अंग्रेजी शिक्षा आते ही धर्मशास्त्र से दूर कर दिया गया हिंदू समाज? इस पर तो कभी विचार किया ही नहीं गया।।
संकलन अश्विनी कुमार तिवारी
संभवतः किसी मशहूर से बास्केटबॉल खिलाड़ी से जुड़ा एक किस्सा था जिसमें कुछ पत्रकार उससे पूछते हैं कि उसके प्रतिस्पर्धियों के मुकाबले वो इतना अच्छा प्रदर्शन कैसे करता है? वो जवाब देता है कि जब वो सोने जाता तो अचानक उसकी नींद खुलती और वो सोचने लगता कि उसके प्रतिस्पर्धी क्या कर रहे होंगे? उसे हर बार लगता कि शायद वो लोग सुबह जल्दी उठ गए होंगे और अभी अभ्यास में जुटे होंगे। ये ध्यान आते ही वो घबराकर उठता और जल्दी से अभ्यास में जुट जाता। हर रोज के इस आधे-एक घंटे के ज्यादा अभ्यास से वो प्रतिस्पर्धा को पीछे छोड़ आने में कामयाब हुआ।
भारत का मसला भी ऐसा ही है। जब एक छोटी सी चुनावी जीत के बाद लोग खुशियाँ मनाने में लगे हैं तब भारत विखंडन में जुटी शक्तियां क्या कर रही होंगी? जब एक पक्ष को लगा कि उन्होंने आराम का समय अपनी मेहनत से अर्जित किया है तब टुकड़े-टुकड़े गैंग क्या कर रहा होगा? संभवतः वो लोग अगले हमले की तैयारी में जुटे होंगे। जब देश के लिए आगे आये लोग आराम करने बैठ गए तो वो उस कमजोर कड़ी को ढूंढ रहे होंगे जिसे तोड़ा जा सकता है। जब आप जीत की दावतों में बिरयानी उड़ा रहे थे तब वो आक्रमणों की नयी योजना बना रहे होंगे। बारह सौ साल से हमलों का सफलतापूर्वक सामना कर रहे समुदाय के लिए “आराम हराम है”।
पिछली सरकारों को जिन मुद्दों पर सबसे ज्यादा कोसा गया था उनमें से एक शिक्षा नीति थी। भारत में वैसे तो शिक्षा के लिए कोई अलग मंत्रालय ही नहीं बना, इसे मानव संसाधन विकास मंत्रालय का हिस्सा बना दिया गया है। थोड़ी सी कसर जो और रहती थी, वो इस विभाग के निकम्मेपन ने पूरी कर दी। भारत के बेहतर भविष्य के लिए शिक्षा नीतियों को बदला जाना जरूरी था। पाठ्यक्रमों में सुधार भी इस दिशा में अपेक्षित था। अफ़सोस कि डरपोक राजनेताओं की वजह से ऐसा हुआ नहीं। इस क्रम में शायद पूर्व मंत्री का संसद में दिया गया बयान याद होगा, जिसमें वो हर राजनैतिक विचारधारा को जगह देने की बात घिघियाती हुई कहती हैं।
ऐसे नेता किसी जादू से नहीं जन्मे। जैसा समुदाय होगा, उसका जनप्रतिनिधि भी उस जैसा ही चुना जायेगा। शिक्षा और नीतियों दोनों को अनदेखा करने वाला समाज शायद “कोऊ नृप होए हमें क्या हानि” वाली कहावत में ज्यादा भक्तिभाव रखता है। सत्तारूढ़ की बनायी नीतियों का कितना लम्बा असर होता है, इसे समझने में उसे दिक्कत नहीं। इन नीतियों पर वो टिप्पणी भी कर सकता है, उसे ये पता नहीं होता। कई बार ये नीतियां बनायी भी कुछ इस तरह जाती हैं कि आम आदमी उसकी भाषा, शैली, शब्दावली ही न समझ पाए।
कुछ इसी तर्ज पर नये बने शिक्षा नीति के प्रारूप पर जनता से राय मांगी गयी थी। ये प्रारूप करीब 650 पन्ने का था। ऑनलाइन मौजूद इस दस्तावेज की सबसे बड़ी कमी इसका आकार ही है, जिसे देखकर ज्यादातर लोग इसे पढ़ेंगे ही नहीं। इसे पढ़कर इसपर राय देने का समय भी कम ही दिया गया था। इतने कम समय में इसे कोई नौकरीपेशा आदमी पढ़ ले और उसपर राय दे, ये नामुमकिन नहीं तो मुश्किल तो जरूर है। इसके वाबजूद कुछ लोग इसे पढ़कर उसपर अपनी मंशा बता रहे थे। जाहिर है ये वैसे लोग हैं जिनका काम ही ऐसी चीज़ों को पढ़ना और उसपर टीका-टिप्पणी करना है। कहना तो नहीं होगा कि ये कौन सी जमात के लोग हैं? वही, जो नए मोर्चे की तैयारी कर रहे हैं।
अब शुरुआत की बात पर एक बार फिर से आते हैं। सोचिये कि विजय के उल्लास में जब आप बिरयानी की दावतें उड़ा रहे थे, तो वो ऐसे नीतियों के प्रारूप पढ़ रहे थे। सोचिये कि जब आपको लगता था कि आराम का समय आपने मेहनत कर के कमाया है, तो वो किस ओर से मोर्चा खोल रहे थे? शिक्षा नीति ये तय करेगी कि आपके और हमारे बच्चे क्या पढ़ेंगे। उसपर आपने कोई टीका-टिप्पणी नहीं की है। इस वजह से भविष्य में उसकी सोच कैसी होगी ये कोई और तय करने जा रहा है। ये बिलकुल वैसा ही है जैसा कभी मैकले ने सोचा था – वो रूप-रंग और शारीरिक तौर पर तो भारतीय होंगे, लेकिन उनकी सोच?
बाकी जिन मुद्दों पर मिडिया टीआरपी बटोरना चाहती है, उन्हीं पर अपनी टिप्पणी करने में अपना समय बर्बाद करना है या अपने बच्चों के भविष्य के लिए शिक्षा नीति के चार पन्ने पढ़ने हैं ये सोचना आपका ही काम है। सोचियेगा, क्योंकि सोचने पर फ़िलहाल जीएसटी नहीं लगता!
✍🏻आनन्द कुमार
अंग्रेजी शिक्षा आते ही धर्मशास्त्र से दूर कर दिया गया हिंदू समाज? इस पर तो कभी विचार किया ही नहीं गया।।
वास्तव में अंग्रेजों की शिक्षा पद्धति शुरू हो जाने के पश्चात,
धर्मशास्त्र की शिक्षा ही नहीँ दी गयी। अधिकांश प्राध्यापक भी भारत के विषय में कुछ नहीँ जानते। दर्शन शास्त्र की पुस्तकों में केवल शंकराचार्य का दर्शन पढ़ाते है तथा उनको इस्लाम प्रभावित और मूर्ति पूजा का विरोधी बताते हैं। किसी भी इतिहास लेखक ने अभी तक विक्रम संवत् या शालिवाहन शक का नाम नहीँ सुना है। ज्योतिष लेखक तथा प्राध्यापक भी शक तथा संवत् का अर्थ भूल चुके हैं। वे मानते हैं कि वराहमिहिर अपनी मृत्यु के ८३ वर्ष बाद के शालिवाहन शक का प्रयोग कर रहे थे। समाज अध्ययन में केवल वर्ग भेद तथा संघर्ष बताया गया है। जीवन भर वेद पढ़ने वाले भी उसकी उत्पत्ति १५०० ईपू में सिन्धु घाटी सभ्यता से मानते हैं। यदि ऋग्वेद का प्रथम सूक्त भी देख लेते तो पता चलता कि उसके दो शब्दों का प्रयोग केवल तमिल में होता है। यदि पश्चिमोत्तर के आर्य वेद थोपते तो इनका प्रयोग पंजाब, राजस्थान में भी होता। भारतीय शास्त्रों की पढ़ाई भारतीय विधि से आरम्भ ही नहीँ हुई। आरम्भ से उल्टी बातें बतायी जाती हैं। अतः प्रत्यक्ष चीज भी नहीँ दीखती।
सिलेबस का चक्रव्यूह-बचपन से विश्वविद्यालय तक सिलेबस मे जो कुछ पढ़ाया जाता है वह इतना सच लगता है कि प्रत्यक्ष चीज भी नही दीखती है। एक विषय मे जो पढ़ाया जाता है उसका ठीक उल्टा दूसरे विषय मे पढ़ाया जाता है, और दोनों को रट कर लोग आईएएस, प्राध्यापक आदि हो जाते हैं पर न भारत के विषय मे जानते है न अपने पढ़े हुए विषय को।
बचपन मे सुना था कि वर्तते का प्रयोग केवल पुराने काशी राज्य मे होता था (बाटे) तथा बाकी भारत में अस्ति (आहे- है, या अछि, ist-is) का प्रयोग बाकी भारत मे। उसके बाद आठ वर्ष की आयु मे पहली बार सिलेबस इतिहास मे आर्य आगमन तथा सिन्धु घाटी सभ्यता का नाम सुना, उस इतिहास से मेरा विश्वास उठ गया। यदि आर्य पश्चिम उत्तर से आये थे तो प्रयाग से पश्चिम वर्तते का प्रयोग क्यों नहीं है? पूजा की पुस्तक से वर्तते का प्रयोग खोजा तथा प्रमाणित किया कि केवल काशी क्षेत्र मे इसका प्रयोग क्यों होता है। उसके बाद अपने परिवार के एक व्यक्ति की हिन्दी ऑनर्स की पाठ्य पुस्तक देखी। हिन्दी साहित्य के इतिहास में (रामचन्द्र शुक्ल) लिखा था कि आठवीं सदी मे मुस्लिम आक्रमण के प्रतिकार के लिए गोरखनाथ ने राजाओं का संघ बनाया, चार पीठ बनाये तथा लोकभाषा मे साहित्य का आरम्भ किया। वही व्यक्ति इतिहास सिलेबस में पढ़ रहे थे कि आठवीं सदी में शंकराचार्य मुस्लिम आक्रमण के बदले बौद्ध धर्म का विरोध कर रहे थे तथा संस्कृत में शास्त्रार्थ करते थे। उनसे यह कहा तो उन्होंने बताया कि इसी प्रकार पागलों की तरह लिखने वाले विद्वान कहे जाते हैं तथा बुद्धि का प्रयोग करने वाला कोई परीक्षा नहीं पास कर सकता। अतः पक्का निश्चय किया कि काॅलेज में इतिहास, दर्शन आदि नहीं पढ़ना है। इन विषयों के विचारवान छात्रों को या तो कष्ट होता होगा या धीरे धीरे सोचने की क्षमता नष्ट होती होगी।
संस्कृत, वेद, ज्योतिष आदि में इस प्रकार के कई प्रसंग हैं। १९९२ में भारतीय दर्शन कांग्रेस के अध्यक्ष तथा उनके अन्य ७ सहयोगियों से चर्चा का अवसर मिला। अध्यक्ष का प्रवचन चल रहा था कि भारत में केवल शंकराचार्य आधुनिक विचारक थे जिन्होंने मूर्ति पूजा का विरोध किया था। कुछ देर उनकी बात सुनने से सिर दर्द हुआ तो मैंने कहा कि यदि शंकराचार्य के विषय मे कुछ पढ़ा नहीं है तो उनके विषय में प्रवचन नहीं दें। वह चुप हो गयीं तो उनके सहयोगी ने कहा कि वह दर्शन तथा इतिहास दोनों में एमए हैं तथा उनका शोध पत्र भी शंकराचार्य पर ही है। मुझे आश्चर्य हुआ और कहा कि इनकी बात से तो नहीं लगता कि इन्होंने शंकराचार्य की कोई पुस्तक देखी है। उन्होंने तुरंत स्वीकार किया कि वह संस्कृत में है, इसलिए नहीं पढ़ सकी। पर एमए तथा शोध क्यों? फिर मुझसे पूछा कि मैंने शंकराचार्य की कौन पुस्तक पढ़ी है? मैंने कहा कि कोई न पढ़ी है न सत्य जानने के लिए उसकी आवश्यकता है। भारत के किसी भी गांव में कोई भी पूजा हो, उसमें शंकराचार्य का कोई न कोई स्तोत्र पढ़ा जाता है। केवल भारतीय होना पर्याप्त है।
उन्होंने व्यंग्य किया कि यदि इतना जानते हैं, तो शोध पत्र क्यों नही लिखते? लालबहादुर शास्त्री संस्कृत विद्यापीठ दिल्ली की शोध पत्रिका का विशेषांक निकल रहा था। मैंने मूर्त-अमूर्त तथा वैदिक वर्गीकरण पर ५० पृष्ठ का एक लेख भेजा तो प्रकाशित हुआ था। बाद में पता चला कि वह राधाकृष्णन के सम्मान मे विशेषांक था। पर मेरा लेख उनके ग्रन्थों का पूरी तरह खण्डन करता है, ऐसा सन्देह अभी तक किसी को नहीं हुआ है। विशेषांक के लिए लेख मिल नहीं रहे थे, अतः मेरा विचित्र सा लम्बा लेख छाप कर विशेषांक बनाया गया।
२००१ के श्रीशैलम वैदिक सम्मेलन में पहली बार गया। प्राध्यापक लोग सरकारी खर्च पर ड्यूटी पर जाते हैं। कुछ भी लिख दें, वह शोध में गिना जाता है। मुझे छुट्टी लेकर अपने खर्च से जाना पड़ता है तथा अंग्रेजियत बहुल लोगों के विरोध के अतिरिक्त कुछ नहीं मिलता। वहां सम्मेलन के अध्यक्ष पण्डित सोमयाजुलु जी ने मेरी प्रशंसा में कहा था कि मेरा सौभाग्य है कि मुझे स्कूल काॅलेज में संस्कृत, इतिहास या दर्शन नहीं पढ़ना पड़ा नहीं तो ये विषय कभी नहीं समझता।
आज सत्ता परिवर्तन के कारण वे सभी अचानक राष्ट्रवादी इतिहासकार हो गये है पर रिटायर होने के बाद कोई भारतीय पुस्तक नहीं देखी है। आज एक राष्ट्रवादी मंच के एक इतिहासकार का भाषण सुनने का अवसर मिला। उनके अनुसार ५०० वर्ष पहले ब्राह्मण्य धर्म का प्रचार हुआ तथा ओड़िया भाषा संस्कृत से स्वतन्त्र हुई। उसके बाद जगन्नाथ संस्कृति का प्रचार हुआ। उनसे पूछा कि जगन्नाथ संस्कृति में शिव, काली या लक्ष्मी पूजा हो सकती है या नहीं। उनके अनुसार ये सब बाद की विकृति हैं। यदि पुरी का या कहीं का जगन्नाथ मन्दिर देख लेते तो सभी देवता एक ही मन्दिर में यथास्थान मिल जाते।
भारतीय शिक्षा व्यवस्था
अंग्रेजी शासन में भारतीय गुरुकुल पद्धति समाप्त की गयी जिसके द्वारा ९८% से अधिक लोग शिक्षित थे। यह आकलन मद्रास प्रेसीडेंसी के गवर्नर द्वारा १८२२ में किया गया। इससे स्पष्ट है कि सभी जातियों के लिए पूर्ण शिक्षा व्यवस्था थी। किन्तु आज प्रचार होता है कि कुछ जातियों को शिक्षा से वंचित किया गया था जिसके आधार पर संविधान में १० वर्ष के लिए २५% आरक्षण दिया गया। किन्तु यह अनन्त काल के लिए बढ़ता जा रहा है तथा आरक्षण का प्रतिशत भी कई बार ५०% से अधिक हो जाता है। विश्व के जिन देशों में दास प्रथा थी वहां भी दलित नाम पर कभी आरक्षण नहीं हुआ।
भारतीय शिक्षा पद्धति निर्मूल होने के बाद तथा कई जातियों का पारम्परिक व्यवसाय नष्ट होने से महंगी अंग्रेजी शिक्षा अधिकांश लोगों की पहुंच से बाहर हो गई। जो अति धनी वर्ग था वह शिक्षा के लिए विदेश जाने लगा तथा वहां पढ़े व्यक्ति अंग्रेजों के विशेष कृपापात्र बने जैसे गान्धी, नेहरू, अम्बेडकर। सबसे अधिक काल तक अम्बेडकर ने विदेशी शिक्षा पायी, उनको दलित माना जाता है। सुभाष चन्द्र वोस तथा अरविन्द ने विदेशी शिक्षा तथा नौकरी छोड़ी थी, अतः वे अंग्रेज निर्देशित राजनीति से बाहर हो गये।
स्वाधीनता या सत्ता हस्तान्तरण के बाद शिक्षा में जोड़-घटाव वाले सुधार हुए। ११ + २ + २ + २ के बदले १० + २ + ३ + २, या ११ + १ + ३ + २ आदि सुधार होते रहे।
पहले भौतिक विज्ञान, रसायन आदि की एमएससी तक की पाठ्य पुस्तक भारतीय लेखकों द्वारा लिखी होती थीं, जैसे वी वी नार्लीकर का क्वाण्टम मेकानिक्स, मेघनाद साहा और श्रीवास्तव का माडर्न फिजिक्स तथा ट्रीटाइज ऑन हीट या सत्यप्रकाश का ऐडवांस्ड केमिस्ट्री ऑफ रेयर अर्थ, वाडिया, कृष्णन की जिओलाॅजी ऑफ इण्डिया ऐण्ड बर्मा आदि।
अभी हाल है कि +२ की पाठ्य पुस्तक भी अमेरिका से आयात होती हैं, जैसे रेसनिक- हालीडे का फिजिक्स।
पहले भारतीय सिलेबस का दोष कहते थे कि केवल सिद्धान्त बताया जाता है, उसका प्रयोग या गणित नही। विज्ञान या तकनीक में जो शोध हुए उनका उद्योग या व्यवसाय की आवश्यकता से कोई सम्बन्ध नहीं रहा। उससे पीएचडी की डिग्री पा कर अपने बायोडाटा में लगाना है, जिससे लेक्चरर की प्रोन्नति रीडर या प्रोफेसर रूप में हो सके। छात्र जीवन में इन पदों के नाम का अर्थ
नहीं समझ आता था, आज भी स्पष्ट नहीं है। एक प्राध्यापक ने ही बताया था-जो पढ़ता और पढ़ाता है, वह लेक्चरर है, बिना पढ़े पढ़ाता है, वह रीडर है। जो न पढ़ता, न पढ़ाता है वह प्रोफेसर है। इस प्रकार के कई इमेरिटस प्रोफेसर प्रसिद्ध हैं जिन्होंने ३० वर्षों तक न कभी पढ़ाया न कोई पुस्तक लिखी। कुछ अन्य कृपापात्र एक या अधिक विश्वविद्यालयों के कुलपति हो जाते हैं। आर्थिक मतभेद से मोहभंग होने पर उन पर निगरानी विभाग का छापा पड़ता है।
सिलेबस में व्यावहारिक उपयोग की कमी दूर करने का कोई प्रयत्न नहीं हुआ। भारतीय शिक्षा केवल डिग्री के लिए बनी रही। वास्तविक काम के लिए विशेषज्ञ विदेश से बुलाये जाते रहे हैं।
शिक्षा को और नष्ट करने के लिए काॅलेज में पढ़ाई बन्द कर कोचिंग संस्था तथा व्यवसाय आरम्भ हुआ। सबसे कम पढ़े छात्र जो न शिक्षक बन सके न अन्य कोई नौकरी या व्यवसाय कर सके, इस व्यवसाय में लगे। अपने स्तर के अनुसार बिना विषय समझे मुख्य उत्तर रटने का अभ्यास कराया। वह भी नष्ट कर केवल ऑब्जेक्टिव टाइप प्रश्न की पद्धति चलाई जिसमें ४ उत्तरों में एक सही पर चिह्न लगाना है। इसी के अनुसार मेडिकल तथा इंजीनियरिंग की प्रवेश परीक्षा पद्धति बनी है।
आरक्षण के कारण बहुत से अच्छे छात्रों को भारत में काम नहीं मिल सका। अतः उनको देश छोड़कर भागना पड़ा। इसे ब्रेन ड्रेन का नाम दिया तथा चिन्तन चलने लगा। पर इसे रोकने के बदले आरक्षण और बढ़ाते चले गये। नोबेल पुरस्कार विजेता हरगोविंद खुराना तथा सुब्रह्मण्यम चन्द्रशेखर को भी भारत में शिक्षक का पद नहीं मिल सका था।
अभी स्थिति और खराब है जिसमें सुधार के बदले और पतन की आशंका है क्योंकि जातिवाद के नाम पर कुछ परिवारों की राजनीति चल रही है। पहले शिक्षा पूरी होने पर नौकरी के लिए विदेश जाते थे। या बहुत धनी व्यक्ति शिक्षा के लिए जाते थे। अब गरीब या मध्य वर्ग के छात्रों को विदेश जाना पड़ता है। उनको या तो यहां प्रवेश नहीं मिलेगा, या अन्य वर्ग को मुफ्त शिक्षा देने के लिए ५ गुणा फीस देनी पड़ेगी जो उनकी क्षमता के बाहर है। ५ मास पूर्व कुछ यूट्यूब पर शिक्षा खर्च विषय में जानकारी दी गयी थी। उसके अनुसार भारत में ५ वर्ष में एमबीबीएस करने में १५० से २५० लाख तक का खर्च है जिसमें पढ़ने, रहने, भोजन का खर्च शामिल है। यूक्रेन के सबसे अच्छे विश्वविद्यालयों में ६ वर्ष में एमबीबीएस + एमडी करने का खर्च २५ से ३५ लाख है जिसमें हर वर्ष भारत से आने जाने का खर्च तथा विदेशी छात्र के रजिस्ट्रेशन का खर्च भी शामिल है। प्रायः इतना ही खर्च चीन, रूस, कजाकिस्तान आदि में भी है। आस्ट्रेलिया तथा अमेरिका महंगे हैं पर वहां भी भारत जैसा खर्च नहीं है। इसके कई प्रकार की हानि है। या तो भारत से भागें या यहां पर बच्चों को पढ़ाने के लिए सरकारी धन की लूट करें। अन्त में शिक्षा व्यवसाय से डिग्री ही मिलेगी, ज्ञान नहीं। उसके लिए विदेश से ही विशेषज्ञ आते रहेंगे। विश्वगुरु का यह रूप हो रहा है कि पूरा विश्व हमारा गुरु है।✍🏻अरुण उपाध्यायहमारे खबरों को शेयर करना न भूलें| हमारे यूटूब चैनल से अवश्य जुड़ें https://www.youtube.com/divyarashminews https://www.facebook.com/divyarashmimag
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