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होली का हुड़दंग

होली का हुड़दंग
पं.मार्कण्डेय शारदेय

होली ने हुड़दंग किया मेरे ऊपर भी आके।
घर से निकला होली पर कुछ सोच रहा था मन में।
क्यों ऐसे त्योहार बने हैं नाहक इस जीवन में।
घूम रहे हैं लोग आजकल पागल वेश बनाके।
होली ने हुड़दंग किया मेरे ऊपर भी आके।।
आगे बढ़ा तभी कौए ने की ऊपर से विष्ठा।
फैली मुखड़े पर आकर दी उसने यही प्रतिष्ठा।
पोंछा, समझा पक्षी भी हैं जाते जश्न मनाके।
होली ने हुड़दंग किया मेरे ऊपर भी आके।।
एक पानखौके जी से कुछ लगा खड़ा बतियाने।
सहसा खाँसी चढ़ी लगे बेढंगा मुँह बिजकाने।
खाँसा तन पर पड़ी पीक फब्बारे-सी फर्राके।
होली ने हुड़दंग किया मेरे ऊपर भी आके।।
पीता था मैं चाय चायखाने के पास खड़ा हो।
एक चित्र यों देख रहा था, जैसे वहीं गड़ा हो।
कुत्ते ने तब टाँग पखारी अपनी डाँग उठाके।
होली ने हुड़दंग किया मेरे ऊपर भी आके।।
विदा मिली इन तीनों से तो छत से बड़ी बुहारन।
अच्छी तरह हुआ मेरा इस होली में अभिनन्दन।
भींगी बिल्ली-सा घर लौटा मन ही मन पछताके।
होली ने हुड़दंग किया मेरे ऊपर भी आके।।
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