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मंगलकारी और मंगल स्वरूप वैदिक निराकार शिव -अशोक “प्रवृद्ध”

मंगलकारी और मंगल स्वरूप वैदिक निराकार शिव -अशोक “प्रवृद्ध”

यह हैरतअंगेज सत्य है कि वेद में वैसे शिव का वर्णन नहीं है, जैसा कि पौराणिक आख्यानों में शिव कथाओं का सृजन हुआ है। वैदिक ग्रन्थों में शिव निराकार ब्रह्म हैं, लेकिन पौराणिक ग्रन्थों में साकार शिव का भी वर्णन है। वैदिक ज्ञान से वंचित आमजनों के मध्य यह मान्यता है कि वेद में अंकित शिव ही पौराणिक कथाओं में वर्णित हैं और उन्हीं शिव की पूजा-उपासना वैदिक काल से आज तक चली आती है। वैदिक निराकार ब्रह्म शिव से इतर पुराणों में वर्णित शिव परम योगी और परम ईश्वरभक्त हैं। वे एक निराकार ईश्वर ओ३म् की उपासना करते हैं। कैलाशपति शिव को वीतरागी महान राजा बताया गया है। उनकी राजधानी कैलाशपुरी थी और वे तिब्बत का पठार और हिमालय के शासक थे। हरिद्वार से उनकी सीमा आरम्भ होती थी। वे राजा होकर भी अत्यंत वैरागी थे। उनकी पत्नी पार्वती, राजा दक्ष की कन्या थी। उनकी पत्नी ने भी गौरीकुंड, उत्तराखंड में रहकर तपस्या की थी। उनके पुत्रों का नाम गणपति और कार्तिकेय था। उनके राज्य में सब कोई सुखी था। उनके महिमा मंडन में शिवादि कई पुराण भरे पड़े हैं। उनका राज्य इतना लोकप्रिय हुआ कि उन्हें कालांतर में साक्षात ईश्वर के नाम शिव से उनकी तुलना की जाने लगी। वेदों के निराकार ब्रह्म शिव की उपासना करने वाले वैदिक ज्ञान से वंचित होकर कालान्तर में वैदिक निराकार शिव को ही पौराणिक कैलाशाधिपति शिव समझने लगे, निराकार शिव और योगी शिव में विभेद को भूलकर एक ही समझ उनकी पूजा- अर्चना करने लगे और अब तो प्रतिदिन सन्ध्या- उपासना के अन्तर्गत प्रयुक्त होने वाली यजुर्वेद 16/41 में अंकित मन्त्र के द्वारा उन्हें परम पिता समझ स्मरण, नमन और प्रार्थना करने लगे हैं-

नमः शम्भवाय च मयोभवाय च नम: शंकराय च मयस्कराय च नमः शिवाय च शिवतराय च ।।- यजुर्वेद 16/41

अर्थात- जो मनुष्य सुख को प्राप्त कराने हारे परमेश्वर और सुखप्राप्ति के हेतु विद्वान का भी सत्कार कल्याण करने और सब प्राणियों को सुख पहुंचाने वाले का भी सत्कार मंगलकारी और अत्यन्त मंगलस्वरूप पुरुष का भी सत्कार करते हैं, वे कल्याण को प्राप्त होते हैं।

यजुर्वेद 16/41 के इस मन्त्र में शंभव, मयोभव, शंकर, मयस्कर, शिव, शिवतर शब्द आये हैं जो एक ही परमात्मा के विशेषण के रूप में प्रयुक्त हुए हैं। परमेश्वरोक्त ग्रन्थ वेद में ईश्वर को उनके दिव्य गुणों और कर्मों के अनुसार बताया गया है।

शिव की महिमागायन से सम्बन्धित यजुर्वेद 3/60 में अंकित मन्त्र- ओ३म त्र्यंबकम यजामहे वाले और एक प्रसिद्ध मन्त्र से भी शिव के निराकार ब्रह्म की ही पुष्टि होती है, जिसमें कहा गया है कि विविध ज्ञान भण्डार, विद्यात्रयी के आगार, सुरक्षित आत्मबल के वर्धक परमात्मा का यजन करें। जिस प्रकार पक जाने पर खरबूजा अपने डण्ठल से स्वतः ही अलग हो जाता है वैसे ही हम इस मृत्यु के बन्धन से मुक्त हो जायें, मोक्ष से न छूटें।

यजुर्वेद के सोलहवें अध्याय के 2, 5,49 आदि मन्त्रों से भी निराकार शिव की ही पुष्टि होती है। कैवल्योपनिषद 1/8, माण्डूक्योपनिषद 7, श्वेताश्वेतर 4/14, 6/9 में भी शिव को निराकार ब्रह्म के रूप में प्रस्तुत करते हुए कहा गया है कि वह जगत का निर्माता, पालनकर्ता, दण्ड देने वाला, कल्याण करने वाला, विनाश को न प्राप्त होने वाला, सर्वोपरि, शासक, ऐश्वर्यवान, काल का भी काल, शान्ति और प्रकाश देने वाला, शांत, आनन्दमय आदि कहा गया है। यह परम सत्य है कि परमेश्वरोक्त ग्रन्थ वेद में शिव से सम्बन्धित सभी मन्त्रों में सर्वत्र निराकार ब्रह्म शिव का ही वर्णन, स्तुति, प्रार्थना एवं उपासना की गई है, लेकिन यह भी सत्य है कि पुराणों की चित्र-विचित्र कहानियां, वेदों के अर्थों का एक विकृत चित्रण ही हैं। वेदों में अंकित शब्दों के अर्थ का अनर्थ कर अतिरंजित और विकृत अर्थ पुराणों में कर दिया गया है। यही कारण है कि वेदों में विष्णु, सरस्वती, लक्ष्मी आदि नाम तो पाए जाते हैं, लेकिन क्षीर सागर, हंस की सवारी, धन की वर्षा, आदि के साथ ही शिव की अतिरंजित कथाओं का कोई अंकन प्राप्य नहीं है । निराकार शिव से सम्बन्धित मन्त्र यजुर्वेद के सोलहवें अध्याय में अंकित हैं, और इस अध्याय के मन्त्रों में उल्लिखित शब्दों से यह स्पष्ट होता है कि योगी शिव के नाम, स्वरूप, आयुध व उनसे सम्बन्धित कई वस्तुओं और उनकी महिमा मंडन का मुख्य स्रोत यही यजुर्वेद का सोलहवाँ अध्याय ही है, और योगी शिव के कल्पना सृजन का मुख्य आधार यही है। उनमें से प्रथम यह प्रसिद्ध मन्त्र है, जो कि श्वेताश्वतरोपनिषद में भी पाया जाता है -

या ते रुद्र शिवा तनूरघोरापापकाशिनी ।

तया नस्तन्वा शन्तमया गिरिशन्ताभि चाकशीहि । । यजुर्वेद 16/2

अर्थात- हे रुद्र और सत्योपदेशों से सुख पहुंचाने वाले परमात्मन् ! जो तेरी शिवा अर्थात कल्याणकारी, अघोरा अर्थात उपद्रवरहित, अपापकाशिनी अर्थात धर्म का प्रकाश करने वाली काया है, उस शान्तिमय शरीर से आप हमें देखें, अर्थात हमारे लिए कल्याणकारी आदि होइए, और अपने उपदेशों से हमें सुखों की ओर अग्रसर कीजिए।

इस मन्त्र के पहले शब्द रूद्र से शिव की क्रोधी छवि दिखाई देती है। दूसरा शब्द शिवा स्त्रीलिंग है, जो तनू अर्थात शरीर का विशेषण है लेकिन उसे शिव की कल्पना में समाहित कर लिया गया। तीसरे शब्द गिरिशन्त का अर्थ स्वामी दयानन्द सरस्वती ने करते हुए कहा है-

यो गिरिणा मेघेन सत्योपदेशेन वा शं सुखं तनोति तत्सम्बुद्धौ । गिरिरिति मेघनाम।

-निघण्टु 1/10

अर्थात- गिरि अर्थात मेघ या (गॄ निगरणे/शब्दे/विज्ञाने से) सत्योपदेश से (शम् ) सुख की (तन् ) वृद्धि करने वाला। यह परमात्मा के लिए सिद्ध हुआ। परन्तु इस गिरिशन्त का अर्थ गिरि पर शयन करने वाला मानकर इसे कैलाश पर्वत की कल्पना से जोड़ दिया गया, और निराकार शिव को कैलाशाधिपति घोषित कर दिया गया है। तीसरे मन्त्र में आये गिरित्र शब्द का अर्थ भी गिरि पर रहने वाला के अर्थ में समझ लिया गया है।

यजुर्वेद 16/3 में अंकित मन्त्र यामिषुं गिरिशन्त हस्ते बिभर्ष्यस्तवे ... । का अर्थ है- हे गिरिशन्त ! जो बाण आप हाथ में छोड़ने के लिए तैयार रखे हैं। का अर्थ शिव-धनुष समझ कर पौराणिक पाशुपताशस्त्र धारी शिव की कल्पना का सृजन कर लिया गया। यजुर्वेद 9/14 में भी धनुर्धारी, निषंगधारी, हाथ में बाण छोड़ने को उद्यत शिव का वर्णन है। और इसी अध्याय के इक्यावनवे मन्त्र में तो धनुष का नाम भी अंकित है – मीढुष्टम शिवतम शिवो … पिनाकम्बिभ्रदा गहि।

अर्थात- हे शिव ! आप पिनाक अर्थात् धनुष धारण करके (हमारी रक्षा के लिए) आएं।

इसी प्रकार चौथे मन्त्र से उन्हें भिषक का रूप देने का आधार प्राप्त कर लिया गया –

शिवेन वचसा त्वा गिरिशाच्छा वदामसि ।

यथा नः सर्वमिज्जगदयक्ष्मं सुमना असत् । ।- यजुर्वेद 16/4

अर्थात- हे गिरिश ! हम आपकी कल्याणकारी वाणियों से स्तुति करते हैं जिससे कि आप प्रसन्न होकर सारे जगत् को यक्ष्म रोग से मुक्त कर दें।

पौराणिकता से भरी इस वैदिक उक्ति से ही शिव के महाभिषक अर्थात महावैद्य होने की कल्पना कर ली गई। इस मन्त्र में उल्लिखित गिरिश शब्द का अर्थ पुनः गिरि पर लेटने वाला मान लिया गया।

पांचवे मन्त्र में भी भिषक् होने का कथन है, और यहां सर्पों का भी पदार्पण हो जाता है –

अध्यवोचदधिवक्ता प्रथमो दैव्यो भिषक् ।

अहींश्च सर्वाञ्जम्भयन्त्सर्वाश्च यातुधान्योधराचीः परा सुव ।।

-यजुर्वेद 16/5

अर्थात- हे प्रथम दिव्य भिषक् ! आप उत्तम वैद्यक शास्त्र को पढ़ाएं जिससे कि सारे सर्पों का निवारण हों और दुर्दशा करने वाली ओषधियां दूर रहें। यहां अहीन् का अर्थ महर्षि दयानन्द ने किया है – सर्पवत् प्राणान्तकान् रोगान् – अर्थात् सर्प के समान प्राण-लेवा रोग। तथापि इसे शिव का सर्पों के साथ सम्बन्ध की स्वांग रच दी गई है। सांतवे मन्त्र में नीलकण्ठ का संकेत प्राप्त होता है –

असौ योऽवसर्पति नीलग्रीवो विलोहितः ।

उतैनं गोपा अदॄश्रन्नदॄश्रन्नुदहार्य्यः स दृष्टो मृडयाति नः ।।

-यजुर्वेद 16/7

अर्थात- जो ये नीले कण्ठ वाला, गहरा लाल नीचे को सरकता है, उसे गोपा और पानी ले जाने वाली स्त्रियां देखती हैं, वह दिख जाने पर हमें प्रसन्न करे। यहां नीलग्रीव नीलकण्ठ का ही पर्याय है। विलोहित नाम भी शिव का प्रसिद्ध है।

आंठवे मन्त्र में अन्य कुछ विशेषण प्राप्त होते हैं –

नमोऽस्तु नीलग्रीवाय सहस्राक्षाय मीढुषे ।

अथो ये अस्य सत्वानोऽहं तेभ्योऽकरं नमः ।।

- यजुर्वेद 16/8

अर्थात- नमन हो नीलकण्ठ के लिए, सहस्र आंखों वाले के लिए और वीर्यवान के लिए ! और जो उसके वीर्यवान (अनुचर) हैं, उनको भी मैं नमन करता हूं। यहां हम शिव के सहस्राक्ष होने और वीर्यवान् होने की कल्पना पाते हैं। वैसे तो शिव का त्रिनेत्र रूप अधिक प्रसिद्ध है, परन्तु उनको सहस्राक्ष रूप में भी कहा गया है। उसके अनुचरों (किंकर) भी यहां दृष्टिगोचर हो जाते हैं। विद्वानों का विचार है कि मन्त्र में पढ़े गये अकर पद से किंकर शब्द निकलने की सम्भावना है।

दसवें मन्त्र में शिव की प्रसिद्ध जटाओं का भी संकेत मिल जाता है, जहां कपर्द्दिन शब्द का अर्थ प्रशंसित जटाजूट धारण करने वाला है। इस शब्द का उल्लेख आगे के मन्त्रों में भी प्राप्य है।

यद्यपि बज्र का सम्बन्ध पौराणिक ग्रन्थों में पौराणिक ग्रन्थों में इन्द्र के साथ दर्शाया गया है तथापि यजुर्वेद 16 के ग्याहरवें और बारहवें मन्त्रों में शिव को हेति अर्थात वज्र धारण करने वाला भी बताया गया है । अन्य आयुधों का भी मन्त्रों में वर्णन अंकित है-
अवतत्य धनुष्ट्वं सहस्राक्ष शतेषुधे ।

निशीर्य शल्यानां मुखा शिवो नः सुमना भव । ।- यजुर्वेद 16/13

अर्थात- हे सहस्राक्ष ! हे शत बाणों को धारण करने वाले ! धनुष को खींचकर और भाले की नोक को पैना करके, तुम हमारे लिए शिव और सुमन हो (हम पर उन्हें मत छोड़ो) ! यहां त्रिशूल को तो नहीं कहा गया है, परन्तु भाले से सम्भवतः त्रिशूल निष्पन्न हुआ हो, ऐसा प्रतीत होता है।

यजुर्वेद 16/28 में तो पशुपति, नीलकण्ठ, कृष्णकण्ठ आदि शब्द अभी अंकित है -

पशुपतये च नमो नीलग्रीवाय च शितिकण्ठाय च ।

अर्थात -पशुपति, नीलकण्ठ, कृष्णकण्ठ को नमन। इससे शिव का पशुपति रूप विकसित हुआ।


उनतीसवें मन्त्र में भी अनेक मुख्य विशेषण अंकित हैं –

नमः कपर्दिने च व्युप्तकेशाय च नमः सहस्राक्षाय च शतधन्वने च नमो गिरिशयाय च शिपिविष्टाय च नमो मीढुष्टमाय चेषुमते च ।।-यजुर्वेद 16/29

और फिर प्रारम्भ में ही अंकित यजुर्वेद 16/41 के प्रसिद्ध मन्त्र में तो उन्हें शम्भु, मयोभव, शंकर, मयस्कर, शिवाय, शिवतराय आदि नाम देने के पर्याप्त प्रमाण उपलब्ध हैं। इस प्रकार स्पष्ट है कि यजुर्वेद के सोलहवें अध्याय में अंकित मन्त्रों से ही शिव के अन्य नाम शम्भु और शंकर लिए गए हैं, भले ही मयोभव, मयस्कर और शिवतर नाम इतने लोकप्रिय नहीं हुए, फिर भी त्रिनेत्र, डमरू, पार्वती, गंगा, नन्दी, लिंग, आदि शब्द इस अध्याय में उल्लिखित नहीं हैं। इस प्रकार शिव नामक पौराणिक व्यक्तित्व के अनेकों लक्षणों का वैदिक आधार प्राप्य हैं। अन्य देवी-देवताओं, यथा विष्णु, ब्रह्मा, लक्ष्मी, सरस्वती, आदि के भी क्षीर-सागर, आदि, लक्षण वेद-मन्त्रों में ढूंढें जाने की आवश्यकता है ।

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