पुस्तक समीक्षा : कोहरे में यात्रा
संस्मरण के बहाने समय की पड़ताल-- वेद प्रकाश तिवारी
राधेश्याम तिवारी हिंदी के एक महत्वपूर्ण कवि हैं। इनकी अनेक पुस्तकें आई हैं। ये अनेक विधाओं में लिखते रहे हैं ।मूलतः इनकी पहचान एक कवि के रूप में है पर इनकी नई पुस्तक कोहरे में यात्रा को देखते हुए ये गद्यकार के रूप में भी आकर्षित करते हैं।
यहाँ नामवर सिंह का कथन बड़ा सटीक प्रतीत होता है कि -- "अब अच्छा गद्य कवि ही लिख रहे हैं " ।
कोहरे में यात्रा इनके संस्मरण की पुस्तक है । इनकी पुस्तक को पढ़कर ऐसा लगता है कि यह संस्मरण किसी आग्रह या दुराग्रह से नहीं बल्कि तटस्थ और निसंग भाव से लिखे गये है।
इनके संस्मरणों की भाषा की जो भंगिमा है वह निश्चित रूप से आकर्षित करती है। साहित्यकार अपने जीवन और कालखंड को सहज भाव से अपनी कलम की धार देता है और उस सदी के पीढ़ी का मार्गदर्शन करता है साथ ही आने वाली पीढ़ी को भी प्रभावित करता है।
कोहरे में यात्रा पुस्तक में राधेश्याम तिवारी ने अपनी स्मृति पटल पर अंकित अत्यधिक मर्म स्पर्शी घटनाओं का जिक्र किया है। हालांकि कवि के कथनानुसार इस पुस्तक में संग्रहित अधिकांश संस्मरण हंस, ज्ञानोदय समकालीन भारतीय साहित्य, नई धारा, अलाव, बहुवचन, उत्तर प्रदेश आदि पत्र पत्रिकाओं में छपे हैं ,परंतु कवि राधेश्याम तिवारी ने इन रचनाकारों के करीब रहकर इन्हें महसूस किया और इस संस्मरण में ऐसी भी बातों का जिक्र किया है जिसे लोग किताब की भाषा नहीं बनाते हैं । इस पुस्तक में शामिल रचनाकार इस पीढ़ी को उपभोक्तावादी सोच से ऊपर उठाकर सीधे धरातल से जोड़ने की कोशिश करते है ।
कवि राधेश्याम तिवारी जब कवि त्रिलोचन से पहली बार मिलते हैं तो देखते हैं कि उनका बिस्तर जमीन पर है ।सिरहाने कुछ किताबें ,पेन ,पेपर और पास में एक लोटा पानी से भरा हुआ रखा हुआ है। यह सहजता साधु पुरुष की पहचान होती है । कवि से बातचीत के दौरान त्रिलोचन युवा कवियों के बारे में कहते हैं कि मौसम और खेती के ज्ञान के बिना गांव पर कोई कविता कैसे लिख सकता है अर्थात जो जिस अनुभव से गुजरता है वो उसे बखूबी जान पाता है। त्रिलोचन जब संसार से विदा होते हैं तो नामवर सिंह उन्हें कंधा देते हैं । डॉक्टर विश्वनाथ तिवारी आंखों में आंसू भरे कहते हैं - अनाम कवियों का सबसे बड़ा मसीहा चला गया । कवि राधेश्याम तिवारी ने इन क्षणों का मार्मिक चित्रण किया है । वे अपनी भाषा में यह संकेत देते हैं कि रचनाकार कभी मरता नहीं वो अपनी रचनाओं के सहारे निकल पड़ता है अनंत यात्रा पर ।
कवि विष्णु प्रभाकर से मिलकर बहुत प्रभावित होता है । वह विष्णु प्रभाकर जी के इस कथन का जिक्र करता है कि हमारी भाषा सिर्फ हमारे चरित्र का ही नहीं बल्कि राष्ट्र के चरित्र को भी उजागर करती है। यह कथन एक पाठ है उन लोगों के लिए जो अमर्यादित जीवन जीते हैं।
यही बात दूसरे अर्थों में नामवर सिंह भी कहते हैं ।
कवि राधेश्याम तिवारी ने नामवर सिंह की इस बात को रेखांकित किया है कि एक प्रश्न के जवाब में नामवर सिंह कहते हैं --
" मैं भगवदगीता और राम चरित मानस को बचाने की पहल करता हूँ " ।
उनका यह कथन मनुष्यता को बचाने की जोरदार कोशिश है ।
कवि राधेश्याम तिवारी कुँवर नारायण की स्मृति को याद करते हुए उनकी इस पीड़ा को लिखते हैं कि कुँवर जी कवि शिवनारायण से एक संदर्भ में अपनी बात कहते हैं कि "नालंदा मेरी स्मृति में है मैं इसे खंडित होते नहीं देख सकता वहाँ जाने पर नालंदा नहीं मिला तो बहुत दुख होगा "कवि कुंवर नारायण का यह कथन साबित करता है कि जो स्मृतियां आगे बढ़ने का साहस देती हैं यदि वो खंडित होने लगें, प्रेरणा के स्त्रोत खत्म होने लगें तो उसे सहन करना कठिन हो जाता है । एक संघर्षशील आदमी के लिए ऐसे स्थान धरोहर की तरह होते हैं जिसकी सुरक्षा हर हाल में होनी चाहिए।
कवि राजेंद्र यादव को याद करते हुए उनके हँसोड, मजाकिया अंदाज से उनके जिंदादिली का परिचय कराता है तथा उनके गुस्से के पीछे के प्रेम को भी दर्शाता है । वो अपने मित्रों की आलोचना करते और सुनते हुए भी उन्हीं के बीच जीना चाहते हैं, यह एक रचनाकार ही कर सकता है जब कि ऐसा देखने को कम मिलता है।
कवि जब केदार नाथ सिंह से दिल्ली उनके आवास पर मिलता है तो उसे ऐसा लगता है जैसे वह अपने घर आया है। केदार नाथ सिंह की माँ का भोजपुरी में उनका परिचय पूछना और केदार नाथ जी का भोजपुरी में संवाद करना यह साबित करता है कि एक रचनाकार अपनी भाषा और संस्कृति को कभी नहीं छोड़ता । उसकी मातृ भाषा उसके व्यक्तित्व विकास में अपना अहम योगदान देती है।
कोई भी कवि जब गहरे चिंतन में डूबता है तो ज्ञान के साथ अध्यात्मिक शक्तियों भी उसके करीब आने लगती हैं।
कैलाश वाजपेयी एक ऐसे ही रचनाकार हैं । कवि राधेश्याम तिवारी उनसे मिलने और उनकी रचनाओं को पढ़ने के बाद
ऐसा ही महसूस करते हैं । कैलाश जी की रचनाएँ अत्यंत सारगर्भित है । उनकी ये पंक्ति-- " शरीर सहयोग नहीं करता/वर्ना कोई क्यों मरता
बहुत कुछ बयां करती हैं ।
कवि को महीप सिंह एक अच्छे लेखक और एक अच्छे आदमी दोनों लगे। रचनाकार होना और एक अच्छा आदमी होना दोनों अलग है ये बात जरा अप्रासंगिक है पर कवि यह अनुभव करता है कि महीप सिंह की रचनाएँ मनुष्यता बचाने की भरपूर कोशिश कर रही हैं इसलिए जाहिर कि वे एक अच्छे आदमी हैं।
हरिपाल त्यागी भी इनसे मिलते- जुलते रचनाकार हैं वो भी प्रेम के पक्ष में खड़े हैं इसलिए अटल जी व बच्चन जी के व्यंग का भी वे बडी शालीनता के साथ जवाब देते हैं। रचनाकार कितना शालीन हो सकता है यह कोई हरिपाल त्यागी जी से सीखे । मैंने उन्हें हमेशा मुस्कुराते हुए देखा है। कवि राधेश्याम जी के साथ दो बार हरिपाल त्यागी जी से मुझे भी मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। वे एक बहतरीन चित्रकार और रचनाकार दोनों थे।
कवि बाबा नागार्जुन से मिलकर एक बुजुर्ग रचनाकार में एक जिंदादिल इंसान को देखता है । कवि उनसे युवा कवियों की चुनौतियों के संबंध में एक मुलाकात के दौरान चर्चा करता है तो एक प्रश्न के जवाब में नागार्जुन कहते हैं--
नामचीन रचनाकार यदि नये रचनाकारों को इस्तेमाल करें तो उनकी गतिविधियों को जान कर भी उनसे मिलो और उन्हें अपनी रचनाओं के लिए कच्चे माल की तरह इस्तेमाल करो। बाबा नागार्जुन का यह कथन साहित्यकारों को कई अर्थों में शिक्षित करता है।
कुबेर जी में ऐसी ही कुछ बातें दिखाई देती हैं।
किसी बड़े पद पर बैठा हुआ आदमी जब मजे हुए साहित्यकार से अपनी साहेबगिरी दिखाता है तो साहित्यकार उसे मर्यादित भाषा में जवाब देता है । कुबेर जी को यह आभास होता है कि शराब का नशा वास्तविक आदमी को प्रगट कर देता है जो उसकी पोल खोल देता है। वे कवि राधेश्याम तिवारी का सम्मान करते हैं पर कवि उन्हें अपनी भाषा में शराब छोडने की नसीहत बातों- बातों में देता रहता है और उन्हें साहित्य की ताकत का आभास भी कराता है। तभी तो कुबेर दत्त साहित्य का साथ
नहीं छोड़ते हैं।
यदि दिल जीतना हो तो कोई महेश दर्पण जी से सीखे।
एक मजे हुए साहित्यकार और वरिष्ठ पत्रकार होने के साथ एक अच्छे आदमी हैं महेश दर्पण। आप जब भी अपरिचित के बीच भी होते हैं तो आदमी आपकी शालीनता का कायल हो जाता है। तभी तो आपका कोई दुश्मन नहीं है।
एक रचनाकार की छवि ऐसी ही होनी चाहिए।
कवि राधेश्याम तिवारी जी के साथ मैं भी इनसे मिला हूं।
कवि , रचनाकार राधाकृष्ण की पीड़ा को बड़े ही मार्मिक ढंग से रेखांकित करता है। उनकी रचनाओं को जैसे किसी बॉक्स में बन्द कर दिया गया और उन्हें जो मंच मिलना चाहिए वो खराब सिस्टम की वजह से नहीं मिला। इस संदर्भ में नामवर सिंह का यह कथन साहित्यकारों के लिए एक सीख है कि
"आज हिंदी में जो कुछ भी लिखा जा रहा है वह दिल्ली के बाहर ही लिखा जा है "।
यह सच है कि वरिष्ठ रचनाकारों को राधाकृष्ण जैसे रचनाकार को मंच देना चाहिए था क्यों कि उनकी रचनाएँ समय के साथ खड़ी थी।
कवि राधेश्याम तिवारी दिल्ली से बेतिया की यात्रा पर निकलते हैं तो ट्रेन के साथ उनकी मानसिक यात्रा भी शुरू हो जाती है और घना कोहरा भी ट्रेन की गति के साथ -साथ चलता है। ये कोहरा दिन में कुछ पल के लिए छँट जाता है। पर कवि के अंतर्मन में गंतव्य तक पहुँचने और दिल्ली वापसी तक ये कोहरा अनेक सवालों, संवेदना से जुड़े विचारों और मित्रों से मिलने की उत्कंठा को समेटे रखता है।
यह सच है कि कोहरे में यात्रा ,जीवन मूल्यों को आत्मसात करने वाले मनुष्य की जीवन के विसंगतियों के साथ जूझते हुए चलने की यात्रा है। जिसमें वह उन चीजों को बचा लेना चाहता है जो जुड़ें हैं समय के साथ।
कुंभ में यात्रा शीर्षक संस्मरण में कवि ,उज्जैन की यात्रा पर निकलता है। जहाँ उसकी उत्कंठा इस बात से है कि उसे कालीदास की नगरी में जाना है जिनका कहना था--
संसार के सारे रत्न उज्जैन में हैं । कालीदास स्वयं विक्रमादित्य के दरबार के रत्न थे । कवि, कालिदास की रचनाओं से बहुत प्रभावित है साथ ही महाकाल की नगरी जिसकी चर्चा पुराणों मे है ,उस उज्जैन में कविता पाठ किसी सौभाग्य से कम नहीं है ।
पर कवि वहाँ यात्रा के दौरान युवा ड्राईवर की पीड़ा को शामिल करते हुए यह बताने की कोशिश करता है कि शराब उज्जैन जैसे अध्यात्मिक शहर में भी अपनी जड़ें जमाये हुए है ।
कवि बादलों को देखकर कालीदास की रचनाओं को याद करता है और यह सोचता है कि कालीदास ने मेघों को दूत क्यों बनाया ? शायद इसलिए कि मेघों की रचना भी पंच महाभूतों से हुई है जिससे यह शरीर बना है।
उसका यह सोचना साबित करता है कि साहित्य और अध्यात्म जब अपनी पराकाष्ठा पर पहुँचते हैं तो एक दूसरे में समाहित हो जाते हैं।
कवि ने उज्जैन का इतिहास इस संस्मरण में संक्षेप में लिखा है जो एक बेहतर जानकारी का परिचायक है।
कवि जब साहित्यिक यात्रा पर राँची जाता है तो वहाँ अपने मित्र लेखक, लेखिकाओं की शरीरिक और मानसिक तकलीफ से रूबरू होता है पर उस तकलीफ से ज्यादा तकलीफ राधाकृष्ण की रचनाओं को लेकर है जिसे साहित्य जगत भुला दिया। कवि शाम के वक़्त ट्रेन से गुजरते हुए विशाल पहाडों को अंधेरों की गिरफ्त में आता देख यह महसूस करता है कि पहाड़ अंधेरे से बड़ा नहीं हो सकता पर पहाडों पर कहीं -कहीं रौशनी देखकर कवि,राधाकृष्ण को याद करता है। सोचता है, राधाकृष्ण भी इस अंधेर युग में अपनी रोशनी बिखेरने का काम करते है। कवि सबको इस जिम्मेदारी का एहसास कराता है कि इस रौशनी को बचाकर रखना हम सबकी जिम्मेदारी है क्योंकि साहित्य का पतन राष्ट्र के पतन का द्योतक है ।
कवि राधेश्याम तिवारी द्वारा लिखित यह पुस्तक निश्चित ही समकालीन रचनाकारों और आने वाली पीढ़ियों के लिए एक वरदान साबित होगी।
जिस प्रकार श्री कृष्ण ने जीवन के गूढ़ रहस्यों को अर्जुन के समक्ष उजागर किया और अर्जुन के हर सवालों का जवाब इस प्रकार दिया जो मानव धर्म और मर्यादा से बंधे हैं, उसी प्रकार इस संस्मरण में साहित्यकारों का धर्म, उसका आचरण , साहित्य की मर्यादा और रचनाकारों के सामने आने वाली कठिनाइयाँ जैसी अनेक चीजों का सार संकलन इस संस्मरण में मौजूद है जिसे कवि राधेश्याम तिवारी ने बड़ी बारीकियों से लिखा है जो मौलिक और निष्पक्ष है।
मैं इस पुस्तक के लेखक राधेश्याम तिवारी को हृदय की अनंत गहराइयों से धन्यवाद देता हूँ और आशा करता हूँ कि जिस प्रकार इन्होंने इस संस्मरण के माध्यम से साहित्य को भरपूर प्राण वायु देने का काम किया है ,यह एक बड़ा कार्य है । इनकी साहित्य साधना सफल हो , इन्हें ढेरों शुभकामनाएं। हमारे खबरों को शेयर करना न भूलें| हमारे यूटूब चैनल से अवश्य जुड़ें https://www.youtube.com/divyarashminews https://www.facebook.com/divyarashmimag
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