फलित होते हैं। इसको उदाहरण देकर इस प्रकार समझाया गया है कि किसी व्यक्ति ने थोड़ा धर्माचरण किया परंतु बाद में विषयलोभ से अनेक पापकर्म किये। उन पापकर्मों का कर्माशय प्रधान हो गया। अतः अगला जन्म उसका पशुयोनि में होगा। वहाँ वह उन पापकर्मों का फल भोगेगा। परंतु जो पुण्य कर्म किये हैं, जो धर्माचरण किया है वह संचित रहेगा और वह बाद में मानवजन्म लेने पर प्रकाशित होगा।
इस प्रकार जन्म, आयु और भोग पुण्य के कारण सुखफल देने वाले और अपुण्य या पाप के कारण दुखफल देने वाले हैं।
इस सनातन दृष्टि को ध्यान में रखकर ही हमारे यहाँ प्रायश्चित का विधान ऋषियों और ज्ञानियों ने किया है। क्योंकि आत्मा तो कभी पाप या पुण्य में लिपटती नहीं। जो भी संस्कार होते हैं वे मन, बुद्धि और चित्त में ही होते हैं। अतः पाप दूषित मन, विकृति या विचलित बुद्धि और मलिन चित्त का कार्य है। इसलिये इस दूषण या मल को हटाने पर मन, बुद्धि और चित्त निर्मल हो जाते हैं। यही प्रायश्चित का प्रयोजन है। अतः पाप और पुण्य जीवात्मा के मन, बुद्धि और चित्त को प्रभावित करने वाले गुण हैं।
वर्तमान में प्रभावी अन्य मजहब या रिलीजन में गुनाह या ‘सिन’ की जो मान्यता है, वह भारतीय पाप के बोध से पूर्णतः भिन्न है। वहाँ ‘सिन’ या गुनाह या फितना वह है जो पंथ प्रवर्तक के आदेशों से हटकर काम किया जाये। वहाँ उद्देश्य पांथिक नियंत्रण है। (आइडियालॉजी आधारित पार्टी नामक पंथ भी इन्हीं मजहबों या रिलीजन की नकल में परिकल्पित है। वहाँ भी उद्देश्य पांथिक नियंत्रण है)।
इसीलिये मजहब और इस प्रकार के ‘मोनोथीइस्ट’ यानी एकपंथवादी रिलीजन सदा एकदेववादी होते हैं। (भारत में नितांत मूर्ख लोग इसे ही अद्वैतवादी कहते देखे जाते हैं जो उपहास और तिरस्कार के योग्य स्थिति है)। अतः वहाँ ‘सिन’ और गुनाह का सारा ही प्रतिपादन पांथिक नियंत्रण के लिये होता है। भारतीय ज्ञान परंपरा अर्थात सनातन धर्म में पुण्य और पाप जीवात्मा के मन, बुद्धि और चित्त के उत्कर्ष या अपकर्ष के आधारभूत कारण के रूप में ही वर्णित है। अतः पाप का प्रायश्चित मन, बुद्धि और चित्त के निर्मल होने तथा तेजोमय होने के लिये आवश्यक है।प्रो रामेश्वर मिश्र पंकज
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