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शहीदी दिवस (23 मार्च) पर विशेष कर चले हम फिदा जान-ओ-तन साथियों...

शहीदी दिवस (23 मार्च) पर विशेष कर चले हम फिदा जान-ओ-तन साथियों...

(पं. आर.एस. द्विवेदी-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)
आज हम अपने भारत देश में आजादी की सांस ले रहे हैं तो स्वच्छ हवा के लिए वातायन खोलने वालों में शहीद भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव भी थे। इन तीनों युवाओं ने 23 मार्च 1931 को फांसी के फंदे पर झूलते हुए कहा था-कर चले हम फिदा जान-ओ-तन साथियों अब तुम्हारे हवाले वतन साथियों। बहरहाल, हमने वतन को कैसे संभालकर रखा है, इस पर चर्चा फिर कभी, अभी तो हम इन शहीदों को बलिदान दिवस पर याद कर रहे हैं।
इन शहीदों में राजगुरु का जन्म 24 अगस्त 1908 को पुणे के पास खेड़ नामक गांव (वर्तमान में राजगुरू नगर) में देशाथा ब्राह्मण परिवार में हुआ था। पूरा नाम शिवराम राजगुरू था। मात्र 6 साल की उम्र में उन्होंने पिता को खो दिया था। पिता के निधन के बाद वे वाराणसी विद्याध्ययन करने और संस्कृत सीखने आ गये थे। यहीं पर उनका सम्पर्क क्रांतिकारियों से हुआ था। चंद्रशेखर आजाद से प्रभावित होकर हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी से जुड़ गये। ब्रिटिश अधिकारियों के मन में खौफ पैदा करना और जंग-ए-आजादी के लिए जागरण ही जीवन का ध्येय बनाया। राजगुरू 19 दिसंबर 1928 को भगत सिंह और सुखदेव के साथ मिलकर ब्रिटिश पुलिस आफीसर जेपी साण्र्डस की हत्या की थी। यह हत्या लाला लाजपत राय की मौत का बदला था।
भगत सिंह को भारतीय राष्ट्रवादी आंदोलन के सबसे प्रभावशाली क्रांतिकारियों में से एक माना जाता है। वो कई क्रान्तिकारी संगठनों के साथ मिले और उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन में अपना बहुत बड़ा योगदान दिया था। भगत सिंह जी की मृत्यु 23 वर्ष की आयु में हुई जब उन्हें ब्रिटिश सरकार ने फांसी पर चढ़ा दिया।
भगत सिंह का जन्म 27 सितंबर, 1907 को लायलपुर जिले के बंगा में हुआ था, जो अब पाकिस्तान में है। उनका पैतृक गांव खट्कड़ कलां है जो पंजाब, भारत में है। उनके जन्म के समय उनके पिता किशन सिंह, चाचा अजित और स्वर्ण सिंह जेल में थे। उन्हें 1906 में लागू किये हुए औपनिवेशीकरण विधेयक के खिलाफ प्रदर्शन करने के जुल्म में जेल में डाल दिया गया था। उनकी माता का नाम विद्यावती था। भगत सिंह का परिवार एक आर्य-समाजी सिख परिवार था। भगत सिंह करतार सिंह सराभा और लाला लाजपत राय से अत्याधिक प्रभावित रहे।
उनके एक चाचा, सरदार अजित सिंह ने भारतीय देशभक्त संघ की स्थापना की थी। उनके एक मित्र सैयद हैदर रजा ने उनका अच्छा समर्थन किया और चिनाब नहर कॉलोनी बिल के खिलाफ किसानों को संगठित किया। अजित सिंह के खिलाफ 22 मामले दर्ज हो चुके थे जिसके कारण वो ईरान पलायन के लिए मजबूर हो गए। उनके परिजन गदर पार्टी के समर्थक थे और इसी कारण से बचपन से ही भगत सिंह के दिल में देश भक्ति की भावना उत्पन्न हो गयी। भगत सिंह ने अपनी 5वीं तक की पढाई गांव में की और उसके बाद उनके पिता किशन सिंह ने दयानंद एंग्लो वैदिक हाई स्कूल, लाहौर में उनका दाखिला करवाया। बहुत ही छोटी उम्र में भगत सिंह, महात्मा गांधी जी के असहयोग आन्दोलन से जुड़ गए और बहुत ही बहादुरी से उन्होंने ब्रिटिश सेना को ललकारा। 13 अप्रैल 1919 को जलियांवाला बाग हत्याकांड ने भगत सिंह के बाल मन पर बड़ा गहरा प्रभाव डाला। उनका मन इस अमानवीय कृत्य को देख देश को स्वतंत्र करवाने की सोचने लगा। भगत सिंह ने चंद्रशेखर आजाद के साथ मिलकर क्रांतिकारी संगठन तैयार किया।
लाहौर षड़यंत्र मामले में भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरू को फांसी की सजा सुनाई गई और बटुकेश्वर दत्त को आजीवन कारावास दिया गया। भगत सिंह को 23 मार्च, 1931 की शाम सात बजे सुखदेव और राजगुरू के साथ फांसी पर लटका दिया गया। तीनों ने हंसते-हँसते देश के लिए अपना जीवन बलिदान कर दिया। भगत सिंह एक अच्छे वक्ता, पाठक व लेखक भी थे। उन्होंने कई पत्र-पत्रिकाओं के लिए लिखा व संपादन भी किया।
उनकी मुख्य कृतियां हैं, एक शहीद की जेल नोटबुक (संपादन भूपेंद्र हूजा), सरदार भगत सिंह-पत्र और दस्तावेज भगत सिंह के संपूर्ण दस्तावेज । शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले, वतन पर मरने वालों का यही बाकी निशां होगा...जी हां, यही जज्बा वतन के लिए हंसते-हंसते जान लुटाने वाले शहीद वीर राजगुरू का था। भगतसिंह और सुखदेव का नाम तब तक अधूरा है जब तक उनके साथ राजगुरू का नाम लिया जाए।भारत के इस लाल का पूरा नाम शिवराम हरि राजगुरु था, ये महाराष्ट्र के रहने वाले थे। भगत सिंह व सुखदेव के साथ ही इन्हें भी 23 मार्च 1931 को फांसी दी गई थी। सुखदेव (वर्ष 1907-1931) एक प्रसिद्ध भारतीय क्रांतिकारी थे, जिन्होंने स्वतंत्रता के लिए भारत के संघर्ष में एक प्रमुख भूमिका निभाई थी। वह उन महान भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों में से हैं, जिन्होंने अपने देश की स्वतंत्रता के लिए अपना जीवन बलिदान कर दिया। इनका पूरा नाम सुखदेव थापर है और इनका जन्म 15 मई 1907 को हुआ था। इनका पैतृक घर भारत के लुधियाना शहर, नाघरा मोहल्ला, पंजाब में है। इनके पिता का नाम राम लाल था। अपने बचपन के दिनों से, सुखदेव ने उन क्रूर अत्याचारों को देखा था, जो शाही ब्रिटिश सरकार ने भारत पर किए थे, जिसने उन्हें क्रांतिकारियों से मिलने के लिए बाध्य कर दिया और उन्होंने भारत को ब्रिटिश शासन के बंधनों से मुक्त करने का प्रण किया।
सुखदेव थापर हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन (एचएसआरए) के सदस्य थे और उन्होंने पंजाब व उत्तर भारत के अन्य क्षेत्रों के क्रांतिकारी समूहों को संगठित किया। एक देश भक्त नेता सुखदेव लाहौर नेशनल कॉलेज में युवाओं को शिक्षित करने के लिए गए और वहाँ उन्हें भारत के गौरवशाली अतीत के बारे में अत्यन्त प्रेरणा मिली। उन्होंने अन्य प्रसिद्ध क्रांतिकारियों के साथ लाहौर में ‘नौजवान भारत सभा’ की शुरुआत की, जो विभिन्न गतिविधियों में शामिल एक संगठन था। इन्होंने मुख्य रूप से युवाओं को स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने और सांप्रदायिकता को खत्म करने के लिए प्रेरित किया था।
सुखदेव ने खुद कई क्रांतिकारी गतिविधियों जैसे वर्ष 1929 में ‘जेल की भूख हड़ताल’ में सक्रिय भूमिका निभाई थी। लाहौर षडयंत्र के मामले (18 दिसंबर 1928) में उनके साहसी हमले के लिए, उन्हें हमेशा भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास में याद किया जाएगा, क्योंकि उसमें इन्होंने ब्रिटिश सरकार की नींव को हिलाकर रख दिया था।
सुखदेव, भगत सिंह और शिवराम राजगुरु साथी थे, जिन्होंने मिलकर वर्ष 1928 में पुलिस उप-अधीक्षक जे. पी. सॉन्डर्स की हत्या की थी, इस प्रकार के षडयंत्र को बनाकर पुलिस उप-अधीक्षक को मारने का कारण वरिष्ठ नेता, लाला लाजपत राय की मौत का बदला लेना था। नई दिल्ली (8 अप्रैल 1929) की सेंट्रल असेंबली में बम विस्फोट करने के कारण, सुखदेव और उनके सहयोगियों को गिरफ्तार कर लिया गया और उन्हें इस अपराध का दोषी ठहराया गया तथा फैसले के रूप में इन्हें मौत की सजा सुनाई गई। 23 मार्च 1931 को, तीन बहादुर क्रांतिकारियों, भगत सिंह, सुखदेव थापर और शिवराम राजगुरू को फाँसी दी गई, जबकि उनके शरीर का सतलज नदी के किनारे गुप्त रूप से अंतिम संस्कार कर दिया गया। सुखदेव थापर सिर्फ 24 वर्ष के थे, जब वह अपने देश के लिए शहीद हो गए थे। हालांकि, उन्हें हमेशा भारत की आजादी के लिए अपने साहस, देशभक्ति और जीवन त्याग के लिए याद किया जाएगा।
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