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बहुसंख्यक हिन्दुओं में जातिबोध एक घोर अपराध :-अशोक “प्रवृद्ध”

बहुसंख्यक हिन्दुओं में जातिबोध एक घोर अपराध :-अशोक “प्रवृद्ध”

उल्लेखनीय है कि वर्ण और जाति दो अलग- अलग व्यवस्थाएं हैं। वर्ण अतिप्राचीन व्यवस्था है। मनुस्मृति और अन्य वैदिक ग्रन्थों के अध्ययन से स्पष्ट होता है कि यह आदिकाल से ही भारत में प्रचलित है, और मौजूदा जाति प्रथा से यह भिन्न है। वेद आदि शास्त्रों के विचारों व मान्यताओं को गलत रूप में प्रस्तुत कर अज्ञानी व स्वार्थी लोगों ने गुण-कर्म-स्वभाव पर आधारित आदर्श सामाजिक व्यवस्था को बिगाड़ा है। मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम, षोडश कलायुक्त योगीश्वर श्रीकृष्ण, युद्धिष्ठिर, अर्जुनादि पांडवों के नाम के पीछे किसी जाति का नाम संयुक्त नहीं है। वस्तुतः उस काल तक भारत में जाति व्यवस्था थी ही नहीं। उस समय मानव जाति, देव जाति, असुर जाति, गंधर्व जाति, वानर जाति, सर्प जाति, किन्नर जाति आदि थे। यही कारण है कि तत्कालीन समय में एक जाति से दूसरे जाति में विवाह की मनाही थी और मान्यता थी कि जो एक जाति से दूसरी जाति में विवाह करेगा उसकी वर्ण संकर संतान उत्पति होगी और वह वंश नाशक होगी। महाभारत में अंकित पौराणिक कथाओं से इस तथ्य की पुष्टि ही होती है कि उस समय इस प्रकार की जातियों में विवाह हुए हैं, जिनसे वर्णसंकर पुत्र उत्पन्न हुए। भीम हिडिम्बा (हिड़अम्बा) की प्रेम कथा में भीम मानव जाति से थे, और हिडिम्बा असुर जाति से, परन्तु वनवास के समय पांडवों में से एक भीम को हिडिम्बा से प्रेम हो गया और फिर दोनों की शादी हो गई। इन से एक घटोत्कच नामक संतान भी प्राप्त हुई, जो वर्ण संकर था। इसी वर्ण संकर संतान के माध्यम से से श्रीकृष्ण ने गीता में इनसे उत्पन्न कुपरिणामों का उल्लेख करते हुए कहा है कि ऐसे कुपरिणाम कालांतर में मानव जाति और वंश के लिए हानिकारक होंगे। इसलिए एक रणनीति के तहत कृष्ण ने घटोत्कच का महाभारत युद्ध में इस्तेमाल करके उसको वीरगति को प्राप्त करवाया।

ध्यातव्य है कि जाति मनुष्य की मानव मानी गई है, न कि जो टाईटल अर्थात सरनेम हम अपने नाम के पीछे रख रहे हैं और उनके लिए मार काट कर रहे हैं। यह सत्य है कि हिन्दू अपने को जाति में बाँट कर ही आज इस कष्ट में पहुंचा है, और जाति ही तोड़ कर वापस अपने स्वर्णिम काल में पहुँच पायेगा। जन्मना वर्णव्यवस्था के सन्दर्भ में आज प्रचलित मतानुसार जिसके माता -पिता ब्राह्मण हों, वह ब्राह्मणी-ब्राह्मण होते हैं, परन्तु वैदिक मतानुसार जिसके माता-पिता अन्य वर्णस्थ हों, उनके सन्तान भी ब्राह्मण हो सकते हैं। प्राचीनकाल में भी ऐसे बहुत से हुए हैं, आज भी होते हैं और आगे भी होंगें। छान्दोग्य उपनिषद में जाबाल ऋषि अज्ञातकुल, महाभारत में विश्वामित्र क्षत्रिय वर्ण और मातंग ऋषि चाण्डाल कुल से ब्राह्मण वर्ण वाले हो गये थे। अब भी जो उत्तम विद्या स्वभाव वाला है वही ब्राह्मण के योग्य और मूर्ख शूद्र के योग्य होता है और वैसा ही आगे भी होगा। माता-पिता के रज-वीर्य से उत्पन्न शरीर ब्राह्मण शरीर नहीं होता, बल्कि व्यक्ति गुण कर्मों के योग से ब्राह्मण बनता है। जन्म से सभी शूद्र ही होते हैं, और विद्या प्राप्ति पश्चात गुण के आधार पर द्विज होकर ही ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र बनते हैं। ब्राह्मण बनने की विधि मनुस्मृति में बताते हुए कहा गया है कि पढ़ने-पढ़ाने, विचार करने-कराने. नानाविध होम के अनुष्ठान, सम्पूर्ण वेदों को शब्द, अर्थ, सम्बन्ध, स्वरोच्चारण सहित पढ़ने-पढ़ाने, पौर्णमासी, इष्टि आदि के करने, वैदिक विधिपूर्वक धर्म से सन्तानोत्पत्ति, वेदानुकूल ब्रह्मयज्ञ, देवयज्ञ, पितृयज्ञ, वैश्वदेवयज्ञ और अतिथियज्ञ, अग्निष्टोमादि-यज्ञ, विद्वानों का संग, सत्कार, सत्यभाषण, परोपकारादि सत्कर्म और सम्पूर्ण शिल्पविद्यादि पढ़ के दुष्टाचार छोड़ श्रेष्ठाचार में वर्त्तने से यह शरीर ब्राह्मी अर्थात ब्राह्मण का किया जाता है।

इससे स्पष्ट है कि रज-वीर्य के योग से वर्णव्यवस्था नहीं माना जा सकता है। श्रेष्ठ पिता का पुत्र भी दुष्ट होता देखा गया है, और जिसका पुत्र श्रेष्ठ उसका पिता दुष्ट होता गया है, और कहीं- कहीं तो दोनों ही श्रेष्ठ थवा दुष्ट होते देखे गये हैं। इसलिए जो ब्राह्मणादि उत्तम कर्म करते हैं, वे ही ब्राह्मणादि और जो निम्न कुल का व्यक्ति भी उत्तम वर्ण के गुण, कर्म, स्वभाव वाला हो तो उस को भी उत्तम वर्ण में और जो उत्तम वर्णस्थ हो के नीच काम करे तो उसको नीच वर्ण में गिनना अवश्य चाहिए। इस सम्बन्ध में यजुर्वेद 31/11 में कहा गया है-

ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद् बाहू राजन्यः कृतः।

ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पदभ्यामशूद्रो अजायत।।- यजुर्वेद 31/11

अर्थात- जो पूर्ण व्यापक परमात्मा की सृष्टि में मुख के सदृश सब में मुख्य उत्तम हो वह ब्राह्मण, बल-वीर्य नाम्नी बाहू जिसमें अधिक हो सो राजन्य अर्थात क्षत्रिय, कटि के अधो और जानु के उपरिस्थ भाग उरू अर्थात जो सब पदार्थों और सब देशों में ऊरू के बल से जावे आवे व प्रवेश करे, वह वैश्य और जो पग के अर्थात नीच अंग के सदृश मूर्खत्वादि गुणवाला हो वह शूद्र है।



शतपथ ब्राह्मणादि ग्रन्थ में भी इसी प्रकार कहा गया है-

यस्मादेते मुख्यास्तस्मान्मुखतो ह्यसृज्यन्त।

अर्थात- जिस से ये मुख्य हैं, इस से मुख से उत्पन्न हुए ऐसा कथन संगत होता है अर्थात् जैसा मुख सब अंगों में श्रेष्ठ है वैसे पूर्ण विद्या और उत्तम गुण, कर्म, स्वभाव से युक्त होने से मनुष्य जाति में उत्तम ब्राह्मण कहाता है।

वैदिक मतानुसार जब परमेश्वर के निराकार होने से मुखादि अंग ही नहीं हैं, तो मुख आदि से उत्पन्न होना बंध्या स्त्रियों के पुत्र होने की भांति असम्भव है। संसार में सभी मनुष्य गर्भाशय से उत्पन्न होते हैं। मुखादि से उत्पन्न न होकर ब्राह्माणादि संज्ञा का अभिमान करना व्यर्थ है, अर्थ का अनर्थ है। मनुस्मृति के अनुसार शूद्रकुल में उत्पन्न होके ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य के समान गुण, कर्म, स्वभाव वाला हो तो वह शूद्र ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य हो जाय तथा वैसे ही बाह्मण, क्षत्रिय और वैश्यकुल में उत्पन्न हुंआ हो और उस के गुंण, कर्म, स्वभाव शूद्र के सदृश हों तो वह शूद्र हो जाय। वैसे ही क्षत्रिय व वैश्य के कुल में उत्पन्न होके ब्राह्मण व शूद्र के समान होने से ब्राह्मण और शूद्र भी हो जाता है अर्थात चारों वर्णों में जिस-जिस वर्ण के सदृश जो-जो पुरुष स्त्री हो वह-वह उसी वर्ण में गिनी जायें । आपस्तम्ब वचन के सूत्र के अनुसार धर्माचरण से निकृष्ट वर्ण अपने से उत्तम-उत्तम वर्ण को प्राप्त होता है और वह उसी वर्ण में गिना जाये कि जिस-जिस के योग्य होवे। वैसे अधर्माचरण से उत्तम वर्ण वाला मनुष्य अपने से नीचे-नीचे वाले वर्ण को प्राप्त होता है ओर उसी वर्ण में गिना जाय। जैसे पुरुष जिस-जिस वर्ण के योग्य होता है वैसे ही स्त्रियों की भी व्यवस्था समझनी चाहिए। इस प्रकार होने से सब वर्ण अपने-अपने गुण, कर्म, स्वभावयुक्त होकर शुद्धता के साथ रहते हैं अर्थात ब्राह्मणकुल में कोई क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के सदृश न रहे। और क्षत्रिय वैश्य तथा शूद्र वर्ण भी शुद्ध रहते हैं। अर्थात् वर्णसंकरता प्राप्त न होगी। इससे किसी वर्ण की निन्दा या अयोग्यता भी न होगी। यह गुण व कर्मों से वर्णों की व्यवस्था कन्याओं की सोलहवें वर्ष और पुरुषों की पच्चीसवें वर्ष की परीक्षा में नियत करने का विधान है। और इसी क्रम से अर्थात ब्राह्मण वर्ण का ब्राह्मणी, क्षत्रिय वर्ण का क्षत्रिया, वैश्य वर्ण का वैश्या और शूद्र वर्ण का शूद्रा के साथ विवाह होना चाहिए। सभी अपने-अपने वर्णों के कर्म और परस्पर प्रीति भी यथायोग्य रहेगी। इसलिए बिना किसी पूर्वाग्रह से ग्रस्त हुए अपने तुच्छ स्वार्थो को त्याग कर जातिभेद मिटाना चाहिए, और मूर्खता व निहित स्वार्थों को त्याग कर सभी बहुसंख्यक भारतीयों को सिर्फ नाम से जीना सीखना चाहिए। जातियों का ढकोसला करने वाले किसी सहारे की तलाश चाहते है, और अपनी कोई पहचान बनाने में असमर्थ होते है। कांग्रेस और अन्य जातीय जनगणना की मांग करने वाली पार्टियाँ तो भारतीय बहुसंख्यक समाज को अगले सौ वर्षों तक इस जाति आधारित जनगणना से पीछे धकेलना चाहती हैं। हिन्दुओं के जाति के नाम लड़ते रहने हिंदुस्तान पर गैर हिन्दू और विदेशी ही राज करते और अपना घर भरते रहेंगे। इसलिए अपने पूर्वजों की भांति जाति विहीन समाज बनाकर उसको सींचना ही हितकर है। हाँ, शादी- व्याह में गोत्र का ध्यान रखे जाने की सख्त आवश्यकता है, क्योंकि एक गोत्र में शादी तो घोर आपति जनक है। गोत्र निर्धारण अत्यंत कठिन है, परन्तु एक ही परिवार को कम से कम पन्द्रह पीढ़ी तक एक दूसरे से सम्बन्ध बनाने के लिए प्रतिबंधित किया गया है। जैसे जाति से बाहर शादी करके रक्त दूषित होता है, इसी प्रकार बहुत नजदीकी रिश्तों, सगोत्र विवाह करके संतान में विकृति आती है और यह अनैतिक भी है। किसी भी सरकार अथवा राजनीतिक पार्टी द्वारा एक ही गोत्र में शादी किये जाने की स्वतन्त्रता देने सम्बन्धी कानून बनाना घोर आपत्तिजनक और भारत के बहुसंख्यक हिन्दू समाज के धार्मिक, सामाजिक कार्यों में सरासर दखलंदाजी है। जाति प्रथा, घूँघट प्रथा आदि बहुत सी कुरीतियाँ आज भी भारतीय समाज में है, जो गुलामी के समय मज़बूरी में हमें अपनाना पड़ा और हम उसको अपनी संस्कृति और परम्परा मानकर अब भी ढोह रहे है। पांच-सात पीढि़यों से आरम्भ हुई परम्पराओं को सनातन व्यवहार मानना उचित नहीं, वेद तथा सृष्टि के आरम्भ से आज पर्यन्त की परम्पराओं को मानना ही उत्तम है। इसलिए परमेश्वर द्वारा प्रकाशित वेदोक्त बातें ही सनातन और जो उसके विरुद्ध हैं वह सनातन कभी नहीं हो सकती।
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