न जाने क्यों ख़ुद को नाकारा बनाते हैं,
सच सामने आने पर चेहरा छिपाते हैं।
सेवानिवृत्ति के बाद घर पर ही क्यों रहें,
क्यों नहीं किसी काम में समय लगाते हैं?
घर का काम करना, क्या गुनाह हो गया?
क्यों घर के सदस्यों पर अहसान जताते हो?
ख़ामियाँ अपनी भी होंगी उनको निहारिये,
बुजुर्ग होने के अपने सच को क्यों छिपाते हो?
सेवानिवृत्ति से आज़ादी कार्यालय के काम से,
परिवार को कब मिलेगी इस पर भी विचारिये?
बॉस थे कार्यालय में आप सच को पहचानिए,
मगर बॉस के गुलाम थे हक़ीक़त को मानिए।
रुतबा तुम्हारा कम तो कार्यालय में हुआ है,
ग़ुस्सा बाहर का कभी घर पर न निकालिए।
अधिकार बहुत आपके, कर्तव्य भी बहुत हैं,
स्वेच्छा से दायित्वों के प्रति समर्पण जताइए।
अच्छा रहे हम यदि सदैव व्यस्त बनें रहें,
परिवार की ख़ुशियों में कर्तव्य करते रहें।
बच्चों को देकर आज़ादी निर्णय लेने की,
ज़रूरत पड़े उनका मार्ग प्रशस्त करते रहें।
अ कीर्ति वर्द्धन
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