मेडिकल शिक्षा पर छलका बिहार का दर्द
(अशोक त्रिपाठी-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)
- निजी मेडिकल कालेज में खर्च होता है 15 लाख
- यूक्रेन जैसे देशों मंे 4-5 लाख मंे बन जाते डाक्टर
यूक्रेन पर रूस के हमले के बाद भारतीयों की स्वदेश वापसी में मेडिकल छात्रों का मामला चर्चा का विषय बन गया। दरअसल मोदी सरकार के केन्द्रीय मंत्री प्रह्लाद जोशी ने एक विवादित बयान दिया। जोशी ने कहा था कि विदेश मंे मेडिकल की पढ़ाई करने जाने वाले 90 प्रतिशत छात्र भारत मंे क्वालीफायर तक उत्तीर्ण नहीं कर पाते। दूसरे शब्दों मंे कहें तो फिसड्डी छात्र ही विदेश में मेडिकल शिक्षा लेने जाते हैं। इसका जबर्दस्त विरोध हुआ। यूक्रेन में कर्नाटक के जिस छात्र की युद्ध के दौरान मौत हो गयी, उसके पिता ने बताया था कि नवीन बहुत मेधावी था लेकिन मेडिकल शिक्षा के लिए उसके पास पैसे नहीं थे। अब तो सुप्रीम कोर्ट ने भी एक छात्र के मामले में यह स्वीकार किया कि विदेश मेें मेडिकल शिक्षा सस्ती है। फर्जी दस्तावेज लगाकर बेटे को शिक्षा के लिए विदेश भेजने के मामले मंे सुप्रीम कोर्ट ने 8 फरवरी को 10 लाख रुपये जुर्माना लगाया था।
रूस-यूक्रेन युद्ध की गुंज अब बिहार में भी सुनने को मिल रही है। गत 2 मार्च को विधानसभा में ध्यानाकर्षण के माध्यम से यूक्रेन जैसे देशों में बिहार से बड़ी संख्या में एमबीबीएस की पढ़ाई करने जाने वाले बच्चों का मामला उठा। जदयू विधायक संजीव कुमार के साथ-साथ सत्ताधारी दल के कई विधायकों ने यह सवाल उठाते हुए कहा कि बिहार में सरकारी चिकित्सा महाविद्यालय कम हैं, जिसके कारण बच्चे निजी कॉलजों में एडमिशन कराते हैं और उनसे सालाना करीब 15 लाख रुपए फीस वसूली जाती है।
विधायकों ने यह मांग की है कि बिहार में निजी चिकित्सा महाविद्यालयों में फीस कम की जाये। फीस में कटौती और फीस निर्धारण कर सीएम नीतीश कुमार देश भर में मिशाल पेश करें। जैसा उन्होंने कई मामलों में किया है। साथ ही हर जिले में मेडिकल कालेज खोला जाये। बिहार में सरकारी मेडिकल कालेजों की कमी के कारण बिहार के हजारों छात्रों को एमबीबीएस पढ़ाई के लिए निजी मेडिकल कालेजों में नामांकन के लिए हर वर्ष 12 लाख रुपया नामांकन और 3 लाख होस्टल के लिए दोनों को मिलाकर कुल 15 लाख खर्च करना पड़ता है। बिहार के गरीब मेधावी छात्र एमबीबीएस पढ़ाई के लिए इतनी बड़ी रकम नहीं दे पाते हैं, जिसके कारण हजारों आर्थिक रूप से कमजोर छात्र-छात्राएं मेडिकल की पढ़ाई से वंचित रह जाते हैं जबकि यूक्रेन, नेपाल, चीन, फिलीपींस इत्यादि देशों में एमबीबीएस पढ़ाई के नामांकन तथा छात्रावास में प्रत्येक वर्ष मात्र 4-5 लाख रुपए की लागत आती है, जिसके कारण बिहार के छात्रों को मेडिकल की पढ़ाई के लिए विदेश जाना पड़ता है।
बिहार के निजी चिकित्सा महाविद्यालयों में एमबीबीएस पढ़ाई के खर्च में फी कैपिंग कर 4-5 लाख रुपए प्रतिवर्ष करने तथा बिहार में और अधिक सरकारी चिकित्सा महाविद्यालयों का निर्माण कर बिहार के होनहार छात्रों को पलायन से रोका जा सके। यूक्रेन में बिहार समेत देश भर के बच्चों के पढ़ने का मामला उठाये जाने के बाद सीएम नीतीश कुमार ने कहा कि मेडिकल कालेज में पढ़ने के लिए बड़ी संख्या में बच्चे यूक्रेन जा रहे हैं, यह किसी को मालूम नही था। इस पर नेशनल लेवल पर सोचना होगा। यहां जो भी कंपटीशन होता है नेशनल स्तर से होता है। नीतीश कुमार ने कहा कि बाहर जाने के लिए कोई परीक्षा नही देनी होती है। बिहार गरीब राज्य है सिर्फ इस लिए यहां के बच्चे पढ़ने नही गए हैं। अमीर राज्यों के बच्चे भी पढ़ने गए हैं। भारत में क्या-किया जा सकता है इस पर बात होनी चाहिए। नीतीश कुमार ने कहा कि नया-नया सोशल मीडिया आया उससे जानकारी मिली है ।पहले भी लोग पढ़ने रूस जाते थे लेकिन सिर्फ कम्युनिस्ट पार्ट के लोग जाते थे। हम लोगों को हाल में जानकारी मिली इतने लोग बाहर पढ़ने जा रहे हैं। इन चीजों पर निश्चित तौर से विचार होना चाहिए। यह मामला सिर्फ राज्य सरकार का नहीं है। बिहार में मेडिकल कालेजों की स्थिति और फीस में कटौती के मामले में स्वास्थ्य मंत्री मंगल पांडे ने कहा कि फिलहाल बिहार में 1850 यूजीसी की सीटें है।
आजादी के बाद पिछले 56 साल में सिर्फ 6 मेडिकल कालेज खुले और पिछले 16 साल में एनडीए की सरकार में 6 नए मेडिकल कालेज खोले गए हैं। मंगल पांडे ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट इस पूरे मामले की मॉनिटरिंग करता है और उसके द्वारा गठित कमेटी बच्चों की फीस तय करती। निजी चिकित्सा महाविद्यालय में 50 फीसदी छात्रों से सरकारी मेडिकल कालेजों के बराबर फीस लेने का प्रावधान किया गया है जो अगले वर्ष से लागू होगा। कोई भी संस्था कैपिटेशन फीस नहीं वसूल सकती है। फीस कैसे कम किया जाये इस पर फीस निर्धारण के लिए बनी कमिटी में बिहार सरकार के द्वारा प्रस्ताव दिया जाएगा।
उधर, यूक्रेन में फंसे भारतीयों छात्रों को निकालने के लिए चल रहे अभियान के बीच केंद्रीय मंत्री प्रह्लाद जोशी ने एक विवादित बयान दिया है। जोशी का कहना है कि विदेश में मेडिकल की पढ़ाई करने जाने वाले 90 फीसदी स्टूडेंट भारत में क्वालीफायर तक पास नहीं कर पाते। केंद्रीय मंत्री ने आगे कहा कि यह सही समय नहीं है, जब उन कारणों पर बात की जाए कि देश के लोग क्यों विदेश जाकर पढ़ाई करते हैं। दरअसल जो लोग विदेश से मेडिकल डिग्री हासिल करते हैं, उन्हें फॉरेन मेडिकल ग्रेजुएट्स एक्जामिनेशन पास करना पड़ता है, तभी वो भारत में इलाज करने के योग्य घोषित किए जाते हैं। केंद्रीय मंत्री प्रह्लाद जोशी का ये बयान ऐसे समय आया जब सरकार यूक्रेन में फंसे भारतीय स्टूडेंट्स को निकालने की कोशिशों में जुटी हुई है और खारकीव में रूसी हमले में मेडिकल की पढ़ाई कर रहे एक छात्र की मौत हो गई।
उल्लेखनीय है कि कम फीस की वजह से अपने बेटे को मेडिकल शिक्षा के लिए यूक्रेन भेजने वाले पिता पर लगाए गए दस लाख रुपए के आर्थिक दंड को सुप्रीम कोर्ट ने नरमी बरतते हुए दो लाख रुपए कर दिया है। दरअसल, यूक्रेन में फंसे भारतीय छात्रों की हालत देखकर सुप्रीम कोर्ट का मन पसीजा है। मामले में सुनवाई करते हुए कोर्ट ने कहा कि भारतीय छात्र वहां जाकर इसलिए पढ़ाई कर रहे हैं क्योंकि वहां मेडिकल शिक्षा की फीस भारत में निजी मेडिकल कॉलेज के मुकाबले काफी कम है। सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस एलएन राव और जस्टिस बीआर गवई की पीठ के सामने एक आदमी के फर्जी दस्तावेज लगाकर योग्यता प्रमाण पत्र हासिल करने के आरोप में ये कदम उठाया गया है। इस मामले में आठ फरवरी को हुई पिछली सुनवाई के दौरान उस पर दस लाख रुपए जुर्माना लगाया गया था लेकिन जब पता चला कि बेटे की मेडिकल शिक्षा के लिए प्रमाणपत्र बनवाने की बाबत उसने अपनी कुछ निजी जानकारी छिपाई है तो कोर्ट का रुख थोड़ा नरम हुआ।
नेशनल मेडिकल काउंसिल के वकील को कोर्ट ने कहा कि अभी यूक्रेन में करीब 20 हजार छात्र उच्च व्यवसायिक शिक्षा के लिए गए हुए हैं, वो युद्धग्रस्त यूक्रेन में फंसे हुए हैं। लड़ाई कब तक चलेगी इसका कोई पता नहीं। ये भारतीय छात्र वहां जाकर इसलिए पढ़ाई कर रहे हैं क्योंकि वहां मेडिकल शिक्षा की फीस भारत में निजी मेडिकल कॉलेज के मुकाबले काफी कम है। अभी युद्ध में छात्रों और उनके अभिभावकों की दशा को देखते हुए हमने अपने पुराने आदेश में सुधार करते हुए जुर्माना घटाने का फैसला किया है। नेशनल मेडिकल कमीशन के मुताबिक छात्र ने 2014 में हायर सेकेंड्री पास की थी फिर मेडिकल में अंडर ग्रेजुएट यानी यूजी के लिए आवेदन किया और दाखिला भी हो गया लेकिन इसके लिए उसने जो योग्यता सर्टिफिकेट कमीशन के पास जमा किया, उसमें बताई गई उम्र उसकी जन्म तिथि से मेल नहीं खा रही थी। सर्टिफिकेट के मुताबिक 31-12-2014 को उसकी उम्र 17 साल चार महीने होती है, लेकिन उसकी जन्म तिथि के सबूतों के मुताबिक उम्र 16 साल एक महीने ही होती है। विवाद इसी पर था। आयोग ने 11 अक्तूबर 2019 को छात्र के नाम कारण बताओ नोटिस दिया था क्योंकि तब योग्यता के मानदंडों के मुताबिक छात्र की न्यूनतम उम्र 17 साल नहीं हुई थी। छात्र ने हाईकोर्ट के आदेश पर आयोग के सामने अपनी बात रखी थी लेकिन तब आयोग ने उसे खारिज कर दिया था। फिर छात्र के पिता ने सुप्रीम कोर्ट में रिट दाखिल कर गुहार लगाई। कोर्ट ने फर्जीवाड़ा का गुनहगार मानते हुए दस लाख रुपए जुर्माना लगाया था।
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