Advertisment1

यह एक धर्मिक और राष्ट्रवादी पत्रिका है जो पाठको के आपसी सहयोग के द्वारा प्रकाशित किया जाता है अपना सहयोग हमारे इस खाते में जमा करने का कष्ट करें | आप का छोटा सहयोग भी हमारे लिए लाखों के बराबर होगा |

जीवात्मा नहीं परमात्मा के कारण होती है प्राणियों में गति :-अशोक “प्रवृद्ध”

जीवात्मा नहीं परमात्मा के कारण होती है प्राणियों में गति :-अशोक “प्रवृद्ध”

इस आश्चर्यमय, विस्मयजनक और रहस्ययुक्त घटनाओं से युक्त जगत की माप, यहाँ अवस्थित पदार्थ, उन पदार्थों की अवस्थिति, उनके बनने का कारण और काल और इनसे होने वाले लाभों जैसे प्रश्नों का उत्तर पाने के लिए आदिकाल से ही मनुष्य इच्छा करता रहा है, और वर्तमान में भी वैज्ञानिक, मीमांसक और अन्वेषक इस प्रश्न का उत्तर ढूँढ़ने में लीन हैं। इस बात को अब सभी स्वीकार करते हैं कि यह दृश्यमान जगत बनता, चलता और विनष्ट होता है। यह भी सिद्ध है कि संसार में किसी भी वस्तु के बनने, चलने और टूटने में तीन कारण होते हैं। वह यह कि उस वस्तु का बनाने वाला, पालन करने वाला और संहार करने वाला कोई सामर्थ्यवान, ज्ञानवान और महान होना चाहिए। इसे निमित्त कारण कहते हैं। बनाने वाले के साथ वह पदार्थ भी होना चाहिए जिससे कि यह जगत बना है। अभाव से भाव नहीं होता। कुछ होना चाहिए जिससे जगत बना है। वह उपादान कारण कहलाता है। इसी प्रकार प्रत्येक बनने वाली वस्तु के बनने का कुछ उद्देश्य होना चाहिए। जगत का रचयिता परमात्मा है। जिस पदार्थ से जगत बना है, उसे प्रकृति अथवा प्रधान कहते हैं, और यह जगत जीवात्मा समूह के लाभ के लिए बना है। इस जगत में एकमात्र मनुष्य प्राणी ही मन और बुद्धि युक्त है, जो ज्ञान प्राप्त कर सकता है। किंतु मन और बुद्धि प्रकृति का अंग होने से जड़ हैं। इसलिए ये स्वतः ज्ञान युक्त नहीं हो सकते। ज्ञान प्राप्त करने वाला कोई अन्य है। ज्ञान देने वाला कोई अन्य स्वयं ज्ञानवान होना चाहिए तभी वह ज्ञान दे सकता है। जब सृष्टि बन गई तो इसको स्थिर रखने वाला भी कोई अति महान सामर्थ्य वान होना चाहिए। अन्यथा पृथ्वी, सूर्य, नक्षत्र और ग्रह जो निरंतर जगत में घूमते हैं, जड़ होने के कारण चल नहीं सकते। इससे स्पष्ट है कि संसार का समन्वय करने वाला भी परमात्मा है। इसीलिए परब्रह्म में प्रकृति, आत्मा और परमात्मा तीनों की गणना होती है। तीनों तत्व अनादि हैं, अक्षर हैं। इन तीनों में दो चेतन है- एक सामर्थ्यवान चेतन है, वह परमात्मा कहलाता है। दोनों का गुण ईक्षण करना है। ईक्षण का अर्थ है -कर्म के आरंभ और अंत करने का काल, कर्म के दिशा कर्म के काल और स्थान का निश्चय करना। ब्रह्मांड तो अनंत है। इसे आकाश की संज्ञा प्रदान की गई है। इस ब्रह्मांड में जगत रचना का स्थान, काल और दिशा निश्चय करने वाला चेतन ज्ञानवान कहलाता है, जो कि परमात्मा है। जगत में परमात्मा के अतिरिक्त दो गौण तत्व हैं-जीवात्मा और प्रकृति। परमात्मा गौण तत्व नहीं हो सकता। जगत का बनाने वाला गौण तत्व नहीं, अपितु मुख्य ही होगा। जीवात्मा का सामर्थ्य सीमित है, और प्रकृति तो जड़ होने से किसी भी निर्मित वस्तु का निमित्त कारण नहीं हो सकती। उल्लेखनीय है कि जीवात्मा परमात्मा से जुष्ट होकर मोक्ष पाता है। परमात्मा तत्व हीन नहीं है। यह महान है और हीन तत्वों अर्थात जीवात्मा और प्रकृति पर शासन करता है। यह परमात्मा अपने आप गमन करता है अर्थात यह अपने कर्म अपने आप ही करता है, किसी दूसरे का आश्रय नहीं लेता। यह देखा जाता है कि जगत के सब पदार्थों के व्यवहार में समानता है। नक्षत्र और ग्रहों की गति में और पृथ्वी पर पदार्थों के समन्वय तथा प्राणियों के जीवन में एक समान व्यवहार देखा जाता है। इस कारण इन सबका रचयिता एक ही है। यदि एक से अधिक होते तो पदार्थों के व्यवहार में भिन्नता होती, लेकिन ऐसा नहीं है। वेद व दर्शन शास्त्रों में परब्रह्म में चेतन तत्व परमात्मा के कुछ गुणों का वर्णन किया गया है। यह जगत का रचने वाला, पालन करने वाला और प्रलय करने वाला है। यह मनुष्य के ज्ञान का स्रोत है। यह संसार में संयोग - वियोग करने की सामर्थ्य वाला है। यह ईक्षण करने वाला है। ब्रह्म में अन्य दो तत्व हीन गुण वाले हैं। परमात्मा वैसा नहीं। यह किसी के आश्रय नहीं। स्वयं करता है, और यह आनंदमय है। परमात्मा की उपासना अर्थात उसके समीप बैठने से जीवात्मा भी आनंदमय हो जाता है। वैदिक शास्त्रों में भी ऐसा ही कहा गया है। ब्रह्म में वर्णित दूसरे तत्व अर्थात जीवात्मा और प्रकृति आनंदमय नहीं। प्रकृति तो जड़ है। उसके आनंदमय होने की कोई संभावना नहीं। साथ ही जीवात्मा भी स्वयं आनंदमय नहीं है। वह जब परमात्मा से जुष्ट होता है तब ही आनंदमय होता है। परमात्मा के गुण जीवात्मा में नहीं हो सकते। इस कारण परमात्मा और जीवात्मा में भेद है। परमात्मा का एक लक्षण आकाश है, और उसका गुण है सर्वव्यापक होना। अर्थात जितना भी स्थान विश्व में है, उस सबमें परमात्मा व्यापक है। विश्व के स्थान को अवकाश भी कहा जाता है। परमात्मा का दूसरा लक्षण है गति। इसे प्राण कहते हैं। परमात्मा का गुण है सामर्थ्य। इसी गुण के कारण इसे सर्व शक्तिमान कहा है। उस शक्ति का प्रदर्शन गति में होता है। परमात्मा का तीसरा लक्षण है प्रकाश। ज्योति के अर्थ में प्रकाश और चेतना दोनों लिए जाते हैं। परमात्मा ने सृष्टि की रचना खंडशः की है। सर्वप्रथम देवता और पृथ्वी बनी। देवताओं में से नक्षत्र बने और पृथ्वी में से ग्रह बने। अर्थात प्रकृति से यह जगत एक क्षण में नहीं बना। मूल प्रकृति से वर्तमान कार्य जगत पग पग कर बनता चला गया। वैदिक ग्रंथों और दर्शन शास्त्रों के अनुसार प्रकृति से महत अर्थात महान बना। महान से तीन अहंकार बने - वैकारिक अहंकार, तैजस अहंकार और भूतादि अहंकार। ये क्रमशः सत्वगुण, रजोगुण और तमोगुण प्रधान वाले हैं। इन अहंकारों को वैदिक भाषा में अपः कहा जाता है। ऋग्वेद में भी इस स्थिति का वर्णन अंकित है। ऋग्वेद 1-163- 1, 2के अनुसार, सबसे पहले एक महान गति वाला अग्नि स्वरूप अर्वन अर्थात तेज उत्पन्न हुआ और वह त्रित अर्थात परमाणुओं पर अधिष्ठित हो गया। पूर्व में उस पर इंद्र अधिष्ठित था। इसके आगे ऋग्वेद1-163- 3, 4 में कहा गया है-

असि यमो अस्यादित्यो अर्वन्नसि त्रितो गुह्येन व्रतेन ।

असि सोमेन समया विपृक्त आहुस्ते त्रीणि दिवि बन्धनानि ।।

त्रीणि त आहुर्दिवि बन्धनानि त्रीण्यप्सु त्रीण्यन्तः समुद्रे ।

उतेव मे वरुणश्छन्त्स्यर्वन्यत्रा त आहुः परमं जनित्रम् ।।- ऋग्वेद 1-163- 3,4

अर्थात- तू अर्वन यम अर्थात नियंत्रण करने वाला प्रकाशयुक्त है। गुप्त रूप से संगठित त्रित को. जो साम्यावस्था में है और जो विमुक्त पृथक –पृथक है, तू उससे तीन बंधन अर्थात संयोग उत्पन्न करता है। वे तीन दिव्य बंधन अर्थात संयोग अन्तरिक्ष में अपः हुए और इनसे जगत के अनेकानेक पदार्थ उत्पन्न हुए।
वैदिक विज्ञान के अनुसार परमाणुओं में गुण साम्यावस्था में थे। परमाणु तीन -तीन गुणों का समूह अर्थात गुट होने के कारण त्रित कहलाते हैं। ये गुट अर्थात त्रित एक दूसरे से पृथक -पृथक थे। इसी अवस्थाको ऋग्वेद 1-129- 3 में सलिल कहा गया है। इन परमाणुओं पर परमात्मा का तेज अर्वन अधिष्ठित हुआ, तो तीन प्रकार के दिव्य बंधन अर्थात योग उत्पन्न हुए। ये तीनों अपः हैं। संख्य दर्शन में इन्हें अहंकार कहा गया है। अहंकारों से जगत की सृष्टि हुई और इस जगत में प्राणी और अप्राणी सृष्टि हुई। सांख्य दर्शन 1-61 के अनुसार अहंकारों से पञ्च तन्मात्र समूह और दोनों प्रकार की इन्द्रियां बनीं। इन तन्मात्र समूह से स्थूल भूत बने। वैकारिक अहंकार और तैजस अहंकार के समूह से दोनों प्रकार की इंद्रियां बनी, और भूतादि अहंकार और तैजस अहंकार से पञ्च महाभूत तन्मात्र अर्थात स्थूल महाभूत बने। वेद व दर्शन शास्त्रों में यही प्रक्रिया है मूल प्रकृति से पग- पग प्राणी बनने की। वेद शास्त्र यही वर्णन करते हैं। चर और अचर जगत में अंतर यह है कि ईश्वर का लक्षण प्राण एक में तो विद्यमान है, परन्तु दूसरे में नहीं। प्राणवान को ही प्राणी कहते हैं । और प्राण अर्थात गति ईश्वर की है। प्राणी में भी ईश्वर के कारण गति है, जीवात्मा के कारण नहीं।
हमारे खबरों को शेयर करना न भूलें| हमारे यूटूब चैनल से अवश्य जुड़ें https://www.youtube.com/divyarashminews https://www.facebook.com/divyarashmimag

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ