सरपंची हो गयी हवा
बहुरे हैं दिन गुलेल के
हेकड़ी भुलायी सब
जो थे बजूके
दुनिया के गाँव कई
हो गये अजूवे
बिखरे सब सधे सधे दाँव
शासन के खेल के।
पछुआ की टूट रही
शेखी पहरेदारी
सब अपने शोध रहे
रोजी खेती बारी
कितना बेकार हो मलाल
अब कच्चे तेल के।
नभ मे है मड़राती
बारूदी गंध
खंड खंड होते हैं
हँसते संबंध
कोई तो भर ले अनुराग
आशान्वित मेल के।
रामकृष्ण
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