सच को सच कहना आसान कहाँ होता है,
सच अक्सर कड़वा होता सहन कहाँ होता है।
सबसे ज़्यादा डर अपनों की रुसवाई का,
ग़ैरों की रुसवाई का डर किसको होता है।
सब चाहते हैं दिन को हम भी रात बतायें,
बिन सच जाने सच्चाई से आँख चुरायें।
ग़लत सही पर वाद निरर्थक सम्बन्धों में,
अधर्मी का साथ निभाकर अपने कहलायें।
कैसे दिन को रात कहें हम समझ सके ना,
रिश्तों को कैसे बिसरायें हम समझ सके ना।
घटित हुआ जो नैनों के सम्मुख कैसे भूलूँ,
कैसे खुद को अंधा कह दें हम समझ सके ना।
अ कीर्ति वर्द्धन
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