पोषाहार वाला कोषागार
लेखक कमलेश पुण्यार्क ' गुरूजी'
भुलेटनभगत अपने मड़ई में बैठे सुबह की कुनकुनी धूप सेंक रहे थे। बैकग्राउण्ड म्यूजिक की तरह, नेपथ्य में भोजन-बनाने की तैयारी भी चल रही थी। उठ-उठकर बीच-बीच में मड़ई के दूसरे भाग में भी जा-आरहे थे। जमीन में बिछी टाट पर एक थाली रखी हुई थी, जिसमें थोड़े चावल पड़े थे, जिसे शायद बीन-बराकर रखा गया था; क्योंकि वहीं दूसरी तस्तरी में कंकड़-पत्थरों के साथ कुछ खास तरह का चावलनुमा पदार्थ भी था, जो देखने में तो चावल जैसा ही लग रहा था, किन्तु एक नजर में ही चावलों की कतार से बिलग किया जाने लायक था।
सामने की पंगडंडी से गुजर रहे मुझ पर नजर पड़ते ही भगतजी ने हांक लगायी — “किधर लपके चले जा रहे हो बबुआ ! कई दिन हो गए, तुमसे हाल-समाचार नहीं हुआ है।”
हालाँकि मैं थोड़ी जल्दवाजी में था, किन्तु उनके बुलावे को नज़रअन्दाज भी नहीं किया जा सकता। निकट पहुँचने पर देखा कि दो-तीन दिन का वासी अखबार भी वहीं पास में ही पड़ा हुआ है। पड़ोसियों की कृपा से वासी अखबार आसानी से उन्हें मिल जाया करते हैं और इसके साथ ही ताजा-तरीन ख़बरों पर थोड़ी टीका-टिप्पणी का मौका भी फोकट में ही मिल जाता है। राय देने की तो बहुत कम ही गुंजायश होती है, परन्तु राय सुनने की पूरी आजादी भगतजी मुहैया कराते रहते हैं। आज भी इसी उत्सुकता के साथ मैं उनकी मड़ई में दाखिल हुआ कि न जाने क्या मशबिरा मिलेगा।
मड़ई में दाखिल होते ही भगत ने कहा—“ ये देखो, कल ही मेरी दयावान पड़ोसन पांच-सात किलो चावल दे गयी है, ये कहकर कि उसके पोते को सरकारी स्कूल में ‘मिड-डे-मिल’ के कोटे में मिला है। उसके यहाँ तो ये सरकारी चावल कोई खाता-वाता नहीं, सब ‘सोनाचूर-बासमती’ पसन्द वाले हैं।“
क्षणभर दम लेकर, तर्जनी नचाते हुए भगतजी फिर कहने लगे— “ ‘दाल में काला ’ वाली कहावत तो तुमने जरुर सुनी होगी, यहाँ चावल में काला वाली बात लगी मुझे, इसलिए भोरम-भोर बैठ गया सूरज की रौशनी में चावल का अन्धकार पक्ष ढूढ़ने । ये शहरी कोठा-अंटारी वाले बिना सोआरथ के बदन का मैल तो किसी को दे ही नहीं सकते, ये इतना सारा चावल क्योंकर दानखाते में लुटा रहे हैं...हो न हो कोई बात है। ”— कहते हुए भगतजी ने तस्तरी की ओर इशारा किया— ” वो देखो, वहाँ पड़े हैं नकली चावल। मेरे एक शाम के बुतात से इतना सारा निकला है। अब इसीसे हिसाब लगा लो कि किलो में कितना और क्विंटल में कितना मिलावट होगा। ये बेईमान व्यापारी, बड़े-बड़े मैन्युफैक्चरर कहाँ तक गिरेंगे, कोई अन्दाजा नहीं। ये प्लास्टिक का चावल किसी किसान के खेत में तो उपजा नहीं है, उपजा है तो किसी इन्डस्ट्रीलिस्ट के विषखोपड़े से ही। छोटे बेईमानों को चावल में कंकड़-पत्थर मिलाने से जी नहीं भरा, तो अब उन्हें मदद करने बड़े बेईमान मैदान में कूद पड़े और इनका सीधा कॉन्टैक्ट खाद्यआपूर्ति मन्त्रालयों से हो गया। जरा विचारो , ये बनावटी चावल हमारे नौनिहालों के पेट में जायेंगे तो क्या हस्र होगा ! और घर में पकेगा, तो सिर्फ बच्चे ही थोड़े खायेंगे । “
मैंने चावल के कुछ दाने उठाए और दींअट पर रखी दियासलाई सुलगाकर उन्हें फूँक दिया। फिर कुछ असली चावलों को लेकर भी उसी तरह फूँका। दोनों के अवशेषों का अन्तर साफ था—प्लास्टिक जरा नांक-मुंह सिकोड़ कर बैठा रह गया, चावल जल कर खाक हो गया।
मैं ये प्रयोग कर ही रहा था कि एक अखबार का एक पन्ना उठाकर, भगतजी ने हालिया खबर से मुझे अगाह किया— “ये देखो बबुआ ! खाद्य-उपभोक्ता संरक्षण विभाग के सचिव की घोषणा है कि खाद्य सुरक्षा योजना के तहत सूबे के करोड़ों लाभुकों को बहुत जल्द ही पौष्टिक चावल की आपूर्ति की जायेगी। आवश्यक आपूर्ति और टेस्टिंग लैब के लिए टेंडर निकाले जा चुके हैं। ‘फोर्टीफाइड राइस कर्नेल’ की आपूर्ति करने वाली एजेंसियों का चयन हो चुका है। इस बात से भी मिल मालिकों को अगाह कर दिया गया है कि जो अपने यहाँ खास किस्म की मिलावट करने वाली ‘ब्लेंडिगमशीन’ नहीं लगायेगा, उसे एस.एफ.सी. व्यवसाय से अलग कर दिया जायेगा...। “
भगतजी की बातों पर हामी भरते हुए मैंने कहा—हाँ-हाँ, मैंने भी सुना था अनाजों में पोषक तत्त्वों की निरन्तर गिरावट रेकॉर्ड हो रही है। इसे सन्तुलित करने के लिए सरकारों की योजना है कि विशेष प्रकार के पोषक तत्त्वों के मिश्रण की व्यवस्था की जाए। एफ.आर.के. के जरिए जिंक, विटामिन व मिनरल्स की मिलावट की जायेगी चावलों में। सुनते हैं कि नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वें के मुताबिक पांच साल से कम उम्र के 48 प्रतिशत बच्चे कुपोषण के शिकार है। हमारे यहाँ 63 प्रतिशत महिलाएं भी ‘एनीमिक’ हैं। ”
मेरी बातों पर ताड़ते हुए भगतजी ने कहा— ” बातें तो बड़े पते की करती हैं हमारी सरकारें। बाबूमोशाय सोच तो बहुत दूर की रखते हैं। किन्तु कुत्ते की दुम टेढ़ी की टेढ़ी ही रह जाती है। सत्तर के दशक से ही गरीबी उन्मूलन हो रहा है। गली-कूचे का कचरा और गांव-गिरांव की गरीबी—दोनों को एक ही वटखरे से तौल दिया है। अपडेट आँकड़े बताते हैं कि अमीरों और गरीबों के बीच की खाई दिनोंदिन गहराते जा रही है। अमीरों के तोंद और अट्टालिकाएँ दिनोंदिन ऊँची और ऊँची होती जा रही हैं, तो दूसरी ओर गरीब मिटे जा रहे हैं, गरीबी-भूखमरी का तांडव वैसा ही जारी है। और हाँ, दूसरी ओर कुछ नये हालात तेजी से पनपते दीख रहे हैं—जनसंख्या विस्फोट के साथ बेरोजगारी बढ़ना स्वाभाविक है, किन्तु निकम्मों-कामचोरों का भी इज़ाफा हुआ है बहुत तेजी से और इसके लिए मुफ़्तखोरी की अहम भूमिका है। सबकुछ मुफ़्त में मिल ही जायेगा, तो कोई मिहनत क्यों करना चाहेगा... ! ”
भगतजी के विचारों का बेलगाम घोड़ा जब दौड़ने लगता है तो पुट्ठे पर हाथ नहीं धरने देता। फिर भी जरा हिम्मत करके टोकना पड़ा— इस पौष्टिक आहार वाले चावल के बावत आपका क्या ख्याल है भगतजी ?
सिर हिलाते हुए बोले— “मेरा दिमाग इस चावल के ईर्द-गिर्द ही घूम रहा है बबुआ। अल्लम-गल्लम जहर-माहुर खाकर, ऊपर से घी-मक्खन चुपड़ लेने से आदमी पहलवान नहीं हो सकता। कृषि विकास और पैदावार के नाम पर खेतों को विषैले रसायनों से पाट दिया। हाईब्रीड बीजों का इज़ाद करके खाद्य पदार्थों का प्राकृतिक गुण-धर्म-स्वाद सबकुछ नष्ट कर डाला। कद्दू जैसा करैला और बैंगन जैसा कद्दू फलाने लगे लैब में। अब राइस प्रॉसेसिंग प्लान्ट लगा रहे हैं। अरे उल्लू के पट्ठों ! ये तुम्हारा कृषि अनुसन्धान और विकास है तो फिर ह्रास किसे कहेंगे? विकास के नाम पर प्रकृति का अन्धाधुन्ध दोहन कर रहे हो। बोतल बन्द पानी बेचकर पेट नहीं भरा तो हवा बेचने की तैयारी में हो। रिफाइन्डशॉल्ट के नाम पर आयोडीन जहर खिलाये जा रहे हो, हार्टकेयर-कोलेस्ट्रोल फ्री का विज्ञापन दिखा-दिखाकर बकवास वाली एडीजेबल वायल की बीसियों वेराइटी उतार दिए बाजार में। ब्रेड, विस्किट, पिज्जा, वर्गर, नॉन-सान खिला कर, सौंफ-गोलकी वाले शीतल पेय की जगह पेप्सी-कोला पिलाकर रोग-बीमारियों की वस्ती बसा दिए। घर का तीसीतेल खाकर जितना स्वस्थ रहते थे लोग—क्या वो स्वास्थ्य वापस लौटा सकते हो? यदि हम तीसीतेल खाने लगें, तो फिर कौन मूर्ख तुम्हारा ओमेगा थ्री खरीदेगा? सरसो के साग के साथ जौ-बाजरे की रोटी तीसीतेल चुपड़ कर खाते थे और मस्त रहते थे, स्वस्थ रहते थे। जई (घोड़जई-जंगली जौ) मवेशी खाते थे और हठ्ठे-कठ्ठे रहते थे। अब उसका गुण भी तुम्हें मालूम चल गया है। पांच-दस रुपये वाला जई का आटा ओट्स के नाम पर चारसौ रुपये किलो बेच रहे हो— स्पेशल विस्किट फॉर्मेट में। सावां-टांगुन-कोदो-कंगुनी का जंगली चावल दो सौ रुपये किलो बेच रहे हो—हाईफाई टैग लगाकर। मानों किसी अन्तरिक्षीय पिण्ड से उतरा हुआ देवदूत हो, जिसके आशीर्वाद की सख्त जरुरत है हर इन्सान को। नाम बदलो, काम बनाओ...भय पैदा करो, काम चलाओ। शिक्षा और स्वास्थ्य की जागरूकता तो खूब पैदा की सांयन्स के नाम पर, विकास के नाम पर, किन्तु भारतीयता वाला कतरा-कतरा लहू निचोड़ लिया तूने। पारम्परिक गुरुकुल शिक्षा और पारम्परिक कृषि तकनीक से हम कितने स्वस्थ - सानन्द थे, उसे तूने इतिहास बना डाला। अरे वो मैकाले के विषधर वंशजों ! मेरा आर्यावर्त मुझे लौटा दो। मेरे स्वास्थ्य और कुपोषण की चिन्ता न करो। ‘जीवेम शरदः शतम् और सर्वे भवन्तु सुखिनः का सूत्र मुझे मालूम है। तुम इसके अढ़तिया मत बनो। ‘टर्मिनेलिया और एलोबेरा’ का गुण-धर्म-प्रयोग मालूम है मुझे। तुम इसके व्याख्याकार न बनो। आधुनिकता और विकास के नाम पर हर क्षेत्र में तुमने गुणवत्ता का सिर्फ नाश ही नाश किया है। बहुत दिखा लिए अपना दुधारी भोंड़ा नाटक। अब रेवटियाँ खोलो, कनात समेटो और चले जाओ सात समन्दर पार। मुझे नहीं चाहिए तुम्हारा ये पोषाहार, क्योंकि मुझे मालूम है कि ये है तुम्हारा कोषागार । ” --- 000---
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