राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को कैसे देखें
प्रो. कुसुमलता केडिया
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जबसे राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति पाकर एक समर्थ संगठन दिखने लगा है, तब से उसे क्या करना चाहिये और क्या नहीं करना चाहिये, यह परामर्श देने वाले संचार माध्यमों और सोशल मीडिया मंे भारी संख्या में दिख रहे हैं। इस विषय में कुछ आधारभूत बातें अवश्य स्मरण रखना चाहिये।
संघ एक सामाजिक-राजनैतिक (सोशियो-पॉलिटिकल) संगठन है। निश्चय ही वह सांस्कृतिक कार्य भी करता है परन्तु वह भी राजनैतिक लक्ष्यों की प्राप्ति की प्रक्रिया का ही अंग है। अतः उसे उसी तरह देखना समझना चाहिये।
किसी भी बड़े संगठन में उसका वास्तविक बल या मुख्य आधार वे लोग होते हैं, जो उसके लक्ष्यों और कार्यपद्धति से आकर्षित होकर जीवन के किसी बड़े प्रयोजन के रूप में उससे जुड़ते हैं। निश्चय ही इसमें अत्यन्त बुद्धिमान लोग भी अवश्य होते हैं। परन्तु बड़ी संख्या भावनात्मक प्रधानता वालों की होती है। परन्तु उस संगठन के नीति निर्धारक और निर्णायक (डिसीजन-मेकर) जो लोग होते हैं, वे भावनामय होकर भी लक्ष्य की प्राप्ति के लिये आवश्यक होने पर भावना को पार्श्व में रखकर आवश्यक निर्णय लेते हैं। इस दृष्टि से उन्हें अपेक्षित निर्ममता भी रखनी पड़ती है। संघ जैसे बड़े संगठन अपने मूल प्रयोजन को कभी भी भूल नहीं सकते और साथ ही आकार की विशालता के कारण उन्हें राष्ट्र और विश्व से भी अपने काम का बहुत सा फीड बैक मिलता ही रहता है। उन सबके आधार पर तथा अपनी जानकारियों और अपने संपर्कों के मन और बुद्धि से प्राप्त आवश्यक ‘डाटा’ के आधार पर प्रयोजन की सिद्धि की दृष्टि से उन्हें निर्णय लेना होता है। स्पष्ट है कि इस कार्य में कई बार शत्रु से भी संधि या मैत्री का व्यवहार करना पड़ता है। क्योंकि वह लक्ष्य प्राप्ति के लिये आवश्यक हो जाता है। यह भी सहज ही है कि भावना से भरे हुये स्वयंसेवकों या कार्यकर्ताओं का बड़ा समुदाय ऐसे समय में असमंजस में पड़ जाता है। परंतु नेतृत्व के प्रति अडिग निष्ठा के कारण वह शांत रहता है और प्रतीक्षा करता है तथा आदेश दिये जाने पर मन के प्रतिकूल भी आचरण तत्परता से करता है। यही संगठन की शक्ति होती है। लक्ष्य की प्राप्ति तभी संभव होती है।
संघ के आलोचकों का एक वर्ग वह भी है जो राष्ट्रभक्त है या यूरण्डबुद्धि से संचालित होने के कारण राष्ट्रवादी है और भारत में हिन्दुत्व की प्रतिष्ठा अवश्य चाहता है। ऐसे आलोचक संघ के उस प्रकार के कार्यो से विचलित हो जाते हैं जो उन्हें लक्ष्य की दिशा से सीधा जुड़ा नहीं दिखता। संघ का नेतृत्व निश्चय ही उनकी भावना को समझता है। अतः कभी भी प्रत्युत्तर नहीं देता औ आलोचकों से संबंध भी आत्मीय ही रखता है। यही उसकी शक्ति है।
कई बार शत्रु को उलझाये रखने के लिये भी कई कदम उठाने पड़ते हैं। अतः उक्त आलोचक उससे भी क्षुब्ध हो जाते हैं। परन्तु संघ ही नहीं, शासन प्रशासन के अन्य निकाय भी इसी तरह कार्य करते हैं। ऐसे में आलोचकों का क्षोभ भी सहज ही है।
परन्तु आये दिन संघ को सलाह देने वालों को इतना तो समझना चाहिये कि अपनी समझ और अपनी कार्यशैली से ही संघ यहाँ तक पहुँचा है। यह सोच लेना कि संघ में शत्रु-मित्र-विवेक नहीं है, हास्यास्पद ही है। यह विवेक न होता तो कांग्रेस की अभारतीय धारा से जुड़ी शक्तियां जाने कब का संघ को नष्ट कर चुकी होती। अतः इस तथ्य को सदा ध्यान रखना चाहिये।
साथ ही यह भी है कि मित्रशक्तियों की आलोचना को सह लेने या झेल लेने या समझने की सामर्थ्य भी संघ जैसे सभी संगठनों में भरपूर होती है। अतः केवल पढ़ाई लिखाई की अपनी बौद्धिक सामर्थ्य के होने से स्वयं को सदा संघ को सलाह देने और सलाह न मानने पर आलोचना करने में प्रवृत्त नहीं हो जाना चाहिये यद्यपि कई बार सार्वजनिक रूप से ऐसी आलोचना राष्ट्र के लिये और स्वयं संघ के लिये उपयोगी ही होती है। परन्तु फिर इसे इसी तरह समझ कर अपना काम करना चाहिये और संघ के नेतृत्व के प्रति किसी प्रकर का क्षोभ पालने की भूल नहीं करना चाहिये। इसके साथ ही सदा अपनी सीमा भी समझनी चाहिये। संघ जैसे विशाल संगठन की शक्ति को ‘अंडरएस्टिमेट’ नहीं करना चाहिये। ऐसा करने पर अपनी ही बुद्धि की सीमा प्रकट होती है। यह कभी भी नहीं सेाचना चाहिये कि इतना विशाल संगठन अपने प्रयोजन के लिये क्या अनुकूल है और क्या प्रतिकूल, इसे नहीं समझेगा। क्योंकि यह असंभव है कि वह इसे नहीं समझेगा। भारत राष्ट्र को परम वैभव की ओर ले जाना संघ का सर्वमान्य लक्ष्य है और इसके लिये कब क्या आवश्यक है, यह उसके ‘डिसीजन मेकर’ ही तय कर सकते हैं और वे तय करते रहते हैं। उसी भावना से प्रेरित जो अन्य लोग हैं, उन्हें भी अपने स्तर पर अपना कर्तव्य करते रहना चाहिये जिसमें संयत आलोचना भी कर्तव्य हो सकती है। परन्तु किसी प्रकार का द्वेष भाव मन में लाना कर्तव्य का विरोधी है। अपनी शक्ति और सीमा भी जानना चाहिये और अन्यों की सीमा तथा शक्ति जानना चाहिये। संगठनों के कार्य कलापों के लिये विश्व इतिहास और भारतीय शास्त्रों का अध्ययन उपादेय है।प्रो. कुसुमलता केडिया
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