कहाँ गयी वो होली की परम्परा
कहाँ गयी वो होली की परम्परा जिसमें लोक संगीत की धुन बजती थी,
लोक गायकों के मुख से राम कृष्ण सीता राधा से रत गीत निकलती थी;
होलिका दहन की राख उड़ाने गांव में वृद्ध जवान बच्चों की टोलियाँ निकलती थी,
राख उड़ा कर जब होली की टोली घर घर गाते गीत सुबह तक हर घर टहलती थी,
होली गीत गाने से पहले भंग घुले शर्बत पी पी कर जब सब होते थे मतवाले,
अपनों से मस्तक पर रंग अबीर लगवाकर वे तो बन जाते थे किस्मत वाले;
मित्र बंधु सखा भाई परिजन मिल खाते थे मीठे व्यंजन पुआ पूड़ी रसगुल्ले,
सफेद वस्त्र पहनकर हाथों में पिचकारी ले होते थे मित्र बंधुओं के हल्ले गुल्ले,
धूम धमाल चक्कर चौकड़ी हमजोली की ठिठोली तब मर्यादा के कारक थे,
बड़े बुजुर्गों के एक एक संदेश वचन तब हम सब के लिए हितों के संचारक थे;
तब न किसी को ठेस पहुँचती थी न तो कोई भी होता था छोटा या बड़ा,
सब के माथे पर तिलक होते अबीर के, लोग मिलजुल कर खाते दहीबड़ा,
अब उस होली की यादें हैं बस, अब वो भंग रंग नहीं कभी बिखरते हैं,
होली में अब लोग पी रहे शराब पुरानी होली का नशा पीने से भी नहीं चढते हैं,
अब होली दृढ हो गयी है नर्तकियों की नाच, फूहड़ गीतों और डीजे पर,
नयी पीढ़ियाँ मस्त हैं होली में घर चौबारे पर न टिक पाने वाली नश्वर चीजों पर,
अफसोस न संजो सका बाबा पुरखों के वे होली गीतों के सुर तान मधुर,
अब की होली में न रहा रंग, न रही ठिठोली न पुरखों के सुर ताल मधुर,
फिर भी होली तो होली है परम्परा है युगों का, रंग गुलाल तो बिकते हैं,
पारम्परिक गीत न सुन पायें, मीठे व्यंजन हो स्वाद हीन पर क्या परम्पराएं भी मिटते हैं?
----रचना सर्वाधिकार सुरक्षित
@ओम प्रकाश शर्मा, अम्बा, औरंगाबाद।
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