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फाल्गुन मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि आमलकी या रंगभरी एकादशी कही जाती है।

फाल्गुन मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि आमलकी या रंगभरी एकादशी कही जाती है।

संकलन अश्विनी कुमार तिवारी

रंगभरी एकादशी , इसे ही आमलकी एकादशी भी कहते हैं ।
यदि इस एकादशी से पुष्य नक्षत्र और बृहस्पतिवार का संयोग हो तो यह 'पापनाशिनी' हो जाती है ।
रंग शुरू होगा आज से और होली बाद की रंग पञ्चमी तक चलता रहेगा ।
पता नहीं पहले कैसे रंग बनाते होंगे , अंगराग (अनुलेपन) का सन्दर्भ अवश्य हरिवंश में है , कुब्जा ने कृष्ण व बलराम को लगाया था, उस समय वे ऐसे प्रतीत होते थे जैसे दो साँड़ यमुना से कीचड़ लपेटकर आ रहे हों ।
कुब्जा मतवाली होकर मुस्कान सहित कहती है, अब तुम कहाँ जाओगे ? मैंने तुम्हें रोक लिया है, यहीं रहो और मुझे अंगीकार करो ।
श्रीकृष्ण मुस्कराते हुये आगे बढ़ जाते हैं ।
होली जिस प्रकार से अब खेली जाने लगी है वैसी पहले तो नहीं ही खेली जाती रही होगी ।
होली पर होला ( चना , मटर आग पर भूना गया ) भी खाते हैं । होला खाने में हाथ और मुँह काला हो जाता है , यदि वही हाथ किसी के गाल पर लगा दें तो वहाँ भी राख से काला हो जायेगा , शायद ऐसे ही हास परिहास से होली का स्वरूप विकसित होते होते कीचड़ उछालने तक पहुँचा ।
✍🏻अत्रि विक्रमार्क अन्तर्वेदी


इस दिन भगवान विष्णु ने आंवले को आदि वृक्ष के रूप में प्रतिष्ठित किया था। आमलकी एकादशी के दिन आंवला के वृक्ष और भगवान श्रीहरि की पूजा करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है।


आमलकी एकादशी को रंगभरी एकादशी के नाम से भी जाना जाता है। रंगभरी एकादशी एकमात्र एकादशी है जिसका संबंध भगवान शंकर व माता पार्वती से है। इस दिन बाबा विश्वनाथ की नगरी वाराणसी में विशेष पूजा होती है। इस दिन भक्त अपने बाबा पर जमकर अबीर-गुलाल उड़ाते हैं। इस एकादशी का संबंध भगवान शंकर व माता गौरा से है। कहते हैं कि इस दिन ही भगवान शंकर माता पार्वती को काशी लेकर आए थे। जब बाबा विश्वनाथ माता पार्वती का गौना कराकर पहली बार काशी लाए थे, तो उनका स्वागत रंग व गुलाल से हुआ था। यही कारण है कि आमलकी एकादशी को रंगभरी एकादशी कहा जाता है।


इस दिन भगवान श्रीहरि का पूजन करने के बाद आंवले के वृक्ष की जड़ में वेदी बनाके कलश स्थापित करें और उसपे भगवान विष्णु के छठे अवतार भगवान परशुराम जी की प्रतिमा स्थापित करें और भगवान परशुराम जी का पूजन करें।
जय श्रीहरि!
✍🏻सुमित कृष्ण


असम की “श्याम” जनजाति है जो ताई-खाम्यांग जनजाति से आये हुए माने जाते हैं | इनका नाम “श्याम” है और ये लोग “नीला” रंग बनाते हैं | नहीं, हमारी तरह नील, इंडिगो का इस्तेमाल नहीं करते | इनका नीला रंग “रोम” नाम के पौधे से बनता है, जो शायद नील के पौधे से अलग होता है | रंग को पक्का करने, सुरक्षित करने के लिए उसे लकड़ी के डब्बों में भरकर मिट्टी में गाड़ देते हैं | कपड़े रंगने का काम ज्यादातर इस काबिले की महिलाऐं करती हैं |


असम में पीला रंग भी इस्तेमाल होता है | इसे हमारी तरह हल्दी से नहीं निकालते, लेकिन एक जड़ से ही निकालते हैं | इस पौधे का नाम होता है “पुलकित” | बोडो, मिशी, कर्बिस जनजातियाँ अभी भी पौधों से निकले रंग से कपड़े रंगती हैं | सिन्दूर, काजल का इस्तेमाल लाल और काला रंग बनाने के लिए होता है | केले की राख को रोम वाले नीले रंग में मिला कर ज्यादा टिकने वाला काला रंग बनाते थे | एक जरथ नाम के पौधे के बीज को उबाल कर भी लाल रंग बनता है |


पूर्वी असम में लोग लाख, या लाह के कीड़ों से बना रंग इस्तेमाल करते हैं | कम से कम सौ-दो सौ किस्म के कीड़ों से वो लोग रंग निकाल सकते हैं | हमें उतने सारे का नाम भी पता करते रहना मुश्किल काम लगता है | ख़ासी जनजाति (जिसकी लड़कियां बहुत खूबसूरत होती हैं) बिलकुल अलग तरीकों से रंग निकालती हैं | ऊपर से असम के खासी और मेघालय के खासियों के रंग निकालने का तरीका भी अलग अलग होता है |


राजसी दिखाने-दिखने के लिए सुनहले रंग का इस्तेमाल होता है | इसे निकालना बड़ा मुश्किल काम होता था, सब नहीं कर सकते थे | जाहिर है ये सोना निकालने और उसे रंगने में इस्तेमाल करने लायक बनाने का काम महंगा भी होता था | तो ये जो राजाओं के कपड़े और पेंटिंग में इस्तेमाल होने वाला सुनहला रंग बनाते थे वो ख़ास होते थे | उन्हें सोने वाला यानि सोनेवाल नाम दे दिया गया था | अब सोनेवाल नाम ना सुना हो किसी ने ये तो नहीं कहना चाहेगा ना ?


खैर मेरी छाम्पादायिक मंशा तो ज्यादातर स्पष्ट रहती ही है | तो जहाँ इतने रंग बनते हों, ज्यादातर वैष्णव नामघर में जाने वाले लोग हों, कृष्ण के नाम से निकले, समानार्थक नाम इस्तेमाल होते हों, उस असम में अगर आप कहेंगे कि होली नहीं होती, तो किस जवाब की अपेक्षा करते हैं ? जाहिर है, मिशनरी प्रभाव में बंद हुआ होगा ! रंगों से कोई रिलिजन खराब नहीं होता, चलो “पुलकित” के रंगों का इस्तेमाल करने...
✍🏻आनन्द कुमार


पिट्ठा, खाजा(खाझा), तिलकुट और पुआ(होली पकवान)


संस्कृत के 'पिष्' धातु से बना है पिसाना जैसे गेहूँ पिसाना (कुछ लोग आटा भी पिसाते हैं!)। 'आटा पिसाने वालों' से ही प्रेरणा ले कर शब्द बना 'पिष्टपेषण'। पिसा हुआ कहलाता है पिष्ट और उसे भी पिसाने की बात हुई पिष्टपेषण माने व्यर्थ का श्रम या दुहराव भरा निरर्थक काम। तर्क वितर्क में व्यर्थ के विवाद के लिये भी इसका प्रयोग होता है।
पिसे हुये आटे को पानी या दूध में गूँथ कर गोल या चपटे आकार के उबले या तले खाद्य को 'पिष्टक' कहा गया। चावल के आटे से बनाये जाने पर पिष्टिक भी कहा जाता था। पूर्वी उत्तरप्रदेश और पश्चिमी बिहार का एक व्यंजन पिट्ठा इसी पिष्टक का अपभ्रंश है।
भरवा पिट्ठा आजकल 'युवाप्रिय' चीनी व्यंजन मोमो या नेपाली ममचा के तुल्य है। संस्कृतिकरण आर्थिक और औद्योगिक उन्नति एवं प्रभुता से भी निर्धारित होता है, पिट्ठा या ममचा की मोमो की तुलना में स्थिति इसे रेखांकित करती है।
मथने की क्रिया 'खज' कहलाती थी और दही को मथ कर निकलता है मक्खन। उससे बना घी कहलाता था 'खजपं'। विशिष्ट विधि से बेले हुये पिट्ठा को घी में तलने और शर्करा पाग में डुबोने के बाद बनाई गयी मिठाई के लिये जातक कथाओं में संज्ञा मिलती है - 'पिट्ठखज्जक'।
बताते हैं कि बुद्ध के शिष्य सारिपुत्र को पिट्ठखज्जक इतना प्रिय था कि उन्हों ने उसे न खाने की शपथ ले ली क्यों कि वह उन्हें लालची बनाता था :) यह कुछ अपने जैसा मामला है। जो मुझे अधिक प्रिय होता है, उससे आगे चल कर सुरक्षित दूरी बना लेता हूँ ;)
यह 'पिट्ठखज्जक' ही आगे चल कर और घिस गया और लोग 'खाजा' या 'खाझा' कहने लगे। हजारो वर्षों पुरानी यह मिठाई आज भी मंगल कार्यों में देश के पूर्वी क्षेत्रों में बनती है। कन्या की बिदाई के समय लड्डू के साथ यह अनिवार्य है।
कूट पीस कर बनी तिल की मिठाई के लिये भी पिष्टक संज्ञा ही प्रयुक्त होती थी। आधे पिसे तिल से बनने वाली आज की मिठाई 'तिलकुट' इसी की परवर्ती संस्करण है। पाणिनी इसका नाम 'पलल' भी बताते हैं। यह भी उतना ही पुराना है।
ऋग्वेद में एक मिष्ठान्न चर्चित है 'अपूप'। देवताओं के प्रिय इस व्यंजन की उन्हें आहुति दी जाती थी और लोकखाद्य तो था ही।
कई नव्यताओं के सर्जक विश्वामित्र पहली बार इसे भुने अन्न और सोम के साथ इन्द्र को अर्पित करते हुये गाते हैं (3.52.1):ऋषि अपाला कहती हैं कि कन्यायें इन्द्र को अपूप अर्पित कर रोग मुक्त हो स्वस्थ और कांतिमयी यौवन सम्पन्ना होती हैं (8.91)।
ऋग्वेद में इन्द्र किसी एक अर्थ में प्रयुक्त नहीं हुआ है। यह बहुत ही व्यापक और बहुअर्थी शब्द है। इन ऋचाओं में इन्द्र का अर्थ देह की जीवनशक्ति से है जिसे उत्तम आहार द्वारा पुष्ट करना होता है। यह भी ध्यातव्य है कि एक स्त्री ऋषि ने कन्याओं के हित इसे प्रतिपादित किया है। इन्द्र को आहुति का अर्थ यज्ञकुंड में अपूप झोंकना नहीं है बल्कि सोमादि औषधीय वनस्पतियों के साथ प्रार्थना के पश्चात उसे स्वयं वैसे ही पाना है जैसे आजकल 'तुमहिं निवेदित भोजन करई' भावना के साथ आस्तिक जन भोजन ग्रहण करते हैं: इस अपूप का जातक कथाओं में भी खूब वर्णन है। आज का पुआ यही 'अपूप' है। इसे बनाने की विधि हजारो वर्षों से यथावत रही है। आटे को दूध में घोल कर घी में छान लिया जाता है और शर्करा पाग में डुबो दिया जाता है। इसमें एक गुण यह भी होता है कि कई दिनों तक बिना दुर्गन्धित हुये खाने लायक बना रहता है। इस गुण की ओर भी ऋग्वेद में संकेत है।
रबड़ी, खोया या मलाई के साथ खाये जाने के कारण बाद में पुआ के साथ 'माल' जुड़ गया होगा जिसमें सम्पन्नता यानि आज की बोली में रिच कैलोरी का भाव है – 'मालपुआ'।
यह होली का प्रमुख पकवान है और युवा गृहिणी का देहराग रूपक भी। यौवन से भरी पुरी देह लिये सहज सुन्दरी आकर्षणगुण सम्पन्ना मधुरा की कामपर्व के दिन इससे अच्छी रसोई क्या हो सकती है? रसिया के लिये चुनौती भी है - शक्ति है लाला तो...मेरे पुये खा कर दिखाओ! ✍🏻सनातन कालयात्री श्री गिरिजेश राव
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