आकाश देखें, आसमान नहीं ... क्षितिज निहारिकाओं से भी आगे है!
संकलन अश्विनी कुमार तिवारी
मैंने लिखा है आकाश देखें, आसमान नहीं। इन शब्दों का अंतर बहुत महत्त्वपूर्ण है। आकाश हमारी जातीय परम्परा का शब्द है जिसमें प्र'काश' निविष्ट है। आसमान विदेशी स्रोत का शब्द है जिसकी सङ्गति अश्म से बैठती है - पत्थर, जड़, औंधे कटोरे सा ऊपर धरा। दृष्टि का अंतर है।
सीमाओं के होते हुये भी यह आत्मविश्वास से भरा भारत है जिसका ढेर सारा श्रेय उस 'पंतप्रधान' को जाता है जो अप्रतिहत ऊर्जा, कर्मठता, समर्पण एवं निश्चय का स्वामी है, जो गहराती रात में भी वैज्ञानिकों के साथ उनका उत्साह बढ़ाता वहाँ उपस्थित था। यह वह भारत है जो दुर्घटनाओं पर वक्षताड़न करता रुकता नहीं है, उपाय कर आगे बढ़ लेता है। आश्चर्य नहीं कि जनसामान्य भी कल रात जगा हुआ था। ऐसे अवसर एक कर देते हैं।
पुरी के शंकराचार्य की प्रक्षेपण पूर्व 'आशीर्वाद यात्रा' हो या प्रक्षेपित होते चंद्रयान को उत्सुकता के साथ निहारते धर्मगुरु; पुरी के प्रवक्ताओं की कथित वैदिक गणितीय बातों के होते हुये भी, धर्म व आध्यात्म से जुड़े गुरुओं का इस अभियान से जुड़ाव ध्यातव्य है। सामान्य घरनी से ले कर धर्मपीठ तक चंद्रयान अभियान ने समस्त भारत को जोड़ दिया। तब जब कि विघटनकारी शक्तियों का वैचारिक विषतंत्र अपने उच्च पर है, राष्ट्र को एक सूत्र में जोड़ता ऐसा कोई भी अभियान अभिनंदन योग्य है। लखनऊ से ले कर बंगलोर तक, पूरब से ले कर पश्चिम तक, समस्त भारतभू से आते वैज्ञानिक इस अभियान में लगे। त्वरित उद्गार एवं सामाजिक सञ्चार तंत्र के इस युग में यह वह समय भी है जब गोद में पल रही भारतद्वेषी एवं भारतद्रोही शक्तियाँ नग्न भी होंगी, कोई सूक्ष्मता से कलुष परोसेगा तो कोई स्थूल भौंड़े ढंग से, नंगे वे सब होंगे। ऐसे अवसरों का भरपूर उपयोग तो होना ही चाहिये, इन्हें भविष्य हेतु चिह्नित भी कर लिया जाना चाहिये।
एक प्रश्न उठता है कि इसरो को चंद्रयान प्रेषित करने हेतु इतने लम्बे समय एवं जटिल प्रक्रिया की आवश्यकता क्यों पड़ी? बहुत सरल ढंग से कहें तो इस कारण कि हमारे पास अभी भी उतनी शक्तिशाली प्रणोदयुक्ति नहीं है जो सीधे चंद्रमा पर उतार दे। वर्षों पहले क्रायोजेनिक इञ्जन का परीक्षण हुआ था किंतु आगामी वर्षों में जो उपलब्धि मिल जानी चाहिये थी, नहीं मिली। वास्तविकता यह है कि हार्डवेयर के क्षेत्र में हम अभी पीछे हैं। उस पर काम किया जाना चाहिये। आशा है कि इस घटना के पश्चात शक्तिशाली प्रणोद युक्ति के विकास पर ठोस काम किया जायेगा।
सीमित हार्डवेयर के होते हुये इस अभियान में जो प्रक्रिया अपनाई गई, उसके द्वारा चंद्र के इतना निकट पहुँचा देना अपने आप में महती उपलब्धि है तथा प्रतिद्वन्द्वी महाशक्तियाँ मन ही मन ईर्ष्या कर रही होंगी।
इस प्रक्रिया में गुरुत्वाकर्षण एवं प्रणोद का सम्मिलित उपयोग किया जाता है। यान को पहले धरती की परिक्रमा करते हुये संवेग प्राप्त कराया जाता है। मोटा मोटी प्रक्रिया को कुछ कुछ वनवासी गोफन से समझा जा सकता है, जिसमें वे अपने यंत्र में पत्थर रख कर घुमाते घुमाते उसे संवेग देते हैं तथा उपयुक्त समय पर, पर्याप्त गति प्राप्त कर लेने पर छोड़ देते हैं।
निश्चित संवेग की वह मात्रा हो जाने पर जब कि यान पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण से मुक्त हो कर चंद्र की कक्षा तक पहुँचने योग्य हो जाता है, उसे धक्का दे पृथ्वी के आकर्षण से मुक्त कर दिया जाता है तथा वह आगे चंद्र के गुरुत्व के आकर्षण में उसके 'उपग्रह' समान हो जाता है। परिक्रमा करते यान से प्रेक्षकयन्त्र युक्त घटक चन्द्र धरातल पर उतारा जाता है। यह प्रक्रिया भी चरणबद्ध होती है। पूरी प्रक्रिया बहुत ही जटिल, सूक्ष्म एवं परिशुद्ध गणना एवं कार्रवाई की माँग करती है। कोण में या समय में सेकेण्ड की विचलन या विलम्ब भी यान को सदा सदा के लिये अंतरिक्ष में व्यर्थ यायावर बना सकते हैं।
असफलता में भी ऐसा बहुत कुछ है जो भासमान है। हम सक्षम हैं, सीमित हार्डवेयर के होते हुये भी हमने पूर्णत: देसी तकनीक से वह कर दिखाया है जो हार्डवेयर सक्षम देश कर पाते हैं, असफलतायें तो लगी ही रहती हैं।
अमेरिका का अपोलो १३ न भूलें जब कि उससे पूर्व के सफल अभियान अनुभव होते हुये भी एक चूक ने असफलता के साथ साथ यात्रियों के प्राण भी संकट में डाल दिये थे तथा उन्हें जीवित लौटा लाने की प्रक्रिया में बहुत कुछ सीखने को मिला।
न भूलें वह घटना जब कि विण्डोज के नये संस्करण के लोकार्पण को मञ्च पर चढ़े बिल गेट्स को कुछ ही मिनटों में असफलता के कारण उतरना पड़ा था। माइक्रोसॉफ्ट रुका नहीं, आगे बढ़ गया।
इस अभियान को धन का नाश बताते हुये रोटी एवं निर्धनता को रोते जन को जानना चाहिये कि ऐसे अभियानों की ऐसी सैकड़ो पार्श्व उपलब्धियाँ होती हैं जो जन सामान्य के कल्याण में काम आती हैं। ये भविष्य में एक निवेश की भाँति भी होते हैं।
असफलता नहीं उपलब्धियाँ देखें। अंधकार नहीं, उस प्रकाश पर केंद्रित रहें जो भेद दर्शा रहा है। जड़ नहीं चैतन्यबुद्धि बनें। आसमान नहीं, आकाश देखें! उड़ाने आगे भी होंगी।
हमारा क्षितिज निहारिकाओं के पार तक पसरा है और हमारी गुलेलें, हमारे गोफन भी समर्थ हैं!
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शब्द :
(1) - परश्व - परसो
(2),(3),(4) - अभ्र कहते हैं बादल को, निरभ्र अर्थात जब बादल न हों, आकाश में नक्षत्र दिख रहे हों। भ को भासमान, प्रकाशित से समझें, चमकते नक्षत्र पिण्ड आदि। नभ अर्थात भ नहीं, जब बादल हों तथा नक्षत्र आदि न दिख रहे हों। जिस पथ पर सूर्य वर्ष भर चलता दिखाई देता है उसे क्रान्तिवृत, भचक्र नाम दिये गये हैं तथा उसका कोणीय विभाजन २७ भागों में किया गया है जिससे कि धरती से देखने पर ज्ञात होता है कि कौन से भाग 'नक्षत्र' में सौर मण्डल के सदस्य ग्रह, उपग्रहादि हैं। नक्षत्र का एक अर्थ न क्षरति जिसका क्षरण न होता हो, है अर्थात जो बने रहते हों। चंद्रमा धरती की परिक्रमा २७+ भू-दिनों में करता है। आकाशीय कैलेण्डर के सबसे चलबिद्धर पिण्ड चंद्र की दैनिक गति के प्रेक्षण हेतु ही २७ विभाग किये गये थे जिन्हें आलंकारिक रूप में कहा गया कि उसकी २७ पत्नियाँ हैं जिनके साथ वह एक एक रात बिताता है।
नक्षत्र पहचानें - युगादि अवसर चैत्र चन्द्र सङ्ग Nakshatra Moon Chaitra Yugadi
चंद्रमा हम पृथ्वीवासियों के सबसे निकट का पिण्ड है, आकर्षक भी है, घटता बढ़ता कलायें (Moon Phases) जो दिखाता है!
सूर्योदय से अगले सूर्योदय तक का समय एक दिन कहलाता है जिसे आजकल 24 घण्टों में बाँटा गया है। प्राचीन भारत में इसे 30 मुहूर्तों में बाँटा गया था अर्थात 1 मुहूर्त = 24x60/30 = 48 मिनट।
देखा गया कि रात के आकाश में चंद्रमा एक निश्चित स्थान पर पुन: लौटने में 27 से 28 दिन का समय लगाता है। निश्चित स्थान को उन तारों के माध्यम से जाना गया जो अपेक्षतया स्थिर प्रतीत होते हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि चन्द्रमा पृथ्वी का एक चक्कर इस अवधि में पूरी करता है (लगभग 27 दिन 9⅔ मुहूर्त)। प्रेक्षण की सुविधा के लिये रात का जो अर्द्धगोलीय आकाश सिर के ऊपर दिखता है, उस पर चंद्रमा के दिन प्रतिदिन के आभासी पथ के 27 भाग कर लिये गये तथा उन्हें नाम दिया गया नक्षत्र।
नक्षत्र नाम का उत्स है न: क्षरति अर्थात जिसका क्षरण न हो, जो बना रहे क्योंकि उसके ऐसे स्थिर पृष्ठभूमि के सापेक्ष ही गति का अध्ययन किया जा सकता है। उन स्थिर खण्डों को चमकते तारा या तारकसमूहों के नाम दे दिये गये यथा कृत्तिका खण्ड में सर्वदा कृत्तिका तारा समूह दिखाई देगा। जब चंद्र उस खण्ड में पहुँचेगा तो कहेंगे कि चंद्रमा कृत्तिका नक्षत्र पर है। प्रतीकात्मक रूप में इसे ही कहा गया कि चंद्रमा की 27 पत्नियाँ हैं जिनमें से प्रत्येक के यहाँ वह क्रम से एक एक रात रहता है।
चंद्रमा का संक्षिप्त नाम मा है, चंदा मा मा से समझें। मा के सापेक्ष, सहित जो अवधि थी वह मास कहलाई – महीना, 27.3 दिनों की अवधि। चूँकि यह स्थिर नक्षत्रों के सापेक्ष थी अत: नाक्षत्र मास कही जाती है।
सापेक्षता देखें तो सूर्य भी सम्मिलित हो जाते हैं। जहाँ चंद्र पृथ्वी की परिक्रमा कर रहा है, वहीं पृथ्वी चंद्र को साथ लिये सूर्य की परिक्रमा कर रही है। सूर्य के प्रकाश से ही चंद्रमा प्रकाशित होता है। इन दो गतियों के कारण ही चंद्रमा की कलायें, घट बढ़ दिखती है।
कला नाम को कल अर्थात लघु भाग से समझें। कल कल बहती नदी हो या कलाओं के साथ चंद्रमा, मानों लघु भागों को मिला कर ही उनका प्रवाह, गति या रूप बनता है।
यदि आप पूर्णिमा के दिन की साँझ देखें तो बहुत ही मनोहारी दृश्य दिखता है। पश्चिम में सूर्य लाल हुये डूब रहे होते हैं तो उनके विपरीत पूरब में पूर्ण चंद्र उग रहे होते हैं। यदि हम पूर्ण वृत्त को 360 अंश में बाँटें तो कहेंगे कि दृश्य आकाशीय अर्द्धवृत्त के व्यास के दो विपरीत बिंदुओं पर स्थित सूर्य एवं चंद्र 180 अंश की दूरी पर होते हैं।
इसका विपरीत तब होगा जब चंद्रमा गति करते करते सूर्य के साथ जा पहुँचेगा अर्थात जब दोनों एक साथ होंगे, एक ही बिंदु पर। आमने सामने होने पर चंद्र सूर्य के प्रकाश से पूरा चमकता है एवं साथ होने पर विराट सूर्य के प्रभा वलय में छिपा रहता है, नहीं दिखता जिसे कहते हैं अ-मा, मा नहीं, चंद्रमा नहीं, अमावस्या।
इन दो विपरीत बिंदुओं तक पहुँचने में चंद्रमा को लगभग 15 दिन लगते हैं अर्थात पुन: पूर्णिमा तक पहुँचने में लगभग 30 दिन लगने चाहिये जोकि वस्तुत: 29 दिन 16 मुहूर्त का होता है। पूर्णिमा से अमा एवं पुन: अमा से पूर्णिमा तक की अवधियाँ दो पक्ष कहलाती हैं – कृष्ण पक्ष क्योंकि इसमें चन्द्र पूर्ण से शून्य तक घटता जाता है एवं शुक्ल पक्ष क्योंकि उसमें चन्द्र शून्य से बढ़ता हुआ पुन: पूर्ण अवस्था को प्राप्त कर लेता है। चूँकि इस मास में सूर्य एवं पृथ्वी दोनों के सापेक्ष चंद्र की गति है अत: यह संयुत मास कहलाता है। इसे सामान्यत: चंद्र मास भी कहते हैं। चंद्र मासों के नाम पूर्णिमा के दिन उसकी नक्षत्र स्थिति से रखे गये हैं यथा जिस मास में पूर्णिमा का चंद्र कृत्तिका पर होता वह कार्त्तिक, जिसमें मघा पर होगा वह माघ इत्यादि।
प्रश्न यह है कि नाक्षत्र मास एवं संयुत मास की अवधियों में अंतर क्यों है? ऐसा इस कारण है कि धरती भी तो सूर्य की परिक्रमा करती आगे बढ़ रही होती है! इस कारण सूर्य निर्भर समान कला या समान कोणीय स्थिति तक पहुँचने के लिये चंद्रमा को अतिरिक्त चलना पड़ता है, यह अवधि लगभग 2 दिन 7 मुहूर्त होती है जिससे चंद्रकला प्रेक्षण आधारित संयुत मास 29 दिन 16 मुहूर्त का होता है जिसे गणना सुविधा के लिये 30 दिन का मान लिया गया।
दिन को भी 30 भागों में बाँट कर 48 मिनट की इकाई ‘मुहूर्त’ अपनाने के पीछे भी यही कारण है।
संयुत मास का प्रत्येक भाग तिथि कहलाया। पूर्णिमा, अमावस्या एवं दोनों पक्षों के चौदह चौदह दिन प्रतिपदा, द्वितीया, तृतीया आदि मिला कर कुल तीस तिथियाँ होती हैं। शून्य से 180 एवं पुन: लौट कर वहीं आने में 360 अंश हो जाते हैं अर्थात एक तिथि वह हुई जिसमें 360/30 = 12 अंश का कोणीय अंतर पूरा कर लिया जाता है। स्पष्ट है कि यह वर्गीकरण सूर्योदय सूर्यास्त से कोई सम्बंध नहीं रखता। परिपथ वैभिन्न्य, सरलीकरण एवं गति वैविध्य को मिला कर प्रभाव यह होता है कि किसी तिथि की अवधि निश्चित न हो एक परास में होती है, ऐसा भी होता है कि तिथि का क्षय हो जाता है या तिथि बढ़ भी जाती है क्योंकि दिन को सूर्योदय से आरम्भ मानने पर ऐसा हो सकता है कि सूर्योदय के पूर्व 12 अंश की यात्रा आरम्भ हो एवं अगले सूर्योदय से पहले ही पूरी हो जाय; यह भी कि सूर्योदय के पश्चात हो एवं अगले सूर्योदय से आगे तक चलती रहे। 360 अंश में ही 27.3 दिन भी होने हैं तथा 29.5 भी।
यदि यात्रा को प्रेक्षण से समझना चाहें तो इस चैत्र मास पूर्णिमा के दिन से प्रतिदिन चंद्रोदय का समय देखते जायें। आप पायेंगे कि प्रतिदिन चंद्र प्राची (पूरब) में बिलम्ब से उग रहा है। यह अंतराल आरम्भ में 4/3 मुहूर्त से होता हुआ एकादशी तक 1 मुहूर्त तक क्रमश: बढ़ेगा। अगले दिन सूर्योदय के पश्चात भी चंद्र दिखता रहेगा। चंद्रोदय से अस्त तक का समय घटता रहेगा। कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी/चतुर्दशी तक चंद्र दिखने के पश्चात अमावस्या के दिन दिखेगा ही नहीं!
आप ने देखा होगा कि सूर्य उत्तर या दक्षिण की ओर झुके हुये उगता है। इन दो झुकावों के अंतिम बिंदुओं के बीच वर्ष भर सूर्य दोलन करता सा लगता है। वे दो बिंदु अयनांत कहलाते हैं। अयन अर्थात गति, अंत अर्थात उनसे आगे झुकाव नहीं बढ़ना। ऐसे में वर्ष में दो बिंदु ऐसे आते हैं जब झुकाव शून्य हो जाता है तथा सूर्य ठीक पूरब में उगते हैं। ये दो बिंदु विषुव कहलाते हैं। सूर्य की दक्षिणी चरम झुकाव से उत्तर की गति उत्तरायण कहलाती है तो उत्तरी चरम झुकाव से दक्षिण की गति दक्षिणायन।
मार्च में जो विषुव 20/21 को पड़ता है वह वसंत विषुव कहलाता है। इसे महाविषुव भी कहते हैं। इस बिंदु के निकट ही वर्ष का आरम्भ बिंदु पड़ता है, युगादि, नववर्ष। वसंत की मधु सम ऋतु होने के कारण ही इसे यह सम्मान प्राप्त हुआ। मार्च में ऋतु अच्छी होने के कारण आकाशीय प्रेक्षण में भी सुभीता रहता है।
इस वर्ष तीन ग्रह – गुरु, मंगल एवं शनि को चंद्र के साथ आकाश में प्रात:काल 5 बजे उठ कर देखा जा सकता है। शनि का सूर्य परिक्रमा काल 29.46 वर्ष, गुरु का 11.86 वर्ष एवं मंगल का 1.88 वर्ष होता है। इसका अर्थ यह हुआ कि:
शनि एक नक्षत्र पर 29.46x365.25/27 = 399 दिन, गुरु 11.86x365.25/27 = 160 दिन एवं मंगल 1.88x365.25/27 = 25 दिन रहते हैं। इतनी लम्बी अवधि के कारण इस मास प्रेक्षण हेतु इन्हें भी नक्षत्रों की भाँति स्थिर ही माना जा सकता है।
प्रात:काल पाँच से सवा पाँच बजे की चंद्रमा की इनके सापेक्ष स्थितियाँ इस चित्र में दर्शायी गयी हैं। पूरब में देखिये तो प्रतिदिन। चंद्रमा की इन स्थितियों को मिला कर जो रेखा बनती है वही क्रान्तिवृत्त है जिस पर दिन में सूर्य चलता हुआ प्रतीत होता है। साथ में आप विविध नक्षत्रों विशाखा, अनुराधा, ज्येष्ठा, मूल, पूर्वाषाढ़, उत्तराषाढ़, धनिष्ठा, श्रावण, अभिजित एवं विविध तारासमूहों हंस, गरुड़, धनु, ऐरावत (वृश्चिक) को भी देख सकते हैं।
नववर्ष, नवरात्र आरम्भ।
इस दिन से चन्द्र कहाँ दिखेगा?
जैसा कि पहले बताया है, ध्यान रखें कि अब चंद्र को बढ़ना है। ऊपर के चित्र से स्पष्ट है कि एक निश्चित समय पर चंद्र प्रतिदिन क्षितिज के निकट चलता चला जा रहा है। अमावस्या के दिन सूर्य चंद्र दोनों साथ होंगे, साथ साथ उगेंगे तथा अस्त होंगे। स्पष्ट है कि चंद्र सूर्य के साथ होने के कारण कभी नहीं दिखेगा। पूर्णिमा के दिन उलट स्थिति होती है, सूर्य से ठीक उलट 180 अंश का अंतर होने के कारण चंद्र रात भर दिखता है। इन दो सीमाओं की तुलना करें तो पायेंगे कि चंद्र तब ही दिखेगा जब सूर्य अस्त रहे तथा चंद्र क्षितिज के ऊपर। साथ ही कला भी ऐसी होनी चाहिये कि प्रकाशित भाग दृश्यमान हो। प्रतिपदा को ऐसा नहीं हो पाता।
दूज का चाँद मुहावरा है सुंदरता के लिये तथा दिखने में कठिनाई के लिये भी। चंद्र प्रेक्षण उसी तिथि से हो सकता है।
अब किञ्चित गणित। सरल ही है।
चंद्रमा पृथ्वी की परिक्रमा पश्चिम से पूरब दिशा में करता है जिसमें समय लगता है 27.3 दिन जबकि पृथ्वी भी उसी दिशा में अपनी धुरी पर घूम रही है जिसमें समय लगता है मात्र 1 दिन अर्थात पृथ्वी की यह गति चंद्र की परिक्रमण गति की तुलना में बहुत अधिक है। इस कारण चंद्र भी सदा अन्य पिण्डों की भाँति ही पूरब में उगता एवं पश्चिम में अस्त होता है।
360 अंश को 30मुहूर्तx48 या 24घण्टेx60 से भाग दें तो पायेंगे कि धरती एक अंश 4 मिनट में घूम जाती है। चंद्रमा परिक्रमा पथ पर एक दिन में 13.2 अंश (360/27.3) आगे बढ़ चुका होता है। इस बढ़े हुये अंश को पूरा करने के लिये धरती को 13.2x4 मिनट अर्थात लगभग 53 मिनट लगते हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि चंद्रोदय प्रतिदिन पिछले दिन से 53 मिनट पश्चात होगा, ऐसा ही अस्त के साथ भी स्वत: हो जायेगा। जब पूरी परिक्रमा कर लेगा तो 27.3x53 ~ 1440 मिनट अर्थात 24 घण्टे का चक्र पूरा कर पुन: अपने वास्तविक उदय समय को पा लेगा, चक्र चलता रहेगा।
इसी तथ्य का उपयोग चंद्र दर्शन में कर सकते हैं। अमावस्या के पश्चात प्रतिपदा को चंद्र का उदय सूर्य के उदय से 53 मिनट पश्चात होगा। द्वितीया को 106 मिनट पश्चात। चूँकि सूर्य पहले से ही आकाश में चमक रहा होगा, अन्य आकाशीय पिण्डों की भाँति ही चंद्र भी नहीं दिखेगा। ऐसा प्रतिदिन होगा।
तो क्या करें?
स्पष्ट है कि हमें अस्त के समय देखना होगा। तब क्या होगा? सूर्य से 106 मिनट पश्चात चंद्र का अस्त होगा अर्थात सूर्य प्रकाश के अभाव में रात में अन्य पिण्डों की भाँति ही चंद्र भी दिखेगा। इसका अर्थ यह हुआ कि लगभग सात सवा सात बजे साँझ को पश्चिमी आकाश में आँखें गड़ाये रहें तो चन्द्र का निरीक्षण कर पायेंगे।
शुक्ल पक्ष में पश्चिमी आकाश में चंद्र प्रेक्षण में हमारा सहयोगी होगा परम तेजस्वी शुक्र, साँझ का ‘तारा’, हालाँकि यह ग्रह है किंतु नाम रूढ़ हो गया है। क्षितिज के पास इस 'तारे' के निकट ही बुध ग्रह होगा तथा इन दोनों से किञ्चित ऊपर आँख गड़ा कर देखने पर आकाश स्वच्छ हो तो दूज का चाँद दिख जायेगा।
षष्ठी को चन्द्रदेव अपनी प्रिय पत्नी रोहिणी के साथ होंगे तथा उससे आगे क्रमश: पूरब दक्षिण की ओर बढ़ते जायेंगे।
चैत्र के इस पश्चिमी आकाश में आप को एक साथ नक्षत्र मण्डल की अंतिम रेवती के साथ अश्विनी से आरम्भ कर आर्द्रा तक के नक्षत्र दिखेंगे। रुद्र तथा स्रोतस्विनी होंगे ही।
पूर्णिमा आते आते चन्द्र पुन: पूरब में होगा, उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र पर। आठ बजे के आसपास उस समय साथ में दिखेंगे – मघा, पूर्वा फाल्गुनी, हस्त, चित्रा, स्वाति एवं उत्तर में सप्तर्षि भी।
पूर्णिमा से आगे वैशाख महीने में प्रेक्षण पुन: वैसे ही पूरब दिशा में करते रह सकते हैं जैसे इस लेख के आरम्भ में किया था।
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चलते चलते :
आप चंद्र देख कर बता सकते हैं कि शुक्ल पक्ष का है या कृष्ण पक्ष का। चंद्र वृत्त की परिधि का अंश सर्वदा सूर्य की ओर रहता है जबकि घटता बढ़ता अंश उससे विपरीत। यदि वह पश्चिम दिशा में है तो हुआ शुक्ल पक्ष, यदि पूरब दिशा में है तो हुआ कृष्ण पक्ष।
✍🏻सनातन कालयात्री श्री गिरिजेश राव जी के लेखों से संग्रहित
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