कहाँ लिखा है?
“कहाँ लिखा है?” कॉमरेड फटाक से पूछते हैं। आपको भी पूछना चाहिए कि कहाँ लिखा है। इससे फायदा ये होगा कि “पर धर्मो भयावह” तो फ़ौरन भगवद्गीता (3.35) से निकल आएगा। इसकी तुलना में “सर्भ गर्म वड़ा पाव” या “सर्व धर्म समभाव” जैसे अजीबोगरीब संवाद कहीं से नहीं निकलेंगे। यकीन न हो तो कोशिश करके देख लीजिये!
क्रिस्टोफ़र कोलंबस का मानना था कि दुनियां गोल है | लेकिन वो ज़माना बाइबिल का था और सभी धार्मिक विद्वान मानते थे कि धरती चपटी है | इसलिए अगर समंदर के रास्ते कोलंबस अपना जहाज लेकर भारत ढूँढने निकलता तो वो किनारे पर जाकर नीचे टपक जाता ! जाहिर है जिस राजा को ऐसे बुद्धिजीवी सलाह दे रहे हों, वो ऐसे सफ़र के लिए जहाज और इजाज़त कैसे देते ?
कोलंबस अड़ियल आदमी था | उसने चर्च को सोने का लालच दिया, गुलामों का लोभ दिखाया मगर वो मानने के लिए राज़ी ही नहीं होते थे ! हर बार उनकी बात आकर ‘लॉजिकल रीजनिंग’ पर अटक जाती | हर बार कोलंबस से कहा जाता, कहाँ लिखा है दिखाओ ! कैसे मान लें तुम्हारी बात की धरती चपटी नहीं है ? हर बार कोलंबस निराश लौटता |
आखिर कोलंबस ने तर्क पर लट्ठ जड़ देने का मन बनाया | वो तथाकथित ‘बुद्धिजीवियों’ को उठाकर समुन्दर के किनारे ले गया | उसने बताया कि अगर धरती चपटी होती तो दूर समुद्र से आता जहाज एक बार में ही पूरा दिखना शुरू हो जाता | ये पहले झंडा नजर आता है, फिर पाल और मस्तूल दिखते हैं, उसके बाद जहाज का मुख्य हिस्सा धीरे धीरे नजर आना शुरू होता है | इसको देखकर क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि जहाज किसी नीची जगह से ऊपर की तरफ आ रहा है ?
अगर चपटी होती धरती तो ये गहराई-ऊंचाई का फर्क कैसे है ? हर जगह, फ़्रांस से इंग्लैंड से ग्रीस से ऐसा ही कैसे होता है कि वो जगह ऊँची हो जाती है और बाकी जगह नीची ? इस साधारण से तर्क के लिए कोई वैज्ञानिक शोध का खर्च नहीं आया था | कोई बहुत पढ़ा लिखा होने की भी जरुरत नहीं थी | जरुरत थी तो बस ये मानने की कि सब कुछ कोई तथाकथित बुद्धिजीवी ही नहीं जानता | कोलंबस को जहाज भी मिला था | वो गलत जगह यानि अमेरिका जा पहुंचा था | वहां जब उसे प्रयाप्त सोना नहीं मिला तो वो चर्च का खर्चा चुकाने के लिए कई गुलाम पकड़ के ले गया था |
कई बार लोग ये सोचकर नहीं लड़ते हैं कि हमारे विरोधियों के पास तो काफ़ी ज्यादा शोध (Research) से इकठ्ठा की हुई जानकारी है | लेकिन किसी भी तथाकथित बुद्धिजीवी के झूठ को आप अपनी सामान्य बुद्धि से समझ सकते हैं | आखिर उसे झूठ साबित करने के लिए कितने तर्क चाहिए ? यू ट्यूब पर मौजूद विडियो में उतनी जानकारी मिल जाएगी आपको | इन्टरनेट पर मुफ्त के लेख मौजूद होते हैं, उनसे पढ़कर आप खुद ही लिख सकते हैं | किसी और का मूंह कब तक देखेंगे ? कितना इंतजार करना है ?
अभी हाल का अमेरिका के कई स्कूलों में आजादी से पूर्व के भारत को “India” के बदले जब दक्षिण-एशिया नाम देने की मूर्खतापूर्ण वामपंथी कोशिश हुई तो ऐसे ही एक मामूली से तर्क से उन्हें रोका गया था | मामूली सा सवाल था, अगर इंडिया 1947 से पहले था ही नहीं तो कोलंबस कहाँ का रास्ता ढूँढने निकला था ?
आपके खुद सवाल ना करने का एक नतीजा ये भी है कि आपके सवालों के अभाव में आपके विरोधियों को कई विचारकों को गायब कर देने का मौका मिल जाता है | लोहिया ने ‘राम, कृष्ण और शिव’ जैसे कई अच्छे लेख लिखे हैं लेकिन आपके समर्थन के अभाव में ऐसी किताबें गायब हो गई | जिन्होंने अपने पी राजन जैसे कार्यकर्ताओं की लाश बेच खाई, वो लोग आज भगत सिंह जैसे क्रांतिकारियों के वामपंथी होने की घोषणा कर रहे हैं |
कल तक जो ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ की बातें कर रहे थे वो आज विरोध का स्वर उठाने वाले उत्कर्ष सिंह को कुचलने भी आ गए हैं | दीमक की तरह ख़ामोशी से, आपकी चुप्पी, आपकी ही नींव को खोखला करती जा रही है | चेहरे पर दो चार पानी के छींटे मारिये, थोड़ा होश में आइये हुज़ूर |
वैसे तो भारतीय लोगों को रामायण के बारे में इतना पता होता है कि शबरी कह देना भर काफी है पूरी कहानी सुना देने के लिए | मगर विकट समस्या ये है कि हम तो पहले ही जानते हैं के मुगालते में पड़े आम हिन्दुओं ने ना तो रामायण या रामचरितमानस जैसी किताबें घर में खरीद कर लाने की जहमत उठाई ना पन्ने पलटा कर देखने की |
पढ़े लिखे और अनपढ़ के बीच का फर्क मोटे तौर पर यहीं ख़त्म हो जाता है | अ से अनार और आ से आम पढ़ना सीखने के बाद चुंकि शौक से कोई किताब पढ़ने का आँखों, उँगलियों और दिमाग को कष्ट दिया ही नहीं है इसलिए जिसे पढ़ना नहीं आता था और जिसे आता था उन दोनों में ज्यादा अंतर नहीं है | क्योंकि पढ़ा तो दोनों ने ही नहीं है ना ?
मोटे तौर पर ये कहानी कुछ यूँ है कि शबरी कोई आदिवासी, शायद भील भक्त थी | बरसों से गुरु के पास सीखा और तप करती हुई अकेले वन में रहती थी | प्रभु कभी आयेंगे उसे भी दर्शन देंगे इस आशा में वृद्ध हो चली | ऐसे में एक रोज उसके आश्रम में श्री राम पधारे | अब जंगल में रहने वाली वृद्धा के पास स्वागत के लिए क्या उपलब्ध होता ?
तो वो वहीँ जो कंद-मूल उसके पास थे उन्ही से स्वागत करने बैठी | थाली में बेर परोसे और खुद चख चख कर श्री राम को देती जाती | अब लक्ष्मण भौचक्के हुए ! ये क्या ! जूठे बेर दिए जा रही है, और रामचंद्र भी हैं, कि खाए जा रहे हैं | तो उन्होंने प्रभु को टोका | श्री राम ने कहा, जाने दो लक्ष्मण, वो अपने हिसाब से जांच जांच कर देती है | कहीं कोई खट्टा बेर ना जाए, मैं उसका प्रेम ग्रहण कर रहा हूँ !
अब वापस सोशल मीडिया पर आइये | जब कभी भगत सिंह की शहादत का दिन, तो कभी कोई दूसरी उल जुलूल खबर उठा कर शेयर करते हैं, पोस्ट करते हैं, तब इस कहानी को फिर से याद करने की जरूरत होती है | पढ़ी होती तो शायद याद भी रहती | खुद जांचा कि कहीं कुछ “खट्टा” तो नहीं परोस दिया है ? नेट से सोशल मीडिया पर आई चीज़ को गूगल पर सर्च कर लेना कोई मुश्किल नहीं होगा |
अगर रामायण पढ़ डाली होती तो दो फायदे होते | एक तो सीधा फायदा ये कि शबरी की तरह खुद जांच कर देना सीख जाते | दूसरा ये कि ये किताबें काव्य में लिखी हैं, इनमें अलंकार होता है | एक ही वाक्य के कई मतलब बनाना भी देख देख कर सीख पाते | तो अगर झूठ भी बोलते तो वो ऐसे घुमा पाते कि विरोधियों के लिए काटना मुश्किल होता | या आप एक ख़ास किताब पर मिलने वाला जवाब दे पाते कि, “आप सही मतलब नहीं समझ पाए” बाकी रामायण जैसे ग्रन्थ ना उतने महंगे होते हैं कि आप जुटा ना पायें, ना रोज़ दो चार पन्ने पढ़कर उन्हें ख़त्म करना नामुमकिन है | हाँ, आलस्य-प्रमाद के मारे नहीं हो पा रहा तो श्री श्री रामधीर सिंह जी कह ही गए हैं, जाने दीजिये, आपसे ना हो पायेगा !
हम महाभारत पढ़ लेने की सलाह क्यों देते हैं? क्योंकि महाभारत पढ़ लेने पर आप "व्याध गीता" भी पढ़ लेंगे। उसे पढ़ते ही आपकी समझ में आ जायेगा कि धर्म व्याध पेशे से व्याध था और मांस बेचता था, फिर भी कश्यप नाम के ब्राह्मण उससे धर्म की शिक्षा ले रहे होते हैं। तो व्यक्ति का पेशा नहीं, उससे क्या सीखा जा सकता है, केवल ये देखना चाहिए।
कंगना जब आपके पक्ष में बोले तो उसका भरपूर प्रयोग करें, जब नहीं बोल रही हो तो उसे वैसे ही अनदेखा कीजिये जैसे पंथियों (विदेशियों की फेंकी हुई बोटियों पर पलने वाले वामपंथी टुकड़ाखोरों) ने गृह प्रवेश की पूजा करते दिखने पर स्वरा भास्कार को किया था। इतनी साधारण सी बात समझने के लिए कौन सा रॉकेट साइंस पढ़ना है?
विदेशियों की नक़ल किये बिना काम कैसे चलता? तो जैसे फिरंगी रानी के दौर में उपनिवेशवादी साहेब लोगों के घरों में हुआ करता था, वैसा ही एक ड्रेसिंग टेबल भारतीय घरों में भी आने लगा। अब यहाँ एक समस्या थी। नक़ल के लिए अकल की जरूरत होती है। फिरंगी मेम के बच्चे संभालने के लिए तो आया होती थी, लेकिन अधिकांश भारतीय घरों में धाय माँ नहीं, केवल माँ होती थी। लिहाजा दो-तीन वर्ष के बच्चों की पहुँच में जैसे ही माता श्री लिपस्टिक-स्नो पाउडर आने लगता, वो मौका पाते ही उसे पोतकर तैयार हो जाते!
जबतक माता श्री को अंदाजा होता कि घर में कोई आवाज नहीं आ रही, बच्चों के होने पर भी इतना सन्नाटा कैसे है, तबतक उस दो फुट की ऊंचाई वाले दराज से तमाम ताम-झाम बाहर बिखर चुके होते। बालिका (या बालक भी) पाउडर से पूरा मुंह पोते, लिपस्टिक-काजल से रंग रोगन किये, भोली सी शक्ल बनाए मौका ए वारदात पर मौजूद होती। अब ऐसी भली सी शक्ल पर पिटाई तो छोड़िये डांटना भी मुश्किल है। यद्यपि माता श्री का धो देने का पूरा इरादा होता लेकिन हंसकर बच्चे-बच्ची का सिर्फ मुंह धुला कर वापस गोद में ले आया जाता।
अब जब शंकराचार्य का लिखा देवी अपराधक्षमापन स्त्रोत देखेंगे तो आपको वही चेहरे पर पाउडर, लिपस्टिक-काजल पोते कोई भोला भाला सा बच्चा नजर आएगा। ये बालक स्वीकारता है कि उसे ना मन्त्र की जानकारी है, ना यंत्रों की, किसी ज्ञान-विज्ञान या सुख की अपेक्षा से भी वो ये नहीं कर रहा। वो हनुमान जैसे कोई सरल से भक्त हैं, जिन्हें पता चला कि श्री राम की आयु बढ़ाने के लिए माता सीता सिन्दूर लगा रही हैं, तो वो पूरे शरीर में ही सिन्दूर पोत आये हैं। तभी ऐसे सुन्दर स्त्रोत की रचना के बाद भी वो कहते हैं - “नाराधितासि विधिना विविधोपचारैः किं रुक्षचिन्तनपरैर्न कृतं वचोभिः ।”
जो पहले से ही शंकराचार्य घोषित हैं, उनके संस्कृत के ज्ञान और उच्चारण में दोष ढूंढना भी करीब-करीब असंभव ही होता। ऊपर से वो कहते हैं “मया पञ्चाशीतेरधिकमपनीते तु वयसि”, मतलब आयु पचासी की है तो अभ्यास भी करीब अस्सी वर्षों का होगा। इसपर जब वो आश्वस्त नहीं हैं कि उनकी विधियाँ और पाठ शुद्ध ही रहा होगा, तो आम आदमी कौन सा तीस मार खान है कि सारा अनुष्ठान सही ही कर रहा होगा? ऐसे में भी आप मान लेते हैं कि आपसे गलत पाठ हो जाएगा तो कोई बड़ा दोष पड़ जायेगा! नहीं पड़ सकता। माता के पास नहीं पड़ता।
अब सवाल ये है कि जब ये साधारण सी बात पता थी कि माता के पास दोष नहीं पड़ेगा तो उल्टा क्यों माने बैठे थे? इसका जवाब ब्रूस लिप्टन नाम के एक वैज्ञानिक की किताब “द बायोलॉजी ऑफ़ बिलीफ” में आया था। उसमें सोलोमन द्वीप के कुछ आदिवासीयों का जिक्र है। ये लोग किसी हरे भरे पेड़ को काटते नहीं। जब इन्हें लकड़ी की जरूरत होती थी तो ये लोग एक पेड़ चुनते और रोज जाकर उस पेड़ के पास खड़े होकर उसे कोसना, उसकी बुराई करना, खामियां निकालना, गालियाँ देना शुरू कर देते। आश्चर्यजनक रूप से पेड़ कुछ ही दिनों में सूख जाता।
आपके धर्म के साथ भी यही हुआ है। स्कूल-कॉलेज की किताबों में, फिर फिल्मों, नाटक, गीत-संगीत के जरिये, कला-साहित्य में, अख़बारों-पत्रिकाओं और टीवी-इन्टरनेट के माध्यम से दशकों तक आपकी धार्मिक व्यवस्था के हर अंग को कोसा गया है। सोचिये कि सेक्युलर होने का मतलब धर्म को शासन से अलग रखना कैसे सिखाया गया? अधिकारिक अनुवादों में तो संविधान के “सेक्युलर” का हिंदी अनुवाद “पंथनिरपेक्ष” है, धर्मनिरपेक्ष तो लिखा ही नहीं! धार्मिक व्यवस्था देश की सामाजिक व्यवस्था से अलग होती है, फिर आपके ही धार्मिक त्योहारों पर आपको सामाजिक बुराइयों के लिए कैसे कोसा जाता है?
पेड़ से फल, छाया, या शुद्ध वातावरण जैसे जो फायदे उन्हें मिल रहे थे, उससे आगे बढ़कर वो पेड़ को सुखा डालना चाहते हैं, ताकि लकड़ी काटी जाए और जो जगह पेड़ ने घेर रखी है, वहां कुछ और बना लिया जाए। जितनी बार वो बुराई करें, उतनी बार आपको खुद तारीफ करके मनोबल को बढ़ाना होगा, ताकि धर्म का वृक्ष हरा-भरा रहे। पूरा पाठ नहीं कर पाते तो एक अध्याय पढ़िए, रात्रि सूक्त पढ़िए, अर्गला स्त्रोत पढ़िए, देवी अपराधक्षमापन पढ़िए, और ये मानकर पढ़िए कि वृक्ष को हरा-भरा बनाए रखने के लिए आप खाद-पानी दे रहे हैं।
बाकी ये याद रखिये कि आपकी अगली पीढ़ी तक धर्म को पहुँचाने का जिम्मा आपका है। आपके बच्चों को सिखाने कोई पड़ोसी आये, इसका इंतजार तो आप नहीं करते होंगे ना?
✍🏻आनन्द कुमार जी की पोस्टों से संग्रहित
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