निःशब्द संवाद
-मनोज मिश्र
शब्दों की किरचें इधर उधर उछल रही थीं। जिस्म तो नहीं पर दिल को घायल बराबर कर रही थीं। घायल होने वाले और करने वाले भी अजनबी न थे बल्कि एक लंबा सफर साथ चल चुके थे। फिर भी न जाने क्यों एक दूसरे को कभी समझ ही न पाए। या शायद साथ रहते रहते एक दूसरे को तवज्जो देना ही भूल गए थे। बात की शुरुआत हमेशा किसी छोटी सी चीज से होती थी पर बातों बातों में बात इतनीं बढ़ जाती थी कि लगता था अब साथ मे जीना शायद संभव नहीं है। फिर पसरता था एक मौन। एक लंबा मौन जिसे चाहता दोनों में से कोई नहीं था पर तोड़ने की पहल भी कोई नहीं करना चाहता था। कशमकश में डगमगाती सी पर जीवन की गाड़ी चल रही थी अगर इसे हम चलना मानें तो, क्यों आखिर इतना सब होने के बाद भी दोनों साथ ही थे। कभी कभी लगता है कि आदमी परिपक्व होने के नाम पर मनमानी पर उतर आता है। झगड़े तो तब भी थे जब दोनों का साथ हुआ पर तब उसे तब रुठना कहते थे क्योंकि मनाने पर दोनों ही मान जाते थे। अब तो मनाने में पहल कौन करे इसके लिए भी दोनों में से किसी को परवाह नहीं है। पहले संवाद मौन तोड़ने के लिए थे अब सिर्फ पेट भरने के लिए हैं - खाना परोसें, नाश्ता बन गया, अभी रात का भी खाना बनाना है। अपने अपने मोबाइल हैं अपने अपने डेस्क टॉप, लैप टॉप, जरूरत ही कहाँ है इंसान की। मशीनों से गुजरा हो जाता है। बड़ा हवादार मकान है अलग अलग कमरे हैं पर जहां देखो सिर्फ मौन पसरा है। कोई झुकने को तैयार नहीं। अपने को खुश दिखाने का जबरन प्रयास करते हुए लोग, जानते हैं भीतर से कि यह सही नहीं है पर जिद है कि सिर्फ हम ही सही हैं। कभी कभी दीवारों से टकरा कर कुछ आवाज़ें फर्श तक आती हैं पर ये आवाज़ें बड़ी खोखली होती हैं कोई सांत्वना नहीं कोई दिलासा नहीं बस अजनबी सी आवाज़ें, दोनों को एक दूसरे से जोड़ने के प्रयास की नाकामयाब कोशिश करती हुई। कभी कभी कामयाब भी हो जाती हैं, जब दोनों सब कुछ भूल कर सोचते हैं कि चलो जाने दो कितने दिन ऐसे ही रहेंगे आखिर इतना लंबा साथ है।
इस साथ के परिणाम भी अब तो घर से बहुत दूर रहते हैं उनके भी अपने घर, अपनी लड़ाइयां हैं पर सोच कर हंसी आ जाती है यही तो उस उमर में इनके साथ भी होता रहा था। उस उम्र से इस उम्र तक का यह सफर कैसे कहें कि माकूल है। कितना अच्छा होता अगर वहीं ठहर जाते, काल को रोक तो नहीं सकते तो उन्ही लम्हों के साथ ले आते हमेशा के लिए। फिर खुद पर ही हंसी आती है कि कहां किसे दोष दे रहे हैं, सब हमारा ही तो किया कराया है। उधर भी जिद है कि उनकी उम्र हो गयी और इधर भी जिद है कि उमर तो इधर भी हो गयी है। सुलह आखिर हो तो कैसे? अब आदमी छत दीवारों और खिड़कियों से तो बोल बतिया नहीं सकता ना उंसके लिए तो आदमी ही चाहिए और आदमी है कि घुट रहा है पिस रहा है पर जिद किये बैठा है। रसोई में कुछ खटर पटर हो रही है। जाकर देख आऊं क्या कि क्या बन रहा है। पुरानी कहावत है कि दिल का रास्ता पेट की गलियों से ज्यादा अच्छे से तय होता है। गैस पर कुछ चढ़ा हुआ है पास जाने की हिम्मत नहीं है जाने पर न जाने क्या सोचें कि आखिर झुके न, हल्की सी चीख की आवाज़ आई। स्वतः ही मुंह से निकल गया अरे क्या हुआ? जल तो नहीं गयी। उत्तर में खामोशी........ फिर कुछ देर के बाद सन्नाटा टूटा..... नहीं जला नहीं है। मनुहार में निकला आखिर ऐसा क्या बन रहा है। बड़की ने भेज दिया था, इतना महंगा है, उसको मना करना होगा, आगे से नहीं भेजे। इतनीं सा है और इतना दाम। ठीक है मना कर देना। आखिर खामोशी टूटी। एक पीस दूं ........अरे दो ही तो है। तो क्या हुआ आखिर हम भी तो दो ही हैं। चलो खा लो। खिड़की से एक ताजी हवा का झोंका अंदर आया उसे भी शायद मालूम पड़ गया था कि अंदर का मौसम अब अब बदल गया है।
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