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अरे जरा ग़ौर फरमाइए

अरे जरा ग़ौर फरमाइए

अरे न जाने कब किसी एक
 गुमनाम साहित्यकार कि कविता
हजारों दिलों को अपना बेबाक
गुलाम बनाए।।

न जाने कब एक गुमनाम शायर
एक कविता के माध्यम से ही
सुनो विश्व में छाए।।

मानती हूं, पढ़ती हूं, समझती हूं
उनकी दूजी कविता में इतना
सच में न दम समाए।।

पर ये जनता जनार्दन है यारों
एक कविता के माध्यम से ही
किसी धूंध में छुप कवि को
पलकों पर बिठाए।।

एसे अनेकों उदाहरण सच हम
इस ब्रम्हांड में खूब थे पाए
काल, कालांतर तक शायद आज भी,
 अभी भी यही होता चला आए।।

अरे जरा ग़ौर फरमाइए।।2।।
अपने सामान्य जज़्बात ही सजा
अपने दिलों कि आंतरिक प्रसन्नता
के लिए बस नगम़े लिख खुद कि
खुशी के लिए गुनगुनाइए।।

न जाने आप में से या हम में से
किसको जनता पलकों पर बिठा दे
बस कलम चला मुस्कुराइए।।


वीना आडवानी तन्वी
नागपुर, महाराष्ट्र
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